टिप्पणी
'रोम जब जल रहा था तब नीरो बांसुरी बजा रहा था।' यह जुमला इन दिनों श्रीगंगानगर जिले के सिंचाई विभाग और प्रशासनिक अधिकारियों पर सटीक बैठ रहा है। बीते माह एक दिन भी किसानों को उनके शेयर (हिस्से) का पानी नहीं मिला। सब कुछ जानने के बावजूद सिंचाई विभाग के अधिकारी टालमटोल की नीति अपनाए हुए है। नहरी पानी की कमी, मौसम की बेरुखी और सिंचाई विभाग के रवैये से उकताए किसानों का धैर्य ऐसे में भला जवाब नहीं देता तो क्या करता। कौन होगा जो खून-पसीने की कमाई को अपनी आंखों के सामने बर्बाद होते देख चुप बैठेगा। तभी तो चौतरफा आहत अन्नदाता ने अपने हक के लिए हुंकार भरी तो प्रशासनिक स्तर पर हलचल भी शुरू हुई। सिंचाई विभाग से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों ने यह जताने का भरपूर प्रयास किया कि वे समस्या को लेकर गंभीर हैं और इसके समाधान के लिए प्रयासरत हैं। भले ही जवाबों में उनकी मजबूरी या प्रयासों का जिक्र हो लेकिन हकीकत यह है कि खेतों में फसलें सूख रही हैं, नहरें खाली पड़ी हैं। जिस धरतीपुत्र को इन दिनों खेत में होना चाहिए वह पानी के लिए सड़कों पर है।
इतिहास गवाह रहा है कि नहरी पानी से सरसब्ज श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ जिलों में आजादी के बाद हुए अधिकतर बड़े आंदोलनों/ प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि में पानी ही रहा है। जब-जब यहां पानी का संकट गहराया है, तब-तब किसानों ने आंदोलन का रास्ता अपनाया है। इसके बावजूद इस समस्या का कभी स्थायी समाधान नहीं खोजा गया। उल्टे बहानों की फेहरिस्त जरूर तैयार हो जाती है। कभी केळी (एक तरह की घास) के नाम पर, कभी छीजत के नाम पर तो कभी चोरी के नाम पर। आरोप तो यहां तक है कि अगले साल पड़ोसी प्रदेश पंजाब में चुनाव है और किसानों को खुश रखने के लिए वहां नहरों में भरपूर पानी चलाया जा रहा है। राजस्थान के हिस्से वाले पानी पर भी कैंची चल रही है। खैर, चुनावी माहौल को देखते हुए आरोपों में दम नजर आता है, लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं हो सकता। दरअसल, पानी के मामले में हमारे अधिकारी एवं जनप्रतिनिधि हमेशा कमजोर ही साबित हुए हैं, भले ही राज्य एवं केन्द्र में सरकारें किसी की हों, हर बार यही सुनने को मिलता है कि पड़ोसी प्रदेश ने हमारे हिस्से का पानी हड़प लिया। क्या ऐसा कहते हुए हमारे अधिकारी/जनप्रतिनिधि शर्मसार नहीं होते? आखिर हमारी ऐसी क्या कमजोरी है, जो हम हमारा हक लेने के बजाय नतमस्तक हो जाते हैं। केन्द्र में अकाली दल एवं भाजपा का गठजोड़ है। दोनों राज्यों में भी इन्हीं दलों की सरकारें हैं। इससे ज्यादा अनुकूल हालात और इस तरह के संयोग तो कभी-कभार ही बनते हैं। ऐसे माहौल में भी अगर पड़ोसी प्रदेश हमारा हक मार रहा है तो यकीन मानिए समस्या का समाधान निकट भविष्य में होने से रहा। यह सही है कि इस बार पर्याप्त बारिश नहीं होने से बांधों में पानी की आवक उतनी नहीं हो रही है जितनी होनी चाहिए। खेतों में खड़ी फसलें भी नहरी पानी पर ही निर्भर हैं। ऐसे में नहरी पानी की खपत ज्यादा बढ़ गई है। इस तरह के हालात में सिंचाई विभाग व प्रशासनिक अधिकारियों को ज्यादा गंभीरता एवं सक्रियता दिखाने की जरूरत थी। आखिर क्यों वे भाखड़ा व्यास मैनेजमेंट बोर्ड की बैठकों में अपनी बात प्रभावी तरीके से नहीं रख पाए। पानी लगातार घटने बावजूद वे चुप क्यों रहे? सवाल कई हैं जो शासन-प्रशासन को कठघरे में खड़ा करते हैं। हर बार नए बहानों के साथ अपना बचाव करने वाली सरकार को अब इस समस्या का स्थायी समाधान खोजने की दिशा में तत्काल काम शुरू कर देना चाहिए। सरकार एवं उसके नुमाइंदों की पहली प्राथमिकता हमारे हिस्से का पानी लेने की होनी चाहिए। एेसा न हो कि इतिहास फिर से अपने को दोहरा दे।
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर के 2 जुलाई 16 के अंक में प्रकाशित...
