Wednesday, December 28, 2016

इलाज के नाम पर पीड़ा-3

कटु सत्य 
ईसीजी की रिपोर्ट लेकर मैं लेबेाट्री के पास आकर बैठ गया। अचानक मन में ख्याल उठा कि हो न हो इस अस्पताल का मैनेजमेंट कोई तो संभाल रहा होगा। पता किया तो मैनेजर साहब का कक्ष बता दिया गया। उस वक्त वो सीट पर नहीं थे। रिसेप्शन काउंटर पर दस मिनट बाद नंबर लगे। मिलाया तो वो अपनी सीट पर आ गए। मुलाकात हुई तो उनको अस्पताल के हालात के बारे में बताया। उन्होंने धन्यवाद दिया कि आपने फीडबैक दिया है उसमें सुधार करेंगे। कई देर तक चर्चा चलती रही। आखिर डेढ़ बजे के करीब मैं बाहर आकर पिताजी के पास बैठ गया। आधा घंटे के इंतजार के बाद आखिरकार मैं लेबोट्री गया और पापा जी का नाम बताकर वो रिपोर्ट ले ली। अब संबंधित डाक्टर के कक्ष में घुसना था। वहां भी कोई सिस्टम नहीं था। जिस हाथ से पहले फाइल ले ली गई उसका नम्बर पहले। लाइन तो है नहीं। आखिरकार करीब दो बजकर बीस मिनट पर नंबर आया। नई पर्ची लिख दी गई थी। इस पर सारे जांच वगैरह के प्रिंट वहीं रख लिए। फोटो कापी भी नहीं दी। पर्ची की फोटो कापी मेरे को थमा दी गई। चूंकि मैं समझ गया था कि फिर ईसीएचएस पॅालिक्लिनिक जाना पड़ेगा, लिहाजा मैं पापा जी को ऑटो में लेकर घर आ गया। दूसरे दिन छह फरवरी को मैं ईसीएचएस गया। वहां काउंटर पर दो चार मरीज थे। इस कारण पर्ची बनाकर काउंटर वाले ने वहीं रख ली। डाक्टर के कक्ष के बाहर दो जने बैठे थे। एक अंदर था। इस हिसाब से मेरा चौथा नंबर था, लेकिन उसने रोक लिया। आखिरकार तीनों मरीज के जाने के बाद मैं चिकित्सक के कक्ष में घुसने ही लगा तो एक युवक दौड़ता हुआ आया मेरे को टोका। कहने लगा आपकी पर्ची दिखाओ। मैंने दिखाई तो कहने लगा इस पर नंबर नहीं है। मै उसका चेहरा ताकने लगा। थोड़ी ऊंची आवाज में मैंने कहा किस बात के नंबर। मैं किसी नंबर के बारे में नहीं जानता। वह बोला भीड़ होती है तो नंबर डालते हैं पर्ची पर। मैंने कहा कि यह काम मेरा नहीं है, आपका है। मेरे को क्या मालूम भीड़ को काबू करने के लिए आपने क्या तरीका अपना रखा है। 
इसके बाद मैंने कहा कि रही बात भीड़ की तो अब कोई तो है भी नहीं तो किस बात के नंबर डलवाऊं? मेरे सवाल पर युवग बगले झाांकने लगा। कहने लगा। ठीक है ठीक है आप तो डाक्टर साहब को दिखाओ। मैं अंदर दाखिल हुआ और डाक्टर के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। मेरे बैठते ही डाक्टर एवं व उस युवक ने फिर टोका। दोनों साथ-साथ बोले और कहा कि आप इधर वाली कुर्सी पर आ जाएं। उनका आशय उस कुर्सी से था जो डाक्टर के पास रखी थी और जिस पर बैठाकर वो मरीज को चैक करते हैं। मैं मन ही मन मुस्कुराया और बैठा रहा। युवक ने खीझते हुए कहा आपको सुना नहीं क्या? मैंने कहा सुन लिया है लेकिन मैं मरीज नहीं हूं। दोनों मेरा मुंह ताकने लगे। कहने लगे फिर क्यों आए हो। मैंने कहा दवा लेने और बाकी पर्चियों का पुलंदा डाक्टर के आगे खिसका दिया। डाक्टर ने पहले की तरह की ही एमएन के डाक्टर की पर्ची को कार्बन लगाकर दो पर्ची मेरे को दे दी। मैं दवा काउंटर पर गया। तीन तरह की दवा दे दी। 
मैं दवा लेकर जल्द से बाहर निकलता उससे पहले ही मेरी नजर अस्पताल की दीवार पर लिखे एक स्लोगन पर पड़ी। मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था ईसीएचएस का मोटो...हम आपकी सेवा करके आप पर कोई उपकार नहीं कर रहे हैं बल्कि आप हमारे यहां इलाज करवाकर हम पर उपकार कर रहे हैं। यह स्लोगन पढ़कर मैं खूब हंसा। खुद ब खुद हंसता रहा। इस हंसी के बीच न जाने कितने ही सवालों ने जेहन में घर बना लिया था। मैं घर लौट रहा था लेकिन रह-रहकर सवाल कौंध रहे थे। उपकार कौन किस पर रहा है यह समझा नहीं पा रहा था। हालात, व्यवहार, चक्कर पर चक्कर तथा पर्चियों के खेल में उपकार शब्द मेरे को बेहद बौना दिखाई दे रहा था। इलाज लेने से पहले ही मरीज को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। कितना समय बर्बाद होता है। एकसूत्री ध्येय होना चाहिए। यह पर्चियों की औपचारिकता किसलिए व क्यों। बेचारे मरीज की या उसके परिजन की तो वाट लग जाती है। फुटबाल बन जाता है वह। समझ नहीं आता कि सरकार सुविधाओं के नाम पर पूर्व सैनिकों को यह पीड़ा क्यों पहुंचा रही है। आश्चर्य की बात यह है कि ईसीएचएस कार्ड धारको के प्रति व्यवहार ऐसा है जैसे वो कोई फ्री में इलाज करवा रहे हों। वाकई यह गंभीर मसला है। देश सेवा करने वाले वीर जांबाजों के स्वास्थ्य के प्रति इस तरह का तरीका किसी अपमान से कम नहीं है। -इति-

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