टिप्पणी
खाकी और खादी जब खुलेआम जुगलबंदी पर उतर आए तो अपराधियों के हिरासत से हवा होने की बात पर चौंकना कैसा? भले ही चर्चाएं एवं चिंताएं चरम पर पहुंच जाए लेकिन इन दोनों का गठजोड़ गतिमान रहता है। न थमता है, न थकता है। चलता ही रहता है। लगातार, अनवरत। वैसे भी खाकी और खादी का खेल पुराना है, लेकिन इस खेल में जब कोई घालमेल उजागर होता है, तब खीझ मिटाने के लिए ही सही कुछ हलचल जरूर होती है। कड़े दिशा-निर्देश जारी होते हैं। नीति नियमों में कुछ बदलाव होता है। चेतावनियां तक जारी हो जाती हैं। हालांकि यह सब तात्कालिक चिल्ल पौं को तसल्ली देने के लिए ही होता है, क्योंकि चेतावनियां कालांतर में कारगर कम और कागजी अधिक साबित होती रही है। इनका हश्र भी कमोबेश एक जैसा ही होता है। एक के बाद एक हुई वारदातों के चलते इन दिनों श्रीगंगानगर पुलिस की कार्यप्रणाली कठघरे में है। हिरासत से आरोपित का भाग जाना तो कोढ़ में खाज के समान है। अपराधों का बढ़ता आंकड़ा सुरक्षा व्यवस्था के साथ-साथ पुलिस की सक्रियता और साख पर सवाल उठा रहा है। शर्मसार तो करता ही है। वैसे तरकश के तमाम तीरों का प्रयोग करने के बाद अभी तक खाकी खाली हाथ है। तभी तो वारदातों की वृद्धि आम आदमी के डर की वजह बन रही है। खाकी-खादी के गठजोड़ से इतर बात करें तो भी इस तरह के हालात कोई रातोरात नहीं बनते। छोटी-छोटी गलतियों की लगातार अनदेखी का परिणाम ही इस तरह की बड़ी वारदातों के रूप में सामने आता है। जिला मुख्यालय जैसी जगह जहां कथित रूप से सब कुछ चाक चौबंद है, वहां इस तरह हो जाना, नि:संदेह पुलिस को मांद में मात देने के जैसा ही है। दूरदराज क्षेत्रों में व्यवस्था की तो सहज ही कल्पना की जा
सकती है।
खैर, अपराधिक वारदातों को इतिहास पुराना है और इनकी प्रभावी रोकथाम के लिए समय-समय पर कदम भी उठाए गए लेकिन एक-एक कर सब के सब नेपथ्य में चले गए या दम तोड़ गए। प्रमुख चौक चौराहों पर लाल-बत्ती का प्रोजेक्ट आज यथावत होता तो क्या अपराधी वारदात को अंजाम देकर इतनी आसानी से निकल लेते? यही हाल सीसीटीवी कैमरों का हुआ। अगर ये कैमरे लगे होते तो क्या अपराधी उसकी जद में नहीं आते? क्यों पुलिस को दूसरों के सीसीटीवी कैमरे देखने को मोहताज होना पड़ता। यही हाल शहर के बाहर निकलने वाले रास्तों का है। शायद ही ऐसा कोई रास्ता होगा जिस पर बैरियर की व्यवस्था हो। वैसे प्रदेश के तकरीबन हर जिला मुख्यालय जाने वाले रास्तों पर बैरियर लगे हुए हैं। इस तरह के बैरियर पुलिस के गश्त या सघन जांच अभियान में सहायक ही साबित होते हैं। लेकिन श्रीगंगानगर में इस तरह की कोई व्यवस्था दिखाई नहीं देती। इधर एक बड़ा सवाल भीडभाड़ वाले इलाके में तैनात जवानों के हाथों में स्मार्टफोन देखकर भी उठ रहा है। ड्यूटी पर तैनात जवानों को अक्सर मोबाइल में नजर गड़ाए या फोन पर बतियाते देखा गया है। यह सही है सुविधा का लाभ उठाना चाहिए लेकिन उसकी अति किसी भी सूरत में नहीं होनी चाहिए।
बहरहाल, पुलिस का आमजन में विश्वास, अपराधियों में भय वाला स्लोगन भी तभी प्रासंगिक है, जब पुलिस एवं आमजन के बीच सम्पर्क हो, सामंजस्य हो। दोनों के बीच बेहतर समन्वय हो। क्योंकि जो आदमी आज भी पुलिस के पास जाने से डरता है, वह पुलिस की मदद को तैयार कैसे हो जाएगा? किसी तरह की चूक पर चर्चा भी तभी सार्थक है,जब उस पर गंभीरता एवं ईमानदारी के साथ मनन व मंथन किया जाए। वरना हादसे यूं ही डराते रहेंगे और हिरासत से भागने की हिमाकत भी होती रहेगी।
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर के 14 मई 16 के अंक में प्रकाशित.....
