अनुकरणीय काम
देश में गोवंश को लेकर अक्सर सियासत होती आई है। कइयों ने तो इसको सुर्खियों में बने रहने की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करने से भी गुरेज नहीं किया। बड़ी बात तो यह है कि गोवंश पर संकट देश-प्रदेश में कहीं पर हो, उनके कथित हितैषी सब जगह मिल जाएंगे। रैलियां निकालेंगे, प्रदर्शन करेंगे यहां तक बाजार तक बंद करवा देते हैं। एेसे गोभक्तों की भक्ति पर मेरे को संशय तब होता है, जब यह निरीह प्राणी संकट में फंसता है। बेरहमी से लोग निराश्रित गायों को डंडे मारते हैं। कुछ तो इतने निर्दयी होते हैं कि बिलकुल दया नहीं दिखाते। एेसा ही एक वाकया मेरे गांव के पास भी करीब चार माह पूर्व हुआ। एक सांड का आगे का पैर को किसी सिरफिरे ने काट दिया। सांड के पैर से ख्ूान रिसता रहा लेकिन किसी का ध्यान नहीं गया। घाव में कीड़े पडऩे शुरू हो गए थे। सड़क किनारे पड़े सांड की दशा पर किसी का दिल नहीं पसीजा। आखिरकार चचेरे भाई सुरेन्द्र उर्फ भोला ने जब इस सांड को देखा तो वह खुद को रोक नहीं पाया। उसने सांड की दशा करने वालों को बहुत कोसा। बाद में पिकअप में सांड को डालकर उसे वह गांव में ले आया और खुले बाड़े में उसकी सेवा में जुट गया। सांड के पैर की रोज दवा एवं पट्टी करने में जुट गया। सुरेन्द्र की सेवा का प्रतिफल यह रहा कि सांड के पैर का जख्म भरने लगा और कीड़े मर गए। करीब चार माह की लगातार सेवा के बाद जख्म ठीक तो गया लेकिन सांड का पैर छोटा है, लिहाजा सुरेन्द्र उसे बुजुर्गों सूनी पड़ी हवेली में ले आया। यहां रोज सुबह वह सांड को हरा चारा खिलाता है। सप्ताह में मंगलवार एवं शनिवार को वह सांड को नहलाता है। मैं मार्च के प्रथम सप्ताह में गांव गया था तब और अब जून के प्रथम सप्ताह में जाकर आया। वाकई सुरेन्द्र की मेहनत एवं सेवा का असर साफ-साफ दिखाई दे रहा है। सांड की सेवा उसकी दिनचर्या की हिस्सा बन गई है। सुरेन्द्र सांड को भोलेनाथ (शिव) का नंदी बताता है और ख्ुाद को उसका सेवक। दोंनों एक दूसरे से हिलमिल भी गए हैं। वाकई निरीह पशु भी हमदर्द को पहचान लेते हैं।
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