'रोम जब जल रहा था तब नीरो बांसुरी बजा रहा था।' यह जुमला इन दिनों श्रीगंगानगर जिले के सिंचाई विभाग और प्रशासनिक अधिकारियों पर सटीक बैठ रहा है। बीते माह एक दिन भी किसानों को उनके शेयर (हिस्से) का पानी नहीं मिला। सब कुछ जानने के बावजूद सिंचाई विभाग के अधिकारी टालमटोल की नीति अपनाए हुए है। नहरी पानी की कमी, मौसम की बेरुखी और सिंचाई विभाग के रवैये से उकताए किसानों का धैर्य ऐसे में भला जवाब नहीं देता तो क्या करता। कौन होगा जो खून-पसीने की कमाई को अपनी आंखों के सामने बर्बाद होते देख चुप बैठेगा। तभी तो चौतरफा आहत अन्नदाता ने अपने हक के लिए हुंकार भरी तो प्रशासनिक स्तर पर हलचल भी शुरू हुई। सिंचाई विभाग से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों एवं जनप्रतिनिधियों ने यह जताने का भरपूर प्रयास किया कि वे समस्या को लेकर गंभीर हैं और इसके समाधान के लिए प्रयासरत हैं। भले ही जवाबों में उनकी मजबूरी या प्रयासों का जिक्र हो लेकिन हकीकत यह है कि खेतों में फसलें सूख रही हैं, नहरें खाली पड़ी हैं। जिस धरतीपुत्र को इन दिनों खेत में होना चाहिए वह पानी के लिए सड़कों पर है।
इतिहास गवाह रहा है कि नहरी पानी से सरसब्ज श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ जिलों में आजादी के बाद हुए अधिकतर बड़े आंदोलनों/ प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि में पानी ही रहा है। जब-जब यहां पानी का संकट गहराया है, तब-तब किसानों ने आंदोलन का रास्ता अपनाया है। इसके बावजूद इस समस्या का कभी स्थायी समाधान नहीं खोजा गया। उल्टे बहानों की फेहरिस्त जरूर तैयार हो जाती है। कभी केळी (एक तरह की घास) के नाम पर, कभी छीजत के नाम पर तो कभी चोरी के नाम पर। आरोप तो यहां तक है कि अगले साल पड़ोसी प्रदेश पंजाब में चुनाव है और किसानों को खुश रखने के लिए वहां नहरों में भरपूर पानी चलाया जा रहा है। राजस्थान के हिस्से वाले पानी पर भी कैंची चल रही है। खैर, चुनावी माहौल को देखते हुए आरोपों में दम नजर आता है, लेकिन यही एकमात्र कारण नहीं हो सकता। दरअसल, पानी के मामले में हमारे अधिकारी एवं जनप्रतिनिधि हमेशा कमजोर ही साबित हुए हैं, भले ही राज्य एवं केन्द्र में सरकारें किसी की हों, हर बार यही सुनने को मिलता है कि पड़ोसी प्रदेश ने हमारे हिस्से का पानी हड़प लिया। क्या ऐसा कहते हुए हमारे अधिकारी/जनप्रतिनिधि शर्मसार नहीं होते? आखिर हमारी ऐसी क्या कमजोरी है, जो हम हमारा हक लेने के बजाय नतमस्तक हो जाते हैं। केन्द्र में अकाली दल एवं भाजपा का गठजोड़ है। दोनों राज्यों में भी इन्हीं दलों की सरकारें हैं। इससे ज्यादा अनुकूल हालात और इस तरह के संयोग तो कभी-कभार ही बनते हैं। ऐसे माहौल में भी अगर पड़ोसी प्रदेश हमारा हक मार रहा है तो यकीन मानिए समस्या का समाधान निकट भविष्य में होने से रहा। यह सही है कि इस बार पर्याप्त बारिश नहीं होने से बांधों में पानी की आवक उतनी नहीं हो रही है जितनी होनी चाहिए। खेतों में खड़ी फसलें भी नहरी पानी पर ही निर्भर हैं। ऐसे में नहरी पानी की खपत ज्यादा बढ़ गई है। इस तरह के हालात में सिंचाई विभाग व प्रशासनिक अधिकारियों को ज्यादा गंभीरता एवं सक्रियता दिखाने की जरूरत थी। आखिर क्यों वे भाखड़ा व्यास मैनेजमेंट बोर्ड की बैठकों में अपनी बात प्रभावी तरीके से नहीं रख पाए। पानी लगातार घटने बावजूद वे चुप क्यों रहे? सवाल कई हैं जो शासन-प्रशासन को कठघरे में खड़ा करते हैं। हर बार नए बहानों के साथ अपना बचाव करने वाली सरकार को अब इस समस्या का स्थायी समाधान खोजने की दिशा में तत्काल काम शुरू कर देना चाहिए। सरकार एवं उसके नुमाइंदों की पहली प्राथमिकता हमारे हिस्से का पानी लेने की होनी चाहिए। एेसा न हो कि इतिहास फिर से अपने को दोहरा दे।
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर के 2 जुलाई 16 के अंक में प्रकाशित...
No comments:
Post a Comment