टिप्पणी
'लापरवाही बर्दाश्त नहीं होगी।' यह घुड़की सरकारी बैठकों में अक्सर सुनाई दे जाती है। विशेषकर अधिकारी अपने मातहत कर्मचारियों को इस तरह की घुड़की देते रहते हैं। यह घुड़की कितना असर करती है तथा कौन इसे कितनी गंभीरता से लेता है, यह जगजाहिर है। हां, इतना अवश्य है कि तात्कालिक रूप से यह घुड़की वाहवाही दिलाने और सुर्खियों में बने रहने का सबब जरूर बन जाती है। कुछ इसी तरह की घुड़की कल प्रभारी मंत्री व प्रभारी सचिव जिले के अधिकारियों-कर्मचारियों दे गए। बदहाल शहर और मौजूदा सरकार का आधा कार्यकाल बीतने के बाद इस तरह की घुड़की से सवाल जरूर खड़े होते हैं। मसलन, ऐसी नौबत आई ही क्यों? और इस लापरवाही का जिम्मेदार कौन? वैसे भी सवाल कई हैं जो जिम्मेदारों को कठघरे में खड़ा करते हैं। ढाई साल में जो उल्लेखनीय काम नहीं कर पाए वो महज 15 दिन में शहर को चकाकक कर देंगे, असंभव तो नहीं है लेकिन मुश्किल जरूर लगता है। ऐसी बातें न केवल हकीकत से दूर नजर आती हैं बल्कि हास्यास्पद भी लगती हैं। बात अगर निर्धारित समय की जाए तो यहां ऐसा काम है ही कौनसा जो तय समय सीमा में पूरा होता है। तसल्लीबख्श होता है और गुणवत्ता से परिपूर्ण होता है।
आमजन की फिक्र है ही किसे? तभी तो श्रीगंगानगर के लोग भगवान भरोसे ही हैं। अफसर और जनप्रतिनिधि सब अपने-अपने जुगाड़ में लगे हैं। अफसर तो अतिक्रमण मामले में अपना पीछा छुड़ाने के तरीके खोजने में व्यस्त हैं तो जनप्रतिनिधि कुर्सी-कुर्सी के खेल में लगे हैं। कोई कुर्सी बचाने में जुटा है तो कोई कुर्सी खींचने में। तभी तो यहां के लोकसेवकों एवं जनप्रतिनिधियों का सर्व सुखाय की बजाय स्वांत सुखाय की अवधारणा पर ज्यादा जोर नजर आता है।
दरअसल, इन घुड़कियों का इतिहास व हश्र ही ऐसा होता रहा है कि इन पर सहसा विश्वास भी नहीं होता। ताजा घुड़की की बानगी देखिए। अब एपीओ नहीं सीधा निलंबन होगा। कोई बताए तो सही कि अब तक कितनों का हो चुका? शहर के विकास की रूपरेखा तय करने वाली नगर परिषद के आयुक्त का पद तो मजाक बना कर रख दिया है। सौ दिन में पांच आयुक्त बदल चुके हैं। यह बदलाव क्यों? और इससे शहर को क्या हासिल हुआ ?
खैर, टूटी सड़कें जल्द ठीक हों। सड़क निर्माण के बाद जो जगह बची है, वहां मिट्टी डालकर इंटरलोकिंग की जाए। सॉलिड वेस्ट प्लांट का काम निर्धारित समय में पूर्ण हो। तीनों एसटीपी बनकर तैयार हो जाएं। शहर धूलरहित हो। फुटपाथ, नालियों एवं सड़कों का निर्माण हो। शहर साफ सुथरा एवं पॉलिथीन मुक्त हो। ग्रीन गंगानगर का नारा सही अर्थों में सच साबित हो। ऐसा होना भी चाहिए। यह सब शहरवासियों का सपना
भी है। मौजूदा कार्यप्रणाली व तौर तरीकों को देखते हुए इस तरह के काम निर्धारित समय सीमा में हो जाना, यह एक तरह के सपने के सच होने जैसा ही है। उम्मीद तो यही की जा सकती है कि इस बार यह सपना सच हो। अगर यह सपना निर्धारित समय में पूरा हुआ तो किसी यकीन मानिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। बिलकुल जागती आंखों से सपने देखने जैसा। ऐसे में यही कहा जा सकता है, काश! यह घुड़की सच हो जाए।
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 21 अगस्त 16 के अंक में प्रकाशित....
