दिलों में दुबका दर्द अब जुबान तक आ गया है। सब्र अपनी सीमा तोडऩे को आतुर है, तो गुस्सा अब प्रचंड दावानल की तरह धधकने लगा है। वार्ताएं, समझौते व बैठकों जैसे शब्द अब न तो सुकून देते हैं और न ही कोई उम्मीद की किरण दिखाते हैं। यह तमाम शब्द अब किसी नश्तर की तरह चुभने लगे हैं। किसी तरह की सुलह या शर्त भी अब मंजूर नहीं है। कुछ रटे रटाए बयान एवं जुमले सुनकर भी लोगों के कान पक चुके हैं। समूचा देश आक्रोश की आग में उबल रहा है। बस जेहन में एक ही सवाल, आखिर कब तक हमारे जवान इस तरह सरहद पर अपना खून बहाते रहेंगे। वह घड़ी आखिर कब आएगी जब सरहद पर दुश्मन की नापाक करतूतों एवं कायरानों हरकतों पर कारगर अंकुश लग पाएगा। यह सवाल हर आम भारतीय के जेहन में लंबे समय से खदबदाता रहा है और हर आतंकी हमले के बाद यह सवाल निर्णायक एवं कारगर जवाब मांगता रहा है। आज भी ऐसा ही है। कश्मीर के उरी आर्मी बेस पर आतंकी हमला हो गया। धोखे से किए फिदायीन हमले में हमारे 17 जवान शहीद हो गए। सेना पर अब तक का यह सबसे बड़ा आतंकी हमला बताया जा रहा है।
दरअसल, हर आतंकी हमले के बाद देशवासियों का गुस्सा चरम होता है। इसके साथ ही सियासी नफे नुकसान के समीकरण भी शुरू हो जाते हैं। कोई केन्द्र की कमजोरी को कोसता है तो कोई विदेश नीति पर सवाल उठाता है। केन्द्र की भूमिका से कई बार ऐसा जाहिर भी होता रहा है कि आखिर ऐसी क्या मजबूरी व लाचारी है जो दुश्मन के नापाक इरादे नेस्तनाबूद करने की राह में रुकावट बन रही है। बड़ा सवाल यह भी है कि आजादी के बाद से लेेकर अब तक कश्मीर में पड़ोसी लगातार छदम युद्ध लड़ रहा है और हम केवल सुरक्षात्मक रुख अपनाने की कीमत चुकाते रहे हैं। बड़े स्तर पर जान माल के नुकसान के बावजूद हमारे जवान कश्मीर की विपरीत परिस्थितियों में सिवाय चौकीदार की भूमिका निभाने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाते। अपवाद स्वरूप कभी कोई परिस्थिति बनी भी तो कथित मानवतावादी संगठन एवं पड़ोसी धर्म निभाने वाले गाहे-बगाहे आलोचना करने से नहीं चूकते। दिल्ली के एक विवि में जब आतंकी के समर्थन में नारे लगते हैं तो पड़ोसी धर्म निभाने वालों को यह सब बुरा नहीं लगता। देश विरोधी नारों का समर्थन करने वाले यह लोग आज 17 जवानों की शहादत पर पता नहीं कहां दुबके हैं। ऐसे लोग देशभक्त कतई नहीं हो सकते हैं। यह लोग आस्तीन के सांप हैं।
खैर, देशहित में अब एकजुटता बेहद जरूरी है। सियासी नफे नुकसान की बजाय देश सर्वोपरि होना चाहिए। सभी राजनीतिक दलों को एकजुटता के साथ दुश्मन की नापाक हरकत का मुंह तोड़ जवाब देने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। हमारी एकता, अखंडता व सुरक्षा पर आंख उठाने वालों को इसका जवाब भी उसी अंदाज में देना बनता है। जनता भी अब इन हमलों के जवाब मांगने लगी हैं। उसका धैर्य जवाब देने लगा है। बात अब केवल आर या पार तक आ पहुंची हैं। देखा जाए तो यह गुस्सा जायज है और यह गुस्सा अब शांत होने की ठोस वजह भी चाहता है। यह दौर जवानों की शहादत पर मातम मानने, सहानुभूति या सांत्वना जताने का नहीं है बल्कि बदला लेने का है। बिलकुल खून का बदला खून वाले अंदाज में। जिम्मेदारों का सोचना चाहिए। कुत्ते की दुम जब लाख जतन के बावजूद सीधी नहीं होती है तो उसका काट देना ही सबसे कारगर उपाय है। वैसे भी लातों के भूत भला बातों से कभी मानें भी हैं क्या? इधर सोशल मीडिया में भी देशवासियों का जबरदस्त गुस्सा जाहिर हो रहा है। केन्द्र पर तरह तरह के तंज कसे जा रहे हैं। बानगी देखिए.......
'कायरता का तेल चढ़ा है
लाचारी की बाती पर
दुश्मन नंगा नाच रहे हैं
भारत मां की छाती पर
दिल्ली वाले इन हमलों पर
दो आंसू रो देते हैं
कुत्ते चार मारने में
हम सत्रह शेर खो देते हैं।'
No comments:
Post a Comment