खाकी और खादी जब खुलेआम जुगलबंदी पर उतर आए तो अपराधियों के हिरासत से हवा होने की बात पर चौंकना कैसा? भले ही चर्चाएं एवं चिंताएं चरम पर पहुंच जाए लेकिन इन दोनों का गठजोड़ गतिमान रहता है। न थमता है, न थकता है। चलता ही रहता है। लगातार, अनवरत। वैसे भी खाकी और खादी का खेल पुराना है, लेकिन इस खेल में जब कोई घालमेल उजागर होता है, तब खीझ मिटाने के लिए ही सही कुछ हलचल जरूर होती है। कड़े दिशा-निर्देश जारी होते हैं। नीति नियमों में कुछ बदलाव होता है। चेतावनियां तक जारी हो जाती हैं। हालांकि यह सब तात्कालिक चिल्ल पौं को तसल्ली देने के लिए ही होता है, क्योंकि चेतावनियां कालांतर में कारगर कम और कागजी अधिक साबित होती रही है। इनका हश्र भी कमोबेश एक जैसा ही होता है। एक के बाद एक हुई वारदातों के चलते इन दिनों श्रीगंगानगर पुलिस की कार्यप्रणाली कठघरे में है। हिरासत से आरोपित का भाग जाना तो कोढ़ में खाज के समान है। अपराधों का बढ़ता आंकड़ा सुरक्षा व्यवस्था के साथ-साथ पुलिस की सक्रियता और साख पर सवाल उठा रहा है। शर्मसार तो करता ही है। वैसे तरकश के तमाम तीरों का प्रयोग करने के बाद अभी तक खाकी खाली हाथ है। तभी तो वारदातों की वृद्धि आम आदमी के डर की वजह बन रही है। खाकी-खादी के गठजोड़ से इतर बात करें तो भी इस तरह के हालात कोई रातोरात नहीं बनते। छोटी-छोटी गलतियों की लगातार अनदेखी का परिणाम ही इस तरह की बड़ी वारदातों के रूप में सामने आता है। जिला मुख्यालय जैसी जगह जहां कथित रूप से सब कुछ चाक चौबंद है, वहां इस तरह हो जाना, नि:संदेह पुलिस को मांद में मात देने के जैसा ही है। दूरदराज क्षेत्रों में व्यवस्था की तो सहज ही कल्पना की जा
सकती है।
खैर, अपराधिक वारदातों को इतिहास पुराना है और इनकी प्रभावी रोकथाम के लिए समय-समय पर कदम भी उठाए गए लेकिन एक-एक कर सब के सब नेपथ्य में चले गए या दम तोड़ गए। प्रमुख चौक चौराहों पर लाल-बत्ती का प्रोजेक्ट आज यथावत होता तो क्या अपराधी वारदात को अंजाम देकर इतनी आसानी से निकल लेते? यही हाल सीसीटीवी कैमरों का हुआ। अगर ये कैमरे लगे होते तो क्या अपराधी उसकी जद में नहीं आते? क्यों पुलिस को दूसरों के सीसीटीवी कैमरे देखने को मोहताज होना पड़ता। यही हाल शहर के बाहर निकलने वाले रास्तों का है। शायद ही ऐसा कोई रास्ता होगा जिस पर बैरियर की व्यवस्था हो। वैसे प्रदेश के तकरीबन हर जिला मुख्यालय जाने वाले रास्तों पर बैरियर लगे हुए हैं। इस तरह के बैरियर पुलिस के गश्त या सघन जांच अभियान में सहायक ही साबित होते हैं। लेकिन श्रीगंगानगर में इस तरह की कोई व्यवस्था दिखाई नहीं देती। इधर एक बड़ा सवाल भीडभाड़ वाले इलाके में तैनात जवानों के हाथों में स्मार्टफोन देखकर भी उठ रहा है। ड्यूटी पर तैनात जवानों को अक्सर मोबाइल में नजर गड़ाए या फोन पर बतियाते देखा गया है। यह सही है सुविधा का लाभ उठाना चाहिए लेकिन उसकी अति किसी भी सूरत में नहीं होनी चाहिए।
बहरहाल, पुलिस का आमजन में विश्वास, अपराधियों में भय वाला स्लोगन भी तभी प्रासंगिक है, जब पुलिस एवं आमजन के बीच सम्पर्क हो, सामंजस्य हो। दोनों के बीच बेहतर समन्वय हो। क्योंकि जो आदमी आज भी पुलिस के पास जाने से डरता है, वह पुलिस की मदद को तैयार कैसे हो जाएगा? किसी तरह की चूक पर चर्चा भी तभी सार्थक है,जब उस पर गंभीरता एवं ईमानदारी के साथ मनन व मंथन किया जाए। वरना हादसे यूं ही डराते रहेंगे और हिरासत से भागने की हिमाकत भी होती रहेगी।
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर के 14 मई 16 के अंक में प्रकाशित.....
No comments:
Post a Comment