टिप्पणी
तारीख की नजरों ने वो मंजर भी देखे हैं,
जब लम्हों ने खता की और सदियों ने सजा पाई।
यकीनन बीकानेर जिले के अमन पंसद लोग अब उस घड़ी को कोस रहे होंगे, जब श्रीडूंगरगढ़ कस्बे में जरा सी बात बड़े विवाद की वजह बन गई। किसी ने कल्पना तक भी नहीं की होगी कि डीजे बजने जैसी मामूली बात से शुरू हुआ विवाद बाद में इतना बड़ा होकर आगजनी और पथराव तक पहुंच जाएगा। आखिर ऐसा क्या था, जिसने साथ-साथ उठने-बैठने वालों को एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोलने पर मजबूर कर दिया। मजहब किसी का भी हो वह तो इसांनियत का पाठ ही पढ़ाता है। नेकी की राह दिखाता है। वह तो कभी बैर नहीं सिखाता, फिर क्यों लोग एक दूसरे की जान के दुश्मन हो गए। बीकानेर जिले के वाशिंदों की शांतिप्रियता एवं सहनशीलता की तोअक्सर नजीरें दी जाती रही हैं, फिर वे इतने उग्र क्यों व कैसे हो गए। इंसानियत व भाईचारे की तो यहां कदम-कदम पर मिसालें मिलती हैं। मानवता के प्रति सेवाभाव यहां का संस्कार है फिर क्यों लोगों का खून इतना उबाल मार गया। इस तरह के सवाल
बहुत से हैं, जो लंबे समय तक लोगों को सालते रहेंगे, कचोटते रहेंगे।
वैसे इस घटनाक्रम की कल को जांच भी होगी। बात बिगडऩे के कारण भी सामने आएंगे। किसकी भूमिका कैसी रही शायद यह भी बताया जाए, लेकिन यह घटनाक्रम श्रीडूंगरगढ़ के इतिहास के साथ काले अध्याय के रूप में जरूर चस्पा हो गया। कस्बे के नाम के साथ यह भयावह व दर्दनाक मामला एक दस्तावेज की तरह जुड़ गया है, जो चाहते हुए भी कभी अलग नहीं हो पाएगा। जिले के सद्भाव पर जो वज्रपात हुआ है, उसकी भी भरपाई शायद ही हो पाए।
इधर पुलिस व प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। वह इसलिए क्योंकि इस मामले को सुलझाने में जितनी गंभीरता व सतर्कता पुलिस व प्रशासन ने बाद में दिखाई, उतनी समय रहते पहले बरत ली जाती तो शायद हालात इतने विकट नहीं होते। विवाद के तुरंत बाद अगर समझाइश के प्रयास शुरू होते तो इसको नियंत्रित करना काफी कुछ संभव था। शुरू में मामले को हल्के में लिया गया और देर रात जब पुलिस जाब्ता पहुंचा तब तक मामला उग्र होकर नियंत्रण
से बाहर हो गया था। सुबह भी जो मुस्तैदी पथराव व आगजनी के बाद दिखाई गई वैसा पहले कर लिया जाता तो स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं होती। पुलिस व प्रशासन द्वारा अतिरिक्त सतर्कता न बरतने, मामले की गंभीरता को न समझने तथा संवदेनशील मसले को हल्के में लेना भी विवाद बढ़ाने में प्रमुख कारक रहे।
इन सब के बावजूद बीकानेर का सा प्रदायिक सदभाव गजब है, जिसको मिसाल के रूप में देखा जाता है। एक-दूसरे के दुख-दर्द में शामिल होना। त्योहारों व पर्वों में समान रूप से सहभागिता करना यहां की पुरातन परंपरा रही है। सेवा शिविर तो सबसे बड़े उदाहरण हैं, जहां मजहब तक गौण हो जाता है और सिर्फ भाईचारा ही भाईचारा दिखाई देता है।खैर, जो हुआ उसकी भरपाई तो अब किसी भी कीमत पर संभव नहीं हैलेकिन इस बात का संकल्प जरूर लिया जा सकता है कि ऐसा भविष्य में फिर ना हो। एेसे में जरूरत है कि सदभाव , अमन चैन एवं गंगा-जमुनी संस्कृति की अनुकरणीय परंपरा को न केवल बनाया रखा जाए अपितु इसको और अधिक प्रगाढ़ और मजबूत करने का प्रयास भी कियाजाए। वैसे भी सदभाव का रिश्ता विश्वास नामक धागे से बंधा होता है। इसलिए विश्वास के इस धागे को अफवाह एव दुष्प्रचार जैसे दुश्मनों से बचाना सबकी प्राथमिकताओं में शामिल होना चाहिए। बीकानेरवासियों की अपणायत देखते हुए यह संभव भी है। इधर, पुलिस व प्रशासन को भी इस प्रकार के घटनाक्रम से सबक लेना चाहिए एवं समय रहते चेत जाना चाहिए।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 25 अक्टूबर 15 के अंक में प्रकाशित
तारीख की नजरों ने वो मंजर भी देखे हैं,
