बस यूं ही
'जीना तो है उसी का जिसने यह राज जाना, है काम आदमी का औरों के काम आना।' जीवन दर्शन से जुड़े इस फलसफे के साथ विरले लोग ही जीते हैं। बिलकुल सादगी एवं नम्रता के साथ। यह लोग चाहे कितने ही ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाएं, यह अपनी जड़ों से जुड़ाव रखते हैं। इनको अपने पद का किंचित मात्र भी अभिमान नहीं होता। यह लोग अपनी संस्कृति को कभी नहीं भूलते। ऐसे लोगों के लिए रिश्ते निभाना बहुत मायने रखता है। रिश्ता चाहे खून का हो या फिर धर्म का। दोनों ही रिश्तों को यह लोग बड़ी शिद्दत के साथ निभाते हैं। रिश्तों को जीवटता के साथ निभाने वाले ऐसे ही शख्स हैं मेरे गांव के श्री विद्याधर झाझडिय़ा। स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एवं जयपुर में बतौर मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं। फिलहाल झुंझुनूं में पदस्थापित हैं। सेवानिवृत्ति में बामुश्किल एक साल से भी कम का समय बचा है। मेरे से काफी बड़े हैं, लिहाजा मंैं हमेशा इनको भाईसाहब कहता हूं। गांव के होने के नाते वैसे तो बचपन से ही जानता हूं, लेकिन इसके बाद लगातार संपर्क में रहा। सीकर औद्योगिक एरिया वाले एसबीबीजे में मेरा खाता था। जब भी बैंक जाता वे देखकर बड़े खुश होते और बिना चाय के कभी आने नहीं देते। बाद में उनका तबादला झुंझुनूं जिले के केड में हो गया। संयोग से मेरा भी तबादला झुंझुनूं हो गया। भाईसाहब ने बैंक के एक कार्यक्रम में मेरे को बतौर अतिथि आमंत्रित किया। मैं उनके आग्रह को टाल नहीं सका।
खैर, समय बीतता गया और भाईसाहब झुंझुनूं आ गए। उसी शाखा में मेरा खाता था। जब भी बैंक जाता भाईसाहब अपना सारा काम छोड़कर मेरा काम पहले करते। इतना ही नहीं मेरे कार्यालय का काम भी वो प्राथमिकता से हल करते। भाईसाहब की व्यवहार की कुशलता हर कोई कायल हो गया। बैंक के झुंझुनूं में हुए कार्यक्रम में भी उन्होंने एक बार फिर मेरे को बुलाया। इस बीच भाईसाहब का तबादला झुंझुनूं से संभवत: अजमेर हो गया और मैं छत्तीसगढ़ चला गया। इसके बावजूद हमारा संपर्क बना रहा। छुट्टियों के दौरान गांव में मुलाकात भी हो जाती। यह सिलसिला चलता रहा। तबादला होने के बाद भाईसाहब वापस झुंझुनूं लौट आए और मैं राजस्थान।
अभी दो दिन पहले ही गांव गया था। कल रविवार शाम को चिड़ावा बस स्टैंड पर श्रीगंगानगर की बस के इंतजार में था। अचानक भाईसाहब दिखाए दिए। मेरे पास से गुजरे मैंने राम रमी को तो अचानक खुशी से उछल पड़े। 'अरे महेन्द्र जी आप यहां कैसे?' मैंने उनको वजह बताई। फिर बगल की सीट पर वो बैठ गए, हम घंटों बतियाते रहे। अचानक उन्होंने कहा आपकी बस कितने बजे की है। मैंने नौ बजे बताया। उस वक्त साढ़े सात बजे थे। इतना सुनते ही बोले घर चलते हैं, पास ही हैं। अभी तो डेढ़ घंटा बाकी है। दरअसल, भाईसाहब ने चिड़ावा की चौधरी कॉलोनी में मकान बना लिया। बाकी दो भाइयों ने भी चिड़ावा में मकान बना रखे हैं। हम दोनों चहलकदमी करते हुए घर पहुंचे। वहां ताईजी ( भाईसाहब की माताजी) मिली। मैंने चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया। इस बीच चाय आ गई थी। भाईसाहब ने कई बार भोजन का आग्रह किया लेकिन मैं गांव से भोजन कर के गया था, लिहाजा उनको मना करता रहा। इसके बाद भाईसाहब ने कहा कि चलो बड़े भाईसाहब रामकरण जी के घर चलते हैं। वहां पर चुपचाप भोजन तैयार हो गया। मैंने कई बार मना किया लेकिन सभी ने मनुहार कर जबरन एक चपाती तो खिला ही दी। वहां से रास्ते में रामनिवास भाईसाहब से थोड़ी देरी की मुलाकात की। हम पौने नौ बजे के करीब स्टैंड पर लौट गए। नौ बजे बस आई लेकिन उसके परिचालक ने कहा कि यह नहीं दूसरी जाएगी। तो हम रुक गए। इसके बाद साढ़े नौ बजे दूसरी बस आई। तब तक भाईसाहब वहंी रुके रहे। मेरे पास भारी सामान था। भाईसाहब ने सामान बस में रखवाने में मेरी बहुत मदद। अकेला मैं करता तो बहुत मुश्किल से कर पाता। बस रवाना हुई। भाईसाहब से हाथ हिलाकर मैंने भी विदा ली। बस मैं बैठते ही मैंने मोबाइल निकाला व्हाट्स एप पर 'भाईसाहब बहुत बहुत धन्यवाद। आभारी हूं आपका' लिखा और सेंड कर दिया। सुबह भाईसाहब का जवाबी मैसेज आया, लिखा था 'भाईसाहब यह मेरे सौभाग्य की बात है।' मैं मैसेज पढ़कर मंद ही मंद मुस्कुरा दिया।
मैं यह सब लिख रहा हूं तो इसका मतलब यह नहीं है कि उन्होंने मेरी मदद की, बल्कि इसलिए कि आजकल ऐसा भाईचारा व इंसानियत खत्म सी हो गई है। यह वह दौर है जब सगा भाई अपने भाई को देखकर प्रसन्न नहींं होता, वहां विद्याधर झाझडिय़ा जैसे शख्स मानवता की लौ जगाए हुए हैं। बिलकुल जातिवाद व किसी तरह के स्वार्थ से बिलकुल दूर। एकदम निष्कपट, निर्मल एवं वास्तविक जीवन मूल्यों को समझने वाले। मैं कायल हूं भाईसाहब आपके इस प्रेम भरे व्यहार से। आप स्वस्थ रहें, दीर्घायु हों, ताकि और लोग भी आपसे प्रेरणा लें, आपका अनुसरण करें।
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