Wednesday, December 28, 2016

शिक्षित एवं बुद्धिजीवी लोग फैला रहे जातिवाद


बस यूं ही
करीब सात साल पहले की बात है। आत्महत्याओं की बढ़ती घटनाओं पर झुंझुनूं में चिकित्सकों का एक सेमिनार था। इसमें सबसे चौंकाने वाली बात यह आई कि जहां साक्षरता दर ज्यादा है, वहां भ्रूण हत्या अधिक हो रही है। इस बात के लिए वक्ताओं ने बाकायदा झुंझुनूं और डूंगरपुर जिले के उदाहरण भी बताए। उनका कहना था कि झुंझुनूं में साक्षरता दर ज्यादा है लेकिन प्रति हजार पुरुषों के पीछे महिलाओं की संख्या कम है। इससे ठीक उलट डूंगरपुर जैसे आदिवासी जिले में साक्षरता दर कम होने के बावजूद प्रति हजार पुरुषों के पीछे महिलाओं का आंकड़ा ज्यादा है। इस तथ्य से यह साबित होता है कि पढ़े लिखे लोग वह घृणित काम ज्यादा करते हैं, जिसकी वजह से लिंगानुपात में अंतर आया। खैर, बात जातिवाद की हो रही थी। मैं दावे की साथ कह सकता हूं कि जिस तरह लिंगानुपात कम करने में शिक्षित वर्ग का हाथ रहा है, उसी तरह जातिवाद भी पढ़े लिखे एवं बुद्धिजीवी लोग ही ज्यादा फैला रहे हैं। जरूरी नहीं है कि जो जिस जाति से है उसी की हिमाकत करे। कुछ तो ऐसे भी हैं जो कथित जातिनिरपेक्ष होने का स्वांग भरते हैं लेकिन बड़ी ही होशियारी एवं कलाकारी से दूसरी जाति पर अवांछित टीका टिप्पणी करने से बाज नहीं आते। सोशल मीडिया पर आजकल इस तरह के जाति निरपेक्ष लोगों की भरमार है। अफवाहों को हवा देने का प्रमुख केन्द्र भी इसी तरह के लोग हैं। यह जाति निरपेक्ष लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि जातिवादी बारूद पर बैठे राजस्थान में उनकी जातिवाद से संबंधित टिप्पणी आग में घी का काम करेगी, और कम से एक वर्ग तो उसका समर्थन करेगा ही। तभी तो सुनियोजित तरीके से जानबूझकर इस तरह का खेल खेला जाता है। 
यह फितरती लोग प्रमाणिक तथ्यों में पूर्वाग्रहों का तड़का लगाकर इस तरह का घालमेल कर देते हैं कि तटस्थ पाठक तो भ्रमित होता ही है, जातीय संतुलन पर भी खतरा मंडराने लगता है। मैं इस तरह की जातिवादी बातें करने वाले एवं सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर वैमनस्यता फैलाने वाले बुद्धिजीवी लोगों का हमेशा विरोधी रहा हूं और रहूंगा। हां तार्किक एवं तथ्यात्मक बातों का मैं हमेशा हिमायती रहा हूं। 
खैर, मेरी सोच एवं लेखन किसी समाज को ऊंचा या नीचा दिखाने का कभी नहीं रहा। जो है वो है। तड़का लगाकर सस्ती लोकप्रियता पाने या चर्चाओं में बने रहने का काम मेरे को नहीं आता। मेरी सोच समग्र इसीलिए है कि मैं एक ऐसे गांव का प्रतिनिधित्व करता हूं, जहां इस तरह की बातें नहीं होती। 
मेरा तो सवाल ही यह है कि जातिवाद का जहर है ही क्यों? यह फैला कौन रहा है? तथा इससे फायदा किसको है? मैं अपने पड़ोसी से जाति के नाम पर हमेशा लड़ता रहूं क्या यह समझदारी है? जातिवाद जैसा शब्द सियासत में जरूर प्रासंगिक हो सकता है लेकिन यह हमारी साझा विरासत को नुकसान पहुंचा रहा है। यह हमको बांट रहा है। टुकड़े टुकड़े कर रहा है। जातिगत व्यवस्था कहें या वर्ण व्यवस्था आजादी से पूर्व कभी रही होगी, वर्तमान में लोकतंत्र हैं, सब समान हैं। किसी तरह का कोई भेद नहीं है। हम आजादी से पूर्व के उदाहरणों को जिनको हमने प्रत्यक्ष न भोगा न देखा केवल सुना भर है, उनका हवाला देकर कब तक यह आग फैलाते रहेंगे। भाई-भाई को आपस में लड़ाते रहेंगे। जरूर यह जहर फैलाने वाले लोग किसी न किसी विचारधारा से प्रभावित हैं और उनका मकसद यही है कि लोग टुकड़ों में बंटे रहे हैं ताकि उनकी बुद्धिमता का भ्रम बना रहे। कितना अच्छा हो यह बुद्धिजीवी लोग जातिवाद के जहर को कम करने के उपाय बताएं और हां अगर उपाय बताने में पेट में मरोड़ उठें तो कम से कम शांत तो रह सकते हैं। सामाजिक बैर भाव बढ़ाकर ही लोकप्रियता पाना ही जिनका मकसद है, तो लानत है ऐसे लोगों पर। देश को कमजोर करने वाली ताकतों का समर्थन करना देशभक्ति नहीं हो सकती।

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