22th लघुकथा
झुग्गी-झोंपडि़यों में रहने वाले खानाबदोश परिवारों के बच्चों को त्योहारों का बड़ा बेसब्री से इंतजार रहता। विशेषकर दीपावली आते-आते तो इन बच्चों का उत्साह चरम पर पहुंच जाता। शहर की कई सामाजिक संस्थाएं उनके दर्द बांटने के बहाने आगे आती। कोई उनको कपड़े देता तो कोई सर्दी से बचाव के लिए कम्बल व रजाई आदि। कोई संस्था मिठाई बांटती तो कोई आतिशबाजी के लिए पटाखे व फूलझडि़यां। यह परंपरा शहर में बरसों से चली आ रही थी। यह सिलसिला दीपावली के तीन चार दिन पहले से ही शुरू हो जाता। संस्थाओं में मदद करने की होड़ सी लग जाती। जैसे ही कोई गाड़ी बस्ती में आकर रुकती बच्चों का उत्साह हिलोरें मारने लगता। एक दिन तो बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। चार पांच लग्जरी गाडि़यां आई। उन में से कोई पन्द्रह बीस युवा उतरे। सबसे पहले सभी ने संस्था का बैनर दीवार पर चिपकाया। इसके बाद सभी ने अपने-अपने मोबाइल निकाले और फोटो लेने में जुट गए। ललचाई आंखों से बच्चे यह सब देख रहे थे। फोटो सेशन होने के बाद बच्चों को कतार में बिठाया गया। मददगार संस्था के सदस्यों ने आतिशबाजी के पैकेट गाड़ी से निकाले और एक-एक पटाखा व दो-दो फूलझडि़या बारी-बारी से सबको देने लगे। साथ में फोटो लेने का क्रम दुगुनी गति से जारी था। मैं चुपचाप इस समूचे को घटनाक्रम को देख रहा था। मेरे को उन बच्चों व संस्था पदाधिकारियों में एक समानता नजर आई। बच्चों में कुछ पाने की तो देने वालों में प्रचार की।
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