Wednesday, December 28, 2016

औपचारिकता किसलिए?

 टिप्पणी

आजादी का जश्न क्या औपचारिक रूप से मनाना चाहिए? जश्र से जुड़े कार्यक्रमों को क्या बीच में छोड़कर चले जाना चाहिए? इस तरह के गरिमामयी कार्यक्रम में क्या गंभीरता को नजर अंदाज कर देना चाहिए? क्या इसमें सुरक्षा की अनदेखी करना उचित है? क्या जश्ने आजादी के समारोह स्थल की सफाई की जरूरत नहीं? यकीनन इन पांचों सवाल का जवाब एक ही मतलब नहीं ही होगा। लेकिन श्रीगंगानगर के संदर्भ में देखा जाए तो इन पांचों सवालों का जवाब चौंकाता है, शर्मसार करता है, सोचने पर मजबूर करता है। महाराजा गंगासिंह स्टेडियम में आयोजित जिला स्तरीय स्वाधीनता समारोह में अधिकतर जनप्रतिनिधियों और पुलिस-प्रशासन के अधिकारियों की भूमिका से तो यही जाहिर होता नजर आया।
निमंत्रण पत्र वितरण से लेकर कार्यक्रम के समापन तक औपचारिकता ही ज्यादा नजर आई। कार्यक्रम में आधे-अधूरे मन से आए जिले के अधिकतर जनप्रतिनिधि तो इतनी जल्दी में थे कि एक-एक कर लगभग सभी बीच में ही चले गए। उनके इस तरह आने-जाने से तो यही प्रतीत हुआ जैसे कि वे मुंह दिखाने या अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने ही आए थे। देश की आन, बान एवं शान से जुड़े पर्व के लिए जो जनप्रतिनिधि दो ढाई घंटे का समय नहीं निकाल सकते, उनके बारे में सोचा जा सकता है कि वह अपने क्षेत्र या देश के लिए किस तरह का एवं क्या काम करेंगे? अब जिन्होंने कार्यक्रम को पूरा समय दिया, उनकी बानगी देख लीजिए। बच्चों की देशभक्ति से ओतप्रोत प्रस्तुतियों पर उनका हौसला बढ़ाने के बजाय जिले के कई जिम्मेदार अधिकारी मोबाइल में खोए नजर आए। राष्ट्रीय पर्व से जरूरी उनके लिए मोबाइल हो गया था। जिन्होंने सार्वजनिक रूप से मोबाइल प्रेम दर्शाया क्या वे अधिकारी अपने कार्यालयों में मोबाइल का मोह त्यागते होंगे? इसे आसानी से समझा जा सकता है। सुरक्षा के प्रति गंभीरता तो कहीं नजर ही नहीं आई। सीमावर्ती एवं संवदेनशील जिला होने के बावजूद समारोह में आने-जाने पर किसी तरह की कोई जांच या रोकटोक नहीं थी। लापरवाही इस कदर कि मैदान की न तो सफाई हुई और न ही वहां पर खड़ी दूब व घास तक की कटाई की गई। सिर्फ ट्रैक पर सफेद चूने से निशान बनाकर इतिश्री कर ली गई। इधर, सम्मानित होने वाले भी जनप्रतिनिधियों के नक्शे कदम पर चलते नजर आए। सम्मान पाने वालों में से अधिकतर प्रशस्ति पत्र पाकर चलते बने।
उन्हें देख एेसा लगा जैसे राष्ट्रीय पर्व से बड़ा उनके लिए सम्मान था और इसके लिए ही वे वहां आए थे। खैर, राष्ट्रीय पर्वों में इस तरह का परिदृश्य और रस्म अदायगी निसंदेह चिंताजनक है। इस तरह की औपचारिकताएं मनोबल तोड़ती हैं। हौसले पस्त करती हैं। राष्ट्रीय पर्वों के प्रति हमारा जुड़ाव होना चाहिए। इनको जोश और जज्बे के साथ मनाना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो फिर इस तरह की औपचारिकता भी किसलिए?
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 17 अगस्त के अंक में प्रकाशित....

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