टिप्पणी
बीकानेर के फड़बाजार में बुधवार को नगर निगम के अमले ने भारी पुलिस जाब्ते की मौजूदगी में बड़ी संख्या में अतिक्रमण हटाए। करीब साढ़े छह घंटे की कार्रवाई का छिटपुट विरोध ही हुआ। कई दिनों बाद शहर में ऐसी कार्रवाई देखने को मिली। अन्यथा किसी तरह का विरोध या जनप्रतिनिधियों के दवाब में आकर अक्सर इस तरह की कार्रवाई मुकाम तक पहुंचने से पहले रुक भी जाती हैं।
वैसे, अवैध कब्जों की भरमार अकेले फड़बाजार में ही नहीं अपितु शहर भर में है। अतिक्रमण की शिकायतों की फेहरिस्त लम्बी है, लेकिन कार्रवाई अंगुलियों पर गिनने जितनी भी नहीं है। फड़बाजार का मामला भी लगातार टलता आ रहा था, लेकिन उच्च न्यायालय के आदेशों के आगे निगम को कार्रवाई करनी पड़ी। अगर अदालत का दखल नहीं होता तो इतनी बड़ी कार्रवाई को इसी अंदाज में अंजाम देना शायद ही संभव था।
खैर, फड़बाजार में हटे कब्जों को देख कई तरह के सवाल फिजां में तैरने लगे हैं। मसलन, इतने कब्जे क्या रातों-रात कर लिए गए? जब यह कब्जे किए जा रहे थे तब निगम या अन्य महकमों के सम्बन्धित अधिकारी कहां थे? क्या बिना शह या मिलीभगत के इतनी बड़ी-बड़ी दीवारें व भवन तान देना संभव था? बात-बात पर नोटिस देने तथा भवन सीज करने वाले निगम अधिकारियों-कर्मचारियों ने इतने कब्जों को अनदेखा कैसे कर दिया? जांच का विषय तो यह भी है कि आखिर यह कब्जे किसकी सरपरस्ती में हुए? क्या कब्जे करने वालों के साथ-साथ वो सब दोषी नहीं है जिनकी जिम्मेदारी शहर में अवैध निर्माण रोकने की है? सवाल बहुत से हैं जो निगम को कठघरे में खड़ा करते हैं। अगर सब कुछ नियमानुसार होता तो क्या कल इतने बड़े अमले की जरूरत पड़ती? क्यों साढ़े छह घंटे तक तक लोग परेशान होते? क्यों इतने ससांधनों का उपयोग करने की जरूरत पड़ती? क्यों इतनी बड़े पैमाने पर तोडफ़ोड़ होती? बहरहाल, अकेले फड़बाजार में कब्जे तोडऩे से ही शहर के हालात नहीं सुधरने वाले। शहर में अतिक्रमण की भरमार है और अवैध निर्माण की शिकायत का सिलसिला भी थमा नहीं है। इसीलिए जरूरी हो जाता है कि अब कब्जे करने वालों को किसी भी तरह से नहीं बख्शा जाए। कार्रवाई का हथौड़ा बिना भेदभाव चले और लगातार चले। अचानक व बिना सूूचना के बजाय बाकायदा मुनादी करके कब्जे हटाए जाएं। लगे हाथ निगम प्रशासन को उनकी भी पहचान कर लेनी चाहिए कि जिनकी वजह से यह कब्जे हुए। क्योंकि जिनके मुंह खून लगा है वह आगे से ईमानदारी बरतेंगे इसकी क्या गारंटी है? और अगर ऐसे ही अधिकारियों-कर्मचारियों से काम चलाना है तो फिर कब्जे होने व तोडऩे का सिलसिला किसी भी सूरत में थमने वाला नहीं है। ऐसे अधिकारी-कर्मचारी के खिलाफ तो विभागीय कार्रवाई के साथ पुलिस में भी मामला दर्ज होना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए निगम प्रशासन कब्जों के मामलों में न केवल साहस दिखाएगा बल्कि उनको हटा नजीर भी पेश करेगा।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 17 जुलाई 15 के अंक में प्रकाशित
