मेरे संस्मरण-1
यह सन 1950 की बात है। उस वक्त मेरी उम्र 14 साल की थी। मैं पास के गांव किशोरपुरा की स्कूल में कक्षा सात का छात्र था। उस वक्त सातवीं को ही मिडल कहा जाता था। उस समय यातायात के साधन तो कल्पना में भी नहीं थे। गांव से किशोरपुरा पैदल की आना-जाना करते थे। गांव के और भी कई छात्र किशोरपुरा जाते थे। गांव में उस वक्त स्कूल नहीं था। हमारे मास्टरजी पातुसरी गांव के थे। नाम शायद बहादुर राम या सिंह ही था। छात्रों में उनका बड़ा खौफ था। उनके पीटने का तरीका भी बड़ा अलग तरह का था। वो पीठ पर मुक्के मारते थे। उस वक्त पुस्तकें आज की तरह आसानी से दुकानों पर उपलब्ध नहीं होती थी। सभी छात्रों से पैसे एकत्रित कर लिए जाते और एक अध्यापक जयपुर जाकर पुस्तके लेकर आता था। हमने पैसे जमा करवा दिए थे लेकिन पुस्तकें नहीं आई थीं। इसी बीच जन्माष्टमी व गोगानवमी पर स्कूल में दो दिन के अवकाश की घोषणा हो गई। मास्टरजी ने अवकाश के दौरान कुछ पाठ याद करने के लिए बोल दिया। अब धर्मसंकट यही था कि बिना पुस्तक के पाठ को कैसे याद किया जाए। उनकी मार की कल्पना कर मन में डर बैठ गया था। इसी अधेड़बून में डूबा था। दूसरे दिन पड़ोस के गांव सोलाना में गोगा जी का मेला लगा था। मैं भी वहां चला गया। मेले के दौरान दो लोग मुनादी कर रहे थे कि झुंझुनूं में सेना की भर्ती है, जिसको भी भर्ती में भाग लेना वह झुंझुनूं पहुंचे। भर्ती दो श्रेणियों में थी। ब्यॉयज और जवानों की। हाथ में लाठियां लिए यह लोग तेज आवाज में सबको भर्ती की सूचना दे रहे थे। उस वक्त सूचना प्रसारित करने का और कोई साधन भी तो नहीं था। मन में ख्याल आया कि क्यों ना भर्ती देखी जाए। मास्टरजी की मार से तो बच जाऊंगा। बस फिर क्या था दूसरे दिन झुंझुनूं के लिए रवाना हो गया। मां से झूठ बोला कि झुंझुनूं से पुस्तक खरीदने जा रहा हूं। इसके बाद पैदल ही पास के रेलवे स्टेशन रतनशहर पहुंचा। इस्लामपुर और माखर मैंने पहली बार ही देखे थे। स्टेशन पर गांव के सुमेरसिंह एवं गुमानसिंह मिल गए। मैं दोनों को देखकर चौंक गया। वे दोनों भी भर्ती के सिलसिले में ही आए थे। उन्होंने मेरे से पूछा तो मैंने फिर वही किताब का बहाना बना दिया। इसके बाद रेल से हम तीनों झुंझुनूं पहुंचे। उतरते ही दोनों साथियों ने भर्ती में चलने की कहकर जैसे मेरे मन की बात पूरी कर दी। मैं उनके साथ चला तो गया लेकिन बचपन में पैर टूटने की बात याद आ गई। खेत जाते वक्त ऊंट से गिरा और बाद में ऊंट की लात से मेरा पैर टूट गया था। हालांकि बाद में इलाज से ठीक तो गया लेकिन मन में यही डर था कि पैर टूटा होने के कारण मेरे को अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा। मन ही मन मैं रुंआसा हो गया था। मेरे से पहले सुमेरसिंह की बारी आई। अध्यापक के डंडे की चोट की वजह से उनकी एक अंगुली टेढी थी। उनको कहा गया कि इलाज करवाकर आओ। यह अलग बात है कि वो बाद में सेना में ही भर्ती हुए। इसके बाद गुमानसिंह को भी आंखों का रंग लाल होने के कारण अयोग्य घोषित कर दिया गया। अब मेरी बारी थी।
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