'लापरवाही बर्दाश्त नहीं होगी।' यह घुड़की सरकारी बैठकों में अक्सर सुनाई दे जाती है। विशेषकर अधिकारी अपने मातहत कर्मचारियों को इस तरह की घुड़की देते रहते हैं। यह घुड़की कितना असर करती है तथा कौन इसे कितनी गंभीरता से लेता है, यह जगजाहिर है। हां, इतना अवश्य है कि तात्कालिक रूप से यह घुड़की वाहवाही दिलाने और सुर्खियों में बने रहने का सबब जरूर बन जाती है। कुछ इसी तरह की घुड़की कल प्रभारी मंत्री व प्रभारी सचिव जिले के अधिकारियों-कर्मचारियों दे गए। बदहाल शहर और मौजूदा सरकार का आधा कार्यकाल बीतने के बाद इस तरह की घुड़की से सवाल जरूर खड़े होते हैं। मसलन, ऐसी नौबत आई ही क्यों? और इस लापरवाही का जिम्मेदार कौन? वैसे भी सवाल कई हैं जो जिम्मेदारों को कठघरे में खड़ा करते हैं। ढाई साल में जो उल्लेखनीय काम नहीं कर पाए वो महज 15 दिन में शहर को चकाकक कर देंगे, असंभव तो नहीं है लेकिन मुश्किल जरूर लगता है। ऐसी बातें न केवल हकीकत से दूर नजर आती हैं बल्कि हास्यास्पद भी लगती हैं। बात अगर निर्धारित समय की जाए तो यहां ऐसा काम है ही कौनसा जो तय समय सीमा में पूरा होता है। तसल्लीबख्श होता है और गुणवत्ता से परिपूर्ण होता है।
आमजन की फिक्र है ही किसे? तभी तो श्रीगंगानगर के लोग भगवान भरोसे ही हैं। अफसर और जनप्रतिनिधि सब अपने-अपने जुगाड़ में लगे हैं। अफसर तो अतिक्रमण मामले में अपना पीछा छुड़ाने के तरीके खोजने में व्यस्त हैं तो जनप्रतिनिधि कुर्सी-कुर्सी के खेल में लगे हैं। कोई कुर्सी बचाने में जुटा है तो कोई कुर्सी खींचने में। तभी तो यहां के लोकसेवकों एवं जनप्रतिनिधियों का सर्व सुखाय की बजाय स्वांत सुखाय की अवधारणा पर ज्यादा जोर नजर आता है।
दरअसल, इन घुड़कियों का इतिहास व हश्र ही ऐसा होता रहा है कि इन पर सहसा विश्वास भी नहीं होता। ताजा घुड़की की बानगी देखिए। अब एपीओ नहीं सीधा निलंबन होगा। कोई बताए तो सही कि अब तक कितनों का हो चुका? शहर के विकास की रूपरेखा तय करने वाली नगर परिषद के आयुक्त का पद तो मजाक बना कर रख दिया है। सौ दिन में पांच आयुक्त बदल चुके हैं। यह बदलाव क्यों? और इससे शहर को क्या हासिल हुआ ?
खैर, टूटी सड़कें जल्द ठीक हों। सड़क निर्माण के बाद जो जगह बची है, वहां मिट्टी डालकर इंटरलोकिंग की जाए। सॉलिड वेस्ट प्लांट का काम निर्धारित समय में पूर्ण हो। तीनों एसटीपी बनकर तैयार हो जाएं। शहर धूलरहित हो। फुटपाथ, नालियों एवं सड़कों का निर्माण हो। शहर साफ सुथरा एवं पॉलिथीन मुक्त हो। ग्रीन गंगानगर का नारा सही अर्थों में सच साबित हो। ऐसा होना भी चाहिए। यह सब शहरवासियों का सपना
भी है। मौजूदा कार्यप्रणाली व तौर तरीकों को देखते हुए इस तरह के काम निर्धारित समय सीमा में हो जाना, यह एक तरह के सपने के सच होने जैसा ही है। उम्मीद तो यही की जा सकती है कि इस बार यह सपना सच हो। अगर यह सपना निर्धारित समय में पूरा हुआ तो किसी यकीन मानिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। बिलकुल जागती आंखों से सपने देखने जैसा। ऐसे में यही कहा जा सकता है, काश! यह घुड़की सच हो जाए।
राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 21 अगस्त 16 के अंक में प्रकाशित....
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