जब लम्हों ने खता की और सदियों ने सजा पाई।
यकीनन बीकानेर जिले के अमन पंसद लोग अब उस घड़ी को कोस रहे होंगे, जब श्रीडूंगरगढ़ कस्बे में जरा सी बात बड़े विवाद की वजह बन गई। किसी ने कल्पना तक भी नहीं की होगी कि डीजे बजने जैसी मामूली बात से शुरू हुआ विवाद बाद में इतना बड़ा होकर आगजनी और पथराव तक पहुंच जाएगा। आखिर ऐसा क्या था, जिसने साथ-साथ उठने-बैठने वालों को एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोलने पर मजबूर कर दिया। मजहब किसी का भी हो वह तो इसांनियत का पाठ ही पढ़ाता है। नेकी की राह दिखाता है। वह तो कभी बैर नहीं सिखाता, फिर क्यों लोग एक दूसरे की जान के दुश्मन हो गए। बीकानेर जिले के वाशिंदों की शांतिप्रियता एवं सहनशीलता की तोअक्सर नजीरें दी जाती रही हैं, फिर वे इतने उग्र क्यों व कैसे हो गए। इंसानियत व भाईचारे की तो यहां कदम-कदम पर मिसालें मिलती हैं। मानवता के प्रति सेवाभाव यहां का संस्कार है फिर क्यों लोगों का खून इतना उबाल मार गया। इस तरह के सवाल
बहुत से हैं, जो लंबे समय तक लोगों को सालते रहेंगे, कचोटते रहेंगे।
वैसे इस घटनाक्रम की कल को जांच भी होगी। बात बिगडऩे के कारण भी सामने आएंगे। किसकी भूमिका कैसी रही शायद यह भी बताया जाए, लेकिन यह घटनाक्रम श्रीडूंगरगढ़ के इतिहास के साथ काले अध्याय के रूप में जरूर चस्पा हो गया। कस्बे के नाम के साथ यह भयावह व दर्दनाक मामला एक दस्तावेज की तरह जुड़ गया है, जो चाहते हुए भी कभी अलग नहीं हो पाएगा। जिले के सद्भाव पर जो वज्रपात हुआ है, उसकी भी भरपाई शायद ही हो पाए।
इधर पुलिस व प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल उठ रहे हैं। वह इसलिए क्योंकि इस मामले को सुलझाने में जितनी गंभीरता व सतर्कता पुलिस व प्रशासन ने बाद में दिखाई, उतनी समय रहते पहले बरत ली जाती तो शायद हालात इतने विकट नहीं होते। विवाद के तुरंत बाद अगर समझाइश के प्रयास शुरू होते तो इसको नियंत्रित करना काफी कुछ संभव था। शुरू में मामले को हल्के में लिया गया और देर रात जब पुलिस जाब्ता पहुंचा तब तक मामला उग्र होकर नियंत्रण
से बाहर हो गया था। सुबह भी जो मुस्तैदी पथराव व आगजनी के बाद दिखाई गई वैसा पहले कर लिया जाता तो स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं होती। पुलिस व प्रशासन द्वारा अतिरिक्त सतर्कता न बरतने, मामले की गंभीरता को न समझने तथा संवदेनशील मसले को हल्के में लेना भी विवाद बढ़ाने में प्रमुख कारक रहे।
इन सब के बावजूद बीकानेर का सा प्रदायिक सदभाव गजब है, जिसको मिसाल के रूप में देखा जाता है। एक-दूसरे के दुख-दर्द में शामिल होना। त्योहारों व पर्वों में समान रूप से सहभागिता करना यहां की पुरातन परंपरा रही है। सेवा शिविर तो सबसे बड़े उदाहरण हैं, जहां मजहब तक गौण हो जाता है और सिर्फ भाईचारा ही भाईचारा दिखाई देता है।खैर, जो हुआ उसकी भरपाई तो अब किसी भी कीमत पर संभव नहीं हैलेकिन इस बात का संकल्प जरूर लिया जा सकता है कि ऐसा भविष्य में फिर ना हो। एेसे में जरूरत है कि सदभाव , अमन चैन एवं गंगा-जमुनी संस्कृति की अनुकरणीय परंपरा को न केवल बनाया रखा जाए अपितु इसको और अधिक प्रगाढ़ और मजबूत करने का प्रयास भी कियाजाए। वैसे भी सदभाव का रिश्ता विश्वास नामक धागे से बंधा होता है। इसलिए विश्वास के इस धागे को अफवाह एव दुष्प्रचार जैसे दुश्मनों से बचाना सबकी प्राथमिकताओं में शामिल होना चाहिए। बीकानेरवासियों की अपणायत देखते हुए यह संभव भी है। इधर, पुलिस व प्रशासन को भी इस प्रकार के घटनाक्रम से सबक लेना चाहिए एवं समय रहते चेत जाना चाहिए।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 25 अक्टूबर 15 के अंक में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment