मेरे संस्मरण-9
धर्मपत्नी के साथ मैं भी दो माह की छुट्टी लेकर आया था। शादी के दस साल बाद एवं लंबे इलाज के परिणामस्वरूप आखिर वह घड़़ी भी आई जिसका न केवल मेरे को बल्कि सभी परिजनों को बेसब्री से इंतजार था। धर्मपत्नी तीन दिन तक प्रसव पीड़ा से परेशान होती रही। कभी ऊंट पर दाई को लेकर आए तो कभी डाक्टर को। उत्सुकता के साथ जेहन में तरह-तरह के भाव भी आ रहे थे। आखिरकार ऊपर वाले की मेहरबानी से सब कुछ सही ही हुआ। धर्मपत्नी ने सुबह सात बजे के करीब एक बालक को जन्म दिया ।
30 अगस्त 1964 का दिन मेरे लिए वाकई ऐतिहासिक एवं बहुत अधिक खुशी देने वाला था। परिवार में भी खुशियों का दिन था। मां व कंवरजी की खुशी छिपाए नहीं छिप नहीं रही थी। धर्मपत्नी भी कोख आबाद होने की खुशी में प्रफुल्लित थी। मैंने बाकायदा जन्म की तारीख एवं समय का उल्लेख उसी वक्त अपनी डायरी में भी किया। विधि का विधान देखिए, बालक का जन्म हुआ, उस दिन संयोग से जन्माष्टमी थी। ग्रामीण क्षेत्र में आज भी जन्माष्टमी को केसरिया के नाम से जाना जाता है। बाकायदा खेजड़ी के पेड़ के नीचे धोक लगती है। दरसअल, केसरिया शब्द केशव से ही बना है और शायद अपभ्रंश हो गया। जन्माष्टमी के दिन बालक पैदा हुआ, इसलिए नाम रखा गया केशर। बालक होने की खुशी में खांड का चूरमा बनाया गया था, जो महिलाओं में काफी चर्चा का विषय बना। उस दौर में गुड़ का चूरमा ही बनता था। खैर, सीमित साधन और एक आम कृषक परिवार में उस दौर में किसी बड़े एवं तामझाम वाले आयोजन की कल्पना भी नहीं जा सकती थी। वैसे मौजूदा दौर की तरह कोइ प्रचलन भी नहीं था। केशर के जन्म से जुड़ी एक बात जरूर है जिसका उल्लेख करना जरूरी है। धर्मपत्नी ने कई मंदिर देवरे धोके। कई जगह मन्नत मांगी। लेकिन जिसने सर्वाधिक प्रभावित किया वह था, सत्यनारायण का व्रत। प्रत्येक पूर्णमासी को हम दोनों सामूहिक रूप से यह व्रत करते। व्रत बाद में कब आदत में बदला पता ही नहीं चला। पुत्र प्राप्ति के बाद यह हम दोनों पति-पत्नी यह व्रत करते रहे।
पुत्र रत्न की प्राप्ति में दो माह का समय कब बीता पता ही नहीं चला। आखिर मेरी छुट्टियां खत्म हुई और अमृतसर के लिए रवाना हो गया। दो माह के घर के माहौल से बिलकुल उलट मैं वापस फौज के रंग में रंग गया था। वो ही परेड पीटी का दौर। आखिर सितम्बर 1965 की वह घड़ी भी आ गई जब देश पर युद्ध के बादल मंडराने लगे थे। पड़ोसी मुल्क पाक के हुकमरान हमारे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को बेहद सीधा व सरल आदमी समझ बैठे थे। उन्होंने रणनीति भी इसी हिसाब से तय की थी। पाक को उस दौरान अमरीका से लिए गए आधुनिक टैंकों का भी गुरुर था। इसी दौरान हम लोग युद्ध अभ्यास के सिलसिले में होशियारपुर के लिए रवाना हुए थे। हम रात को तम्बू लगाकर सोने की तैयारी में ही थे कि पटियाला से वायरलैस से आ गया।
