टिप्पणी
तो क्या यह मान लेना चाहिए कि माननीय न्यायालय के आदेशों के प्रति नगर परिषद प्रशासन गंभीर नहीं है? तो क्या इस बात पर यकीन कर लेना चाहिए कि शहर में जनप्रतिनिधि/ रसूखदार जैसा कहेंगे और चाहेंगे वैसा ही होगा? तो क्या वाकई नगर परिषद के अधिकारी, जनप्रतिनिधियों के दबाव के आगे नतमस्तक होकर माननीय न्यायालय के आदेशों को नजरअंदाज करते हैं? यह तीन सवाल मौजूदा हालात को बयां करते हैं और निगम प्रशासन को कठघरे में खड़ा करते हैं। बहुप्रतीक्षित अतिक्रमण हटाओ अभियान को लेकर निगम प्रशासन के अधिकारियों की सुस्त तैयारी और जनप्रतिनिधियों की अतिसक्रियता के चलते इस मामले में सवाल उठना स्वाभाविक है। उनकी कार्यशैली, हावभाव एवं भूमिका से लगता ही नहीं है कि वे अतिक्रमण हटाने के प्रति गंभीर हैं। गंभीरता इसीलिए भी नहीं है क्योंकि अतिक्रमण को लेकर सियासी नफा-नुकसान तलाशे जाने लगे हैं। दरअसल, अतिक्रमण की जद में कुछ रसूखदार एवं जनप्रतिनिधि भी हैं। इस मसले को टाला कैसे जाए या बचा कैसे जाए, इसको ध्यान में रखकर नया पेंच फंसाने की कवायद हो रही है। विडम्बना देखिए जनप्रतिनिधियों को अतिक्रमण हटने के बाद पैदा होने वाले हालात की चिंता सता रही है जबकि निगम के अधिकारी मौसम को लेकर आशंकित हैं। बहाने खोजे जा रहे हैं। बजट नहीं है, जनाक्रोश भड़क सकता है। बारिश में हालात भयावह हो सकते हैं, आदि-आदि। कोई बता सकता है कि बहाने गढऩे वाले और भविष्य को लेकर चिंता जताने वाले पांच माह से क्या कर रहे थे? जाहिर सी बात है कि अतिक्रमण हटेंगे तो मलबा भी होगा, यह बात इन सभी को पता है लेकिन इसकी याद अभियान शुरू होने के आसपास ही क्यों आती है? यह सवाल अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों की नेक नियति को संदिग्ध बनाता है। कितना अच्छा होता ये लोग बहाने बनाने या अभियान को टालने के कारण खोजने के बजाय समस्या का समाधान तलाशते। जनप्रतिनिधि आगे चल कर अभियान में प्रशासन का सहयोग करने की पहल करते। बदकिस्मती से ऐसा हो नहीं हो रहा है। उल्टे जनप्रतिनिधियों की तरफ से राह में रोड़े अटकाने के उपक्रम किए जा रहे हैं। लाल निशान तक लगाने में उदासीनता बरती जा रही है। उनकी भूमिका से जाहिर हो रहा है कि उनकी दिलचस्पी अतिक्रमण हटाने में कतई नहीं है। जनप्रतिनिधि होने के नाते उनका मकसद यह होना चाहिए कि अभियान चले, भले ही शुरुआत कहीं से हो। जब सारे ही अतिक्रमण हटने हैं तो पहले यहां से क्यों जैसे सवाल करना ही बेमानी है। खैर, अभियान कारगर तरीके से चले। उसमें किसी तरह की बहानेबाजी और भेदभाव ना हो। अधिकारी किसी तरह के दवाब में ना आएं। किसी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप ना हो। ऐसा होगा तभी माननीय न्यायालय के आदेशों की पालना की सार्थकता है। और अगर औपचारिकता ही निभानी है तो फिर वो तो कैसे भी निभाई जा सकती है। अधिकारियों एवं जनप्रतिनियों के मौजूदा रुख से तो आसार इसी बात के दिखाई दे रहे हैं कि वे अभियान को महज रस्मी मानकर ही चल रहे हैं।
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर के 2 जून 16 के अंक में प्रकाशित...
