मेरे संस्मरण-12
खैर, युद्ध के दौरान वैसे कई तरह के अनुभव हुए, जो जेहन में सदा के लिए अमिट हो गए। वैसे युद्ध के मैदान में साक्षात मौत को सामने देखकर भला कौन होगा, जिसकी धडक़न ना बढ़े और फिर हमारा युद्ध तो ऐसा हो गया था कि न तो हम दिन में ठीक से खाना खा पाते और ना ही रात को। नींद की बात ही क्या कहूं कभी-कभी तो झपकी के भी लाले पड़ जाते थे। खुला आसमान ही ओढऩा था कि और धरती बिछौना थी। भूखे-प्यासे व उनींदी आंखों से ही लगे रहे। बस एक ही धुन सवार थी, दुश्मन को नाकों चने चबवा देने हैं। वैसे युद्ध के दौरान हमारा भोजन भी बड़ा ही स्पेशल अंदाज में होता था। चलते-चलते व खड़े-खड़े ही कुछ हाथ लग गया तो खा लिया, वरना ठीक से बैठने तक की फुरसत नहीं थी। समय पर भोजन न करने तथा भरपूर मात्रा में करने के कारण सामान्य दिनों में सेना के लिए जितने राशन की खपत प्रतिदिन होती थी। वह उससे भी आधी होने लगी। राशन बचने लगा था। खराब ना हो जाए, इसके लिए पटियाला भिजवा दिया था। बांटने के लिए । इधर, दिनभर हम हमला करते और रात को पाकिस्तानी, इसलिए युद्ध के लिए अलावा और कुछ करने की फुरसत भी नहीं थी। चौबीसों घ्ंाटे बस धमाके ही धमाके ही दिनचर्या का हिस्सा बन चुके थे। दिन में गोलों की चमक वैसी दिखाई नहीं देती, जैसी रात को दिखती है। रात को एक साथ कई गोले छूटने पर ऐसा लगता था मानो आसमान में आग लगी है। आसमान में गोले जाते हुए साफ दिखाई देते हैं। ज्यादा दूरी का गोला किसी टूटते तारे जैसा नजारा पेश करता था। जहां तक मेरी जानकारी है विभाजन के दौरान 19 हैवी रेजीमेंट पाकिस्तान के हिस्से में चली गई थी जबकि भारत के पास मीडियम रेजीमेंट थी। हैवी रेजीमेंट की मारक क्षमता ज्यादा थी। हैवी गन को हम उस वक्त कडक़ बिजली के नाम से भी पुकारते थे। यह गोला इतनी तेज आवाज करता था कि जैसे कानों के पर्दे फट पड़ेंगे। हम खुले आसमान के नीचे गोलों को गिरना देखते थे। गनीमत रही कि कोई गोला एकदम से ऊपर नहीं आया। चकमता एवं आग उगलता अंगारा जब सामने से आता तो सिवाय आंखें करने के और कोई चारा नहीं था। धमाका तो इतना तेज होता था कि जैसे भूंकप का हल्का झटका महसूस हुआ हो। यह गोला चार बार आवाज करता था। तोप से निकलते हुए जोरदार धमाका होता। इसके बाद लक्ष्य तक पहुंचने तक यह इसकी आवाज इतनी कर्कश होती मानों दर्जनों हाथी एक साथ चिंघाड़ उठे हों। धरती पर फटते वक्त भी यह दो बार आवाज करता था। उस वक्त इन्फेंट्री के जवानों के पास स्टेशनगन, एलएमजी होती थी तो अफसरों के पास पिस्तौल रहती थी। चूंकि मैं तो तोपखाने में था, लेकिन मेरा काम आगे का ही था। आम्र्ड और इन्फेट्री के साथ तोपखाने का अफसर जाता था। मैं अफसर के साथ ही अटैच था। हम लोग ओपी पर जाते और वहां की परिस्थितियों को देखकर ही पीछे तोपखाने को मैसेज करते थे। कब आगे बढना है, कब पीछे हटना है, कहां फायर करना है, कहां गोला गिरवाना है आदि की जानकारी वायरलैस के माध्यम से ही तोपखाने को दी जाती थी।
