Friday, December 25, 2015

सूरत क्यों नहीं बदल रही?

टिप्पणी 

लगता है बीकानेर की समस्याएं भी मौसम की तरह हो गई हैं। बदलते मौसम के साथ बदल जाती हैं। मतलब बदलवा दी जाती हैं या थोप दी जाती हैं। भले ही समस्या का हल ना हो या फिर समस्या के निराकरण का कोई उचित आश्वासन भी नहीं मिला हो। हालात ऐसे हैं कि किसी प्रमुख समस्या का मसला यकायक ही गौण हो जाता है तो अकस्मात ही कोई नया मुद्दा मुखर हो उठता है। यह बात दीगर है कि कुछ समस्याएं परिस्थितिजन्य होती हैं, कुछ व्यवस्थागत तो कुछ स्थायी। लेकिन इससे उन लोगों को कोई सरोकार नहीं है जो जनहित का मुद्दा प्रचारित कर सिर्फ खुद का चेहरा चमकाने की जुगत में रहते हैं। कई उदाहरण तो ऐसे भी सामने आए जिनमें एकसूत्री मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही रहा, भले ही सूरत ना बदले। समस्या के समाधान की बजाय चर्चा में बने रहने के तरीके खोजने पर ध्यान ज्यादा दिया गया। यह आरोप इसलिए क्योंकि ईमानदारी से समस्याओं के लिए संगठित रूप से कोई आवाज उठती तो क्या बीकानेर के हालात ऐसे होते? क्या कोई मसला मुकाम तक पहुंचने से पहले ही खत्म हो जाता? और जब समस्या इतनी गंभीर है व जन-जन से जुड़ी है तो फिर प्रदर्शनों से आम जन दूर क्यों हैं? शायद इसलिए कि आम लोगों को इन प्रदर्शनों की हकीकत तथा इनके पर्दे के पीछे का सच समझ में आ गया है? इस तरह के सवाल बीकानेर में बहुत से हैं।
वैसे, शहर में समस्याओं की फेहरिस्त लम्बी है। फर्श से लेकर अर्श तक की समस्याएं। हर तरह की समस्याएं। आम से लेकर खास तक की। सड़क, बिजली, पानी से लेकर यातायात व हवाई सेवा तक की। शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक की। सीवरेज से लेकर डे्रनेज तक की। रेल फाटकों से लेकर अतिक्रमण व अवैध कब्जों तक की। बिजली चोरी से लेकर कमीशनखोरी तक की। अनियमितता से लेकर भ्रष्टाचार तक की। आवारा पशुओं से लेेकर गंदगी तक की। और भी न जाने कितनी ही समस्याएं। अनगिनत समस्याओं का अंबार लगा है यहां। दरअसल, इतनी समस्याएं हैं कि कथित समाधान करवाने वालों को विकल्प चुनने में कभी कोई दिक्कत नहीं होती। कभी यह तो कभी वो की तर्ज पर प्रदर्शनों की रूपरेखा तय होती रहती है। मौके की नजाकत देखते हुए सबसे प्रासंगिक मसले को न केवल हाथ में लिया जाता है अपितु भुनाया भी जाता है और फिर चुपके से दरकिनार भी कर दिया जाता है। विडम्बना देखिए, एक ही मसले पर सबका अलग-अलग दृष्टिकोण होता है और समाधान के तरीके भी दीगर। तभी तो ध्यान समस्या के समाधान की बजाय खुद को जन हितैषी बताने की कवायद पर ज्यादा रहता है।
बहरहाल, समस्याओं के समाधान के लिए लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन होते रहने चाहिए। इन आंदोलनों एवं प्रदर्शनों के माध्यम से ही तो शासन-प्रशासन का ध्यान समस्या की तरफ जाता है और उनको कार्रवाई करने पर मजबूर करता है, लेकिन चिंता की बात तो यह है कि सब कुछ जानने के बाद भी आंखें मूंद ली जाती हैं या कार्रवाई नहीं होती। शायद इसलिए कि बीकानेर का नेतृत्व कमजोर है? या जो विपक्ष में होता है वह यहां प्रभावी भूमिका नहीं निभा पाता? या फिर यहां के प्रदर्शनकारी शहर के बड़े मर्ज की नब्ज टटोलने में प्रभावी नहीं है? और सबसे बड़ा कारण लोगों की जरूरत से ज्यादा सहनशीलता।
खैर, अब भी अगर एकजुटता के साथ समस्या के समाधान के लिए आखिरी तक लडऩे की आदत नहीं अपनाई गई तो शायद ही शासन-प्रशासन के कानों पर जूं रेंगेंगी। इसलिए इस बात पर गंभीरता से विचार कर उसको आदत में लाने की जरूरत है अन्यथा हालात और भी भयावह होंगे।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 05 अगस्त 15 के अंक में प्रकाशित 

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