तो क्या यह मान लेना चाहिए कि माननीय न्यायालय के आदेशों के प्रति नगर परिषद प्रशासन गंभीर नहीं है? तो क्या इस बात पर यकीन कर लेना चाहिए कि शहर में जनप्रतिनिधि/ रसूखदार जैसा कहेंगे और चाहेंगे वैसा ही होगा? तो क्या वाकई नगर परिषद के अधिकारी, जनप्रतिनिधियों के दबाव के आगे नतमस्तक होकर माननीय न्यायालय के आदेशों को नजरअंदाज करते हैं? यह तीन सवाल मौजूदा हालात को बयां करते हैं और निगम प्रशासन को कठघरे में खड़ा करते हैं। बहुप्रतीक्षित अतिक्रमण हटाओ अभियान को लेकर निगम प्रशासन के अधिकारियों की सुस्त तैयारी और जनप्रतिनिधियों की अतिसक्रियता के चलते इस मामले में सवाल उठना स्वाभाविक है। उनकी कार्यशैली, हावभाव एवं भूमिका से लगता ही नहीं है कि वे अतिक्रमण हटाने के प्रति गंभीर हैं। गंभीरता इसीलिए भी नहीं है क्योंकि अतिक्रमण को लेकर सियासी नफा-नुकसान तलाशे जाने लगे हैं। दरअसल, अतिक्रमण की जद में कुछ रसूखदार एवं जनप्रतिनिधि भी हैं। इस मसले को टाला कैसे जाए या बचा कैसे जाए, इसको ध्यान में रखकर नया पेंच फंसाने की कवायद हो रही है। विडम्बना देखिए जनप्रतिनिधियों को अतिक्रमण हटने के बाद पैदा होने वाले हालात की चिंता सता रही है जबकि निगम के अधिकारी मौसम को लेकर आशंकित हैं। बहाने खोजे जा रहे हैं। बजट नहीं है, जनाक्रोश भड़क सकता है। बारिश में हालात भयावह हो सकते हैं, आदि-आदि। कोई बता सकता है कि बहाने गढऩे वाले और भविष्य को लेकर चिंता जताने वाले पांच माह से क्या कर रहे थे? जाहिर सी बात है कि अतिक्रमण हटेंगे तो मलबा भी होगा, यह बात इन सभी को पता है लेकिन इसकी याद अभियान शुरू होने के आसपास ही क्यों आती है? यह सवाल अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों की नेक नियति को संदिग्ध बनाता है। कितना अच्छा होता ये लोग बहाने बनाने या अभियान को टालने के कारण खोजने के बजाय समस्या का समाधान तलाशते। जनप्रतिनिधि आगे चल कर अभियान में प्रशासन का सहयोग करने की पहल करते। बदकिस्मती से ऐसा हो नहीं हो रहा है। उल्टे जनप्रतिनिधियों की तरफ से राह में रोड़े अटकाने के उपक्रम किए जा रहे हैं। लाल निशान तक लगाने में उदासीनता बरती जा रही है। उनकी भूमिका से जाहिर हो रहा है कि उनकी दिलचस्पी अतिक्रमण हटाने में कतई नहीं है। जनप्रतिनिधि होने के नाते उनका मकसद यह होना चाहिए कि अभियान चले, भले ही शुरुआत कहीं से हो। जब सारे ही अतिक्रमण हटने हैं तो पहले यहां से क्यों जैसे सवाल करना ही बेमानी है। खैर, अभियान कारगर तरीके से चले। उसमें किसी तरह की बहानेबाजी और भेदभाव ना हो। अधिकारी किसी तरह के दवाब में ना आएं। किसी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप ना हो। ऐसा होगा तभी माननीय न्यायालय के आदेशों की पालना की सार्थकता है। और अगर औपचारिकता ही निभानी है तो फिर वो तो कैसे भी निभाई जा सकती है। अधिकारियों एवं जनप्रतिनियों के मौजूदा रुख से तो आसार इसी बात के दिखाई दे रहे हैं कि वे अभियान को महज रस्मी मानकर ही चल रहे हैं।
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर के 2 जून 16 के अंक में प्रकाशित...
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