मेरे संस्मरण-8
सामान्य दिनों में भी एक सैनिक की दिनचर्या बड़ी व्यस्त रहती थी। सुबह की शुरुआत पीटी परेड से होती। इसके बाद मेन्टीनेंस परेड होती थी। इसमें उपकरणों एवं हथियारों की सफाई की जाती थी। इसके बाद ग्रेड पास करने के लिए कक्षाएं लगती थीं। शाम को फिर गेम होते थे। चूंकि मैं भर्ती के दौरान सातवीं में ही था। सेना में जाने के बाद मैंने इंडियन आर्मी फस्र्ट क्लास हिन्दी में उत्तीर्ण की। यह सिविल के दसवीं के समकक्ष मानी जाती थी। इसके बाद मैंने 1956 में एजुकेशन कोर्स भी कर लिया था। इस कोर्स को करने वाले सेना में कम पढ़े लिखे जवानों को पढ़ाने का काम करते थे। मैंने 1956 से 64 तक पढ़ाने का काम किया। इस कारण मैं लगभग दिनभर व्यस्त ही रहता था। शाम को रोल काल होता था। चैक किया जाता था कि कौन उपस्थित है और कौन नहीं। इसी दौरान चार दिन में एक दिन फिल्म देखने का मौका मिलता था। यह राजकपूर, दिलीप कुमार, अशोक कुमार, सुरैया, नरगिस आदि का दौर था। फिल्म दिखाने के लिए गाड़ी आती थी। शाम को पर्दा लगा दिया जाता था। हम लोग रात का भोजन करने के उपरांत फिल्म देखते थे। जेसीओज एवं जवानों के लिए यह सस्ता व आसानी से सुलभ होने वाला मनोरंजन था। हम सभी जमीन पर बैठकर फिल्म देखते थे। बैठने तिरपाल बिछा दिया जाता था। फैमिली क्वार्टर में जो साथी सपरिवार रहते थे, वे परिवार के साथ फिल्में देखते थे। महिलाओं के लिए अलग से कुर्सी लगा दी जाती थी। सचमुच खुले आसमान के नीचे बैठने का आंनद ही कुछ और था। बिलकुल नैसर्गिक वातावरण में मनोरंजन। अफसरों के लिए फिल्म देखने की व्यवस्था अलग होती थी। शायद ही उन्होंने कभी हमारे साथ फिल्म देखी होगी। हालांकि बाहर शहर में भी सिनेमाघर लेकिन वहां जाने की फुरसत किसको थी। रविवार को थोड़ा बहुत वक्त मिलता था लेकिन मैं कभी बाहर नहीं गया। बाहर भी घूमना होता तो सिटी तक कभी नहीं गए। झांसी के सदर बाजार तक ही घूम कर आ जाते लेकिन सिनेमाघर नहीं गया। वैसे चार दिन में एक बार फिल्म देखना भी काफी था। लेकिन यह निशुल्क नहीं था। वेतन से फिल्म देखने की राशि काट ली जाती थी। यह फिल्मों की संख्या पर निर्धारित होता था। मेरे पहले बारह आने तथा बाद में एक रुपया कटने लगा था। इस वक्त राजकपूर की फिल्में ज्यादा चर्चा में थी। आवारा, 420, आग आदि फिल्मों की याद तो आज भी ताजा है।
बबीना रहते ही 1962 में चीन के साथ युद्ध शुरू हो गया था। हमको आदेश मिला कि तत्काल तैयार हो जाओ। हमारा सारा सामान व गाडिय़ां इत्यादि बस रवानगी की तैयारी में ही थे कि सीजफायर हो गया। हमको मोर्च पर जाने की जरूरत नहीं पड़ी। आखिरकार 1964 में हमारी यूनिट अमृतसर आ गई। गोवा ऑपरेशन एवं चीन की लड़ाई के बाद धर्मपत्नी फिर मेरे साथ आ गई थी। उसका इलाज करवाना था। अमृतसर में वो मेरे साथ ही थी। कुछ दिन वो मेरे साथ रही। पेट से होने के कारण उसको मैंने गांव छोड़ दिया था।
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