बस यूं ही
पति की आजादी क्या पत्नी मायके जाती है तभी शुरू होती है? यह सवाल तो काफी दिनों से दिमाग को मथ रहा था लेकिन कल व्हाट्स एप पर आए एक मैसेज ने मजबूर कर दिया गया कि इस विषय का भी पोस्टमार्टम किया जाए। मैसेज था, 'जिन भाइयों की पत्नी मायके चली गई है, वो कुछ दिनों के लिए छत पर तिरंगा लगा कर अपनी आजादी का ऐलान कर सकते हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इस आजादी के मायने क्या हैं? सीधा सा व सबसे पहले जो मतलब समझ में आया वो तो यही था कि पत्नी जब पास होती है तो आदमी गुलाम होता है। उसकी आजादी छिन जाती है। अब सवाल आजादी पर। भला ऐसे कौन से काम हैं, जो पत्नी की उपस्थिति में न करने योग्य होते हैं और पत्नी के जाते ही उनके सारे अवरोध हट जाते हैं। मतलब करने योग्य हो जाते हैं। अगर अवरोध स्वत: ही हट जाते हैं तो फिर आजादी का ऐलान करने की जरूरत ही कहां पर है। जाहिर सी बात है कि कुछ ऐसे काम जो पत्नी को अंधेरे में रख कर किए जाते हैं या फिर पत्नी के डर से नहीं किए जाते वे सब पत्नी की अनुपस्थिति में पूर्ण कर लिए जाते हैं। बिना डर के। बेखौफ, बेझिझक।
खैर, यही आजादी वाला जुमला अगर महिलाएं भी दोहराने लगे, तो अंदाजा लगाएं उन पतियों की हालात कैसी होगी? सोचने वाली बात है, जब पत्नी की अनुपस्थिति को आजादी की संज्ञा दी जा सकती है तो पति की गैरमौजूदगी को भी तो दी जा सकती है। लेकिन यह बात शायद ही किसी को गवारा होगी।
खैर, कुछ समय पहले तक एक जुमला सुना करते थे 'जिनके पिया घर नहीं, उनको किसी का डर नहीं। भले ही यह महिलाओं के संदर्भ में कहा गया हो लेकिन यह भी शायद इसी आजादी और गुलामी की बात से कहीं न कहीं प्रभावित नजर आता है। वैसे भी शादी को अक्सर दासता का प्रतीक बताया जाता है। शादी होते ही पता नहीं कितने ही तमगे अपने आप जुड़ जाते हैं। शहीद हो गया, फंस हो गया। बेचारा आदि-आदि। जाहिर सी बात है इस कथित दासता मतलब गुलामी की वजह कई जिम्मेदारियोंं को माना जाता है। गृहस्थी की, बच्चों की, परिवार की। और भी कई तरह की सामाजिक जिम्मेदारी। अब यक्ष प्रश्न यह है कि क्या वाकई यह जिम्मेदारियों गुलामी की प्रतीक हैं? जवाब को लेकर मतभेद हो सकते हैं।
एक बात और क्या पति बेचारा इतना दब्बू हो जाता है कि उसको ऐलान भी पत्नी की अनुपस्थिति में करना पड़ता है। क्या सामने बोलने का तो साहस ही नहीं होता। बिलकुल बोलती बंद हो जाती है। शायद ऐसे हालात या उदाहरण सामने आए हैं तभी तो जोरू का गुलाम जैसे विशेषण प्रचलन में आए हैं। अगर यह आजादी एवं गुलामी वाली बात वाकई में सही है, गंभीर है तो फिर मान लेना चाहिए कि महिलाओं का दर्जा एवं महत्व बराबरी का नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा है। महिला सशक्तिकरण की बात भी बेमानी है।
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