धर्मपत्नी के साथ मैं भी दो माह की छुट्टी लेकर आया था। शादी के दस साल बाद एवं लंबे इलाज के परिणामस्वरूप आखिर वह घड़़ी भी आई जिसका न केवल मेरे को बल्कि सभी परिजनों को बेसब्री से इंतजार था। धर्मपत्नी तीन दिन तक प्रसव पीड़ा से परेशान होती रही। कभी ऊंट पर दाई को लेकर आए तो कभी डाक्टर को। उत्सुकता के साथ जेहन में तरह-तरह के भाव भी आ रहे थे। आखिरकार ऊपर वाले की मेहरबानी से सब कुछ सही ही हुआ। धर्मपत्नी ने सुबह सात बजे के करीब एक बालक को जन्म दिया ।
30 अगस्त 1964 का दिन मेरे लिए वाकई ऐतिहासिक एवं बहुत अधिक खुशी देने वाला था। परिवार में भी खुशियों का दिन था। मां व कंवरजी की खुशी छिपाए नहीं छिप नहीं रही थी। धर्मपत्नी भी कोख आबाद होने की खुशी में प्रफुल्लित थी। मैंने बाकायदा जन्म की तारीख एवं समय का उल्लेख उसी वक्त अपनी डायरी में भी किया। विधि का विधान देखिए, बालक का जन्म हुआ, उस दिन संयोग से जन्माष्टमी थी। ग्रामीण क्षेत्र में आज भी जन्माष्टमी को केसरिया के नाम से जाना जाता है। बाकायदा खेजड़ी के पेड़ के नीचे धोक लगती है। दरसअल, केसरिया शब्द केशव से ही बना है और शायद अपभ्रंश हो गया। जन्माष्टमी के दिन बालक पैदा हुआ, इसलिए नाम रखा गया केशर। बालक होने की खुशी में खांड का चूरमा बनाया गया था, जो महिलाओं में काफी चर्चा का विषय बना। उस दौर में गुड़ का चूरमा ही बनता था। खैर, सीमित साधन और एक आम कृषक परिवार में उस दौर में किसी बड़े एवं तामझाम वाले आयोजन की कल्पना भी नहीं जा सकती थी। वैसे मौजूदा दौर की तरह कोइ प्रचलन भी नहीं था। केशर के जन्म से जुड़ी एक बात जरूर है जिसका उल्लेख करना जरूरी है। धर्मपत्नी ने कई मंदिर देवरे धोके। कई जगह मन्नत मांगी। लेकिन जिसने सर्वाधिक प्रभावित किया वह था, सत्यनारायण का व्रत। प्रत्येक पूर्णमासी को हम दोनों सामूहिक रूप से यह व्रत करते। व्रत बाद में कब आदत में बदला पता ही नहीं चला। पुत्र प्राप्ति के बाद यह हम दोनों पति-पत्नी यह व्रत करते रहे।
पुत्र रत्न की प्राप्ति में दो माह का समय कब बीता पता ही नहीं चला। आखिर मेरी छुट्टियां खत्म हुई और अमृतसर के लिए रवाना हो गया। दो माह के घर के माहौल से बिलकुल उलट मैं वापस फौज के रंग में रंग गया था। वो ही परेड पीटी का दौर। आखिर सितम्बर 1965 की वह घड़ी भी आ गई जब देश पर युद्ध के बादल मंडराने लगे थे। पड़ोसी मुल्क पाक के हुकमरान हमारे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री को बेहद सीधा व सरल आदमी समझ बैठे थे। उन्होंने रणनीति भी इसी हिसाब से तय की थी। पाक को उस दौरान अमरीका से लिए गए आधुनिक टैंकों का भी गुरुर था। इसी दौरान हम लोग युद्ध अभ्यास के सिलसिले में होशियारपुर के लिए रवाना हुए थे। हम रात को तम्बू लगाकर सोने की तैयारी में ही थे कि पटियाला से वायरलैस से आ गया।
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