वो यादगार लम्हा था और आज भी जेहन में है। बड़ी बात यह है कि यह अब तक राज ही था। ठीक 11 साल बाद उस लम्हे की पुनरावृत्ति हुई तो सोचा क्यों ना अब सबसे साझा कर लूं। चार नवम्बर 2003 को मेरी मगनी हुई थी। सगाई के करीब 15 दिन बाद मंगेतर का लैंडलाइन से फोन आया था, क्योंकि उस वक्त मोबाइल इतना ज्यादा प्रचलन में नहीं था। पहली बार फोन पर बात कर सचमुच मेरा गला सूख गया था। मैं कुछ बोल नहीं पा रहा था। धड़कन भी बढ़ गई थी। मैं कुछ असामान्य व असहज सा था। उस वक्त श्रीगंगानगर में कार्यरत था। बगल में बैठे साथी ने तत्कालीन सम्पादक जी के समक्ष मेरी दशा का वर्णन बिलकुल रिपोर्टिंग वाले अंदाज में लाइव कर दिया। बस फिर क्या था। सम्पादक जी रोज मेरे को कहते कि एक मोबाइल खरीद लो, बातचीत में आसानी होगी। कई दिन तक तैयार ही नहीं हुआ। नया साल आने को था, उन्होंने कहा शेखावत मौका अच्छा है। आखिरकार उनकी सलाह पर मैं मोबाइल खरीदने को तैयार हो गया। उस वक्त नोकिया 3310 के बाद नोकिया 3315 मार्केट में नया-नया आया था। कीमत थी 41 सौ रुपए। यह अलग बात है कि खरीदने के दूसरे ही दिन कीमत 37 सौ रुपए पर आ गई थी। खैर, मोबाइल को पैक करके उस पर दवा लिखकर जोधपुर भिजवा दिया गया। सचमुच मोबाइल बड़ा कारगर रहा। सप्ताह में एक बार बात करने का सिलसिला अब दैनिक हो गया था। यह क्रम शादी होने तक 22 जून 2004 तक अनवरत चला। इसके बाद कई मोबाइल खरीदे, लेकिन इस बार शादी की वर्षगांठ के मौके पर धर्मपत्नी को नवीनतम तकनीक से लैस एक मोबाइल दिया तो वह खुशी से चहक उठी। पता नहीं उसने भी दो टी-शर्ट चुपके से कब खरीद लिए थे। अब तक छिपाकर कर रखे थे। रात को उसने दोनों टी-शर्ट मेरे को भी बतौर गिफ्ट भेंट किए।
खैर, 11 साल के इस हसीन सफर में अद्र्धांगिनी निर्मल ने मेरा हर काम में सहयोग किया है। पढ़ी लिखी होने के बावजूद परम्पराओं एवं संस्कारों का उसमें गजब का समावेश है। संयुक्त परिवार की अवधारणा में विश्वास करने की तथा उसको शिद्दत से निभाने की कला के उदाहरण आजकल कम ही मिलते हैं, लेकिन निर्मल इस काम में भी पारंगत है। सचमुच निर्मल के बिना मैं अधूरा हूं। सामान्य जीवन में भी और जॉब में भी। वो हर काम में न केवल मेरी मदद करती है बल्कि समय-समय पर सलाह भी देती है।
No comments:
Post a Comment