टिप्पणी.....
पानी पी-पीकर कोसना जैसे चर्चित मुहावरे के मायने श्रीगंगानगर में आकर बदल जाते हैं। यहां पानी पीकर नहीं बल्कि देखकर ही यह काम बखूबी कर लिया जाता है। बारिश का मौसम आते-आते यहां लोगों की सांसें अटकना शुरू हो जाती हैं। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि यहां के जिम्मेदारों का पानी उतर चुका है। वे इतने चिकने घड़े हो चुके हैं कि कोई कुछ भी कहे। मुंह पर या पीठ पर लेकिन वो कभी पानी-पानी नहीं होते। यहां तक कि चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसे मुहावरे भी इनके लिए बेमानी हैं। जिम्मेदारों के इस तरह के रवैये के चलते यहां कभी-कभार पानी में आग तो लगती है लेकिन यह कभी मुकाम तक नहीं पहुंचती। अक्सर सियासत का दखल उम्मीदों पर पानी फेर देता है।
दरअसल, श्रीगंगानगर में पानी का खेल पुराना है। बात अगर बरसाती पानी की ही करें तो श्रीगंगानगर के हालात इतने भयावह हैं कि देखकर डर लगता है। लोगों का घर से निकलना मुहाल है। बरसात यहां सुकून नहीं देती बल्कि छीन लेती है। इस सीजन की दो बार की बारिश ने शहर का जो हाल किया है, वो किसी से छुपा नहीं है। सड़कों पर उफान मारता पानी का सैलाब पता नहीं कब क्या अनिष्ट कर दे। अनहोनी की आशंका में लोग सहमे हुए हैं। इस तरह की अग्निपरीक्षा शहरवासी हर साल देते हैं। उनके जेहन में रह-रहकर यही सवाल कौंधते हैं कि क्या यह पानी का खेल हर साल इसी तरह चलता रहेगा? क्या इस समस्या का कभी कोई समाधान भी होगा? या इसी तरह पानी से डरते और नुकसान झेलते रहेंगे?
खैर, पानी से निबटने के जो तात्कालिक प्रयास किए जाते हैं वो कारगर नजर नहीं आते। टैंकरों से कभी बरसात के पानी से नहीं निबटा जा सकता। सीवरेज एवं नालों का मिश्रित पानी पार्कों में डालने से वहां की आबोहवा दूषित हो रही है।
दरअसल, यहां के जिम्मेदारों को इस तरह के उपायों में हर साल खर्च होने वाले मोटे बजट तथा पेचवर्क की नौटंकी ही ज्यादा मुफीद लगती है। उनकी अतिरिक्त कमाई और कमीशन का रास्ता भी इन्हीं उपायों से होकर गुजरता है। खैर, शहर जिस अनुपात में बढ़ रहा है, उसको देखते हुए अब ठोस और दीर्घकालीन कार्ययोजना की दरकार है ताकि नासूर बन चुकी इस समस्या का इलाज हो। देर बहुत हो चुकी है, अब शहरवासियों को पानी में एेसा उबाल लाना चाहिए कि जिम्मेदार शहर हित में सोचने को मजबूर हो जाएं।
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 9 अगस्त 16 के अंक में प्रकाशित....
पानी पी-पीकर कोसना जैसे चर्चित मुहावरे के मायने श्रीगंगानगर में आकर बदल जाते हैं। यहां पानी पीकर नहीं बल्कि देखकर ही यह काम बखूबी कर लिया जाता है। बारिश का मौसम आते-आते यहां लोगों की सांसें अटकना शुरू हो जाती हैं। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि यहां के जिम्मेदारों का पानी उतर चुका है। वे इतने चिकने घड़े हो चुके हैं कि कोई कुछ भी कहे। मुंह पर या पीठ पर लेकिन वो कभी पानी-पानी नहीं होते। यहां तक कि चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसे मुहावरे भी इनके लिए बेमानी हैं। जिम्मेदारों के इस तरह के रवैये के चलते यहां कभी-कभार पानी में आग तो लगती है लेकिन यह कभी मुकाम तक नहीं पहुंचती। अक्सर सियासत का दखल उम्मीदों पर पानी फेर देता है।
दरअसल, श्रीगंगानगर में पानी का खेल पुराना है। बात अगर बरसाती पानी की ही करें तो श्रीगंगानगर के हालात इतने भयावह हैं कि देखकर डर लगता है। लोगों का घर से निकलना मुहाल है। बरसात यहां सुकून नहीं देती बल्कि छीन लेती है। इस सीजन की दो बार की बारिश ने शहर का जो हाल किया है, वो किसी से छुपा नहीं है। सड़कों पर उफान मारता पानी का सैलाब पता नहीं कब क्या अनिष्ट कर दे। अनहोनी की आशंका में लोग सहमे हुए हैं। इस तरह की अग्निपरीक्षा शहरवासी हर साल देते हैं। उनके जेहन में रह-रहकर यही सवाल कौंधते हैं कि क्या यह पानी का खेल हर साल इसी तरह चलता रहेगा? क्या इस समस्या का कभी कोई समाधान भी होगा? या इसी तरह पानी से डरते और नुकसान झेलते रहेंगे?
खैर, पानी से निबटने के जो तात्कालिक प्रयास किए जाते हैं वो कारगर नजर नहीं आते। टैंकरों से कभी बरसात के पानी से नहीं निबटा जा सकता। सीवरेज एवं नालों का मिश्रित पानी पार्कों में डालने से वहां की आबोहवा दूषित हो रही है।
दरअसल, यहां के जिम्मेदारों को इस तरह के उपायों में हर साल खर्च होने वाले मोटे बजट तथा पेचवर्क की नौटंकी ही ज्यादा मुफीद लगती है। उनकी अतिरिक्त कमाई और कमीशन का रास्ता भी इन्हीं उपायों से होकर गुजरता है। खैर, शहर जिस अनुपात में बढ़ रहा है, उसको देखते हुए अब ठोस और दीर्घकालीन कार्ययोजना की दरकार है ताकि नासूर बन चुकी इस समस्या का इलाज हो। देर बहुत हो चुकी है, अब शहरवासियों को पानी में एेसा उबाल लाना चाहिए कि जिम्मेदार शहर हित में सोचने को मजबूर हो जाएं।
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 9 अगस्त 16 के अंक में प्रकाशित....
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