खैर, युद्ध के दौरान वैसे कई तरह के अनुभव हुए, जो जेहन में सदा के लिए अमिट हो गए। वैसे युद्ध के मैदान में साक्षात मौत को सामने देखकर भला कौन होगा, जिसकी धडक़न ना बढ़े और फिर हमारा युद्ध तो ऐसा हो गया था कि न तो हम दिन में ठीक से खाना खा पाते और ना ही रात को। नींद की बात ही क्या कहूं कभी-कभी तो झपकी के भी लाले पड़ जाते थे। खुला आसमान ही ओढऩा था कि और धरती बिछौना थी। भूखे-प्यासे व उनींदी आंखों से ही लगे रहे। बस एक ही धुन सवार थी, दुश्मन को नाकों चने चबवा देने हैं। वैसे युद्ध के दौरान हमारा भोजन भी बड़ा ही स्पेशल अंदाज में होता था। चलते-चलते व खड़े-खड़े ही कुछ हाथ लग गया तो खा लिया, वरना ठीक से बैठने तक की फुरसत नहीं थी। समय पर भोजन न करने तथा भरपूर मात्रा में करने के कारण सामान्य दिनों में सेना के लिए जितने राशन की खपत प्रतिदिन होती थी। वह उससे भी आधी होने लगी। राशन बचने लगा था। खराब ना हो जाए, इसके लिए पटियाला भिजवा दिया था। बांटने के लिए । इधर, दिनभर हम हमला करते और रात को पाकिस्तानी, इसलिए युद्ध के लिए अलावा और कुछ करने की फुरसत भी नहीं थी। चौबीसों घ्ंाटे बस धमाके ही धमाके ही दिनचर्या का हिस्सा बन चुके थे। दिन में गोलों की चमक वैसी दिखाई नहीं देती, जैसी रात को दिखती है। रात को एक साथ कई गोले छूटने पर ऐसा लगता था मानो आसमान में आग लगी है। आसमान में गोले जाते हुए साफ दिखाई देते हैं। ज्यादा दूरी का गोला किसी टूटते तारे जैसा नजारा पेश करता था। जहां तक मेरी जानकारी है विभाजन के दौरान 19 हैवी रेजीमेंट पाकिस्तान के हिस्से में चली गई थी जबकि भारत के पास मीडियम रेजीमेंट थी। हैवी रेजीमेंट की मारक क्षमता ज्यादा थी। हैवी गन को हम उस वक्त कडक़ बिजली के नाम से भी पुकारते थे। यह गोला इतनी तेज आवाज करता था कि जैसे कानों के पर्दे फट पड़ेंगे। हम खुले आसमान के नीचे गोलों को गिरना देखते थे। गनीमत रही कि कोई गोला एकदम से ऊपर नहीं आया। चकमता एवं आग उगलता अंगारा जब सामने से आता तो सिवाय आंखें करने के और कोई चारा नहीं था। धमाका तो इतना तेज होता था कि जैसे भूंकप का हल्का झटका महसूस हुआ हो। यह गोला चार बार आवाज करता था। तोप से निकलते हुए जोरदार धमाका होता। इसके बाद लक्ष्य तक पहुंचने तक यह इसकी आवाज इतनी कर्कश होती मानों दर्जनों हाथी एक साथ चिंघाड़ उठे हों। धरती पर फटते वक्त भी यह दो बार आवाज करता था। उस वक्त इन्फेंट्री के जवानों के पास स्टेशनगन, एलएमजी होती थी तो अफसरों के पास पिस्तौल रहती थी। चूंकि मैं तो तोपखाने में था, लेकिन मेरा काम आगे का ही था। आम्र्ड और इन्फेट्री के साथ तोपखाने का अफसर जाता था। मैं अफसर के साथ ही अटैच था। हम लोग ओपी पर जाते और वहां की परिस्थितियों को देखकर ही पीछे तोपखाने को मैसेज करते थे। कब आगे बढना है, कब पीछे हटना है, कहां फायर करना है, कहां गोला गिरवाना है आदि की जानकारी वायरलैस के माध्यम से ही तोपखाने को दी जाती थी।
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