बीकानेर के फड़बाजार में बुधवार को नगर निगम के अमले ने भारी पुलिस जाब्ते की मौजूदगी में बड़ी संख्या में अतिक्रमण हटाए। करीब साढ़े छह घंटे की कार्रवाई का छिटपुट विरोध ही हुआ। कई दिनों बाद शहर में ऐसी कार्रवाई देखने को मिली। अन्यथा किसी तरह का विरोध या जनप्रतिनिधियों के दवाब में आकर अक्सर इस तरह की कार्रवाई मुकाम तक पहुंचने से पहले रुक भी जाती हैं।
वैसे, अवैध कब्जों की भरमार अकेले फड़बाजार में ही नहीं अपितु शहर भर में है। अतिक्रमण की शिकायतों की फेहरिस्त लम्बी है, लेकिन कार्रवाई अंगुलियों पर गिनने जितनी भी नहीं है। फड़बाजार का मामला भी लगातार टलता आ रहा था, लेकिन उच्च न्यायालय के आदेशों के आगे निगम को कार्रवाई करनी पड़ी। अगर अदालत का दखल नहीं होता तो इतनी बड़ी कार्रवाई को इसी अंदाज में अंजाम देना शायद ही संभव था।
खैर, फड़बाजार में हटे कब्जों को देख कई तरह के सवाल फिजां में तैरने लगे हैं। मसलन, इतने कब्जे क्या रातों-रात कर लिए गए? जब यह कब्जे किए जा रहे थे तब निगम या अन्य महकमों के सम्बन्धित अधिकारी कहां थे? क्या बिना शह या मिलीभगत के इतनी बड़ी-बड़ी दीवारें व भवन तान देना संभव था? बात-बात पर नोटिस देने तथा भवन सीज करने वाले निगम अधिकारियों-कर्मचारियों ने इतने कब्जों को अनदेखा कैसे कर दिया? जांच का विषय तो यह भी है कि आखिर यह कब्जे किसकी सरपरस्ती में हुए? क्या कब्जे करने वालों के साथ-साथ वो सब दोषी नहीं है जिनकी जिम्मेदारी शहर में अवैध निर्माण रोकने की है? सवाल बहुत से हैं जो निगम को कठघरे में खड़ा करते हैं। अगर सब कुछ नियमानुसार होता तो क्या कल इतने बड़े अमले की जरूरत पड़ती? क्यों साढ़े छह घंटे तक तक लोग परेशान होते? क्यों इतने ससांधनों का उपयोग करने की जरूरत पड़ती? क्यों इतनी बड़े पैमाने पर तोडफ़ोड़ होती? बहरहाल, अकेले फड़बाजार में कब्जे तोडऩे से ही शहर के हालात नहीं सुधरने वाले। शहर में अतिक्रमण की भरमार है और अवैध निर्माण की शिकायत का सिलसिला भी थमा नहीं है। इसीलिए जरूरी हो जाता है कि अब कब्जे करने वालों को किसी भी तरह से नहीं बख्शा जाए। कार्रवाई का हथौड़ा बिना भेदभाव चले और लगातार चले। अचानक व बिना सूूचना के बजाय बाकायदा मुनादी करके कब्जे हटाए जाएं। लगे हाथ निगम प्रशासन को उनकी भी पहचान कर लेनी चाहिए कि जिनकी वजह से यह कब्जे हुए। क्योंकि जिनके मुंह खून लगा है वह आगे से ईमानदारी बरतेंगे इसकी क्या गारंटी है? और अगर ऐसे ही अधिकारियों-कर्मचारियों से काम चलाना है तो फिर कब्जे होने व तोडऩे का सिलसिला किसी भी सूरत में थमने वाला नहीं है। ऐसे अधिकारी-कर्मचारी के खिलाफ तो विभागीय कार्रवाई के साथ पुलिस में भी मामला दर्ज होना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए निगम प्रशासन कब्जों के मामलों में न केवल साहस दिखाएगा बल्कि उनको हटा नजीर भी पेश करेगा।
राजस्थान पत्रिका बीकानेर के 17 जुलाई 15 के अंक में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment