Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना-11

बस यूं ही

शराब की बिक्री जायज या नाजायज की बहस के बीच दादी मां की एक सीख याद आ गई। वो कहती थी, बेटा, 'राम अर राज का गेला अलग हुआ करै।' अर्थात राम और राज के रास्ते अलग होते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि भगवान और सरकार के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती। उनको स्वीकार करना ही पड़ता है। अब भले ही शराब को लेेकर लोग कितनी ही आलोचना करे लेकिन सरकारें अपने फैसल पर अडिग हैं। मंगलवार को तो दो राज्यों में शराब की होम डिलीवरी तक की खबरें आई। भले ही कोरोना शराब को स्थायी बंद नहीं करवा सका लेकिन घर बैठे शराब मिलने की व्यवस्था जरूर करवा दी। पियक्कड़ों के लिए यह सुविधा तो सोने पर सुहागे जैसा काम करेगी। बाहर पुलिस के डंडे का डर खत्म तथा लाइन में घंटों में लगने का झंझट भी खत्म। हां, सरकार घर बैठे शराब भिजवाने का अतिरिक्त चार्ज वसूलेगी। अधिकतर राज्यों में तो दाम भी बढा दिए गए हैं। सरकारों को पता है चालीस दिन से सूखे बैठे सुराप्रेमी हलक तर करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। एेसे माहौल में कुछ चुटकुले जरूर गुदगुदा जाते हैं। लॉकडाउन के दौरान शराब बिक्री पर न जाने कितने ही चुटकलें, नसीहतें, तर्क, दलीले, सुझाव, सलाह आदि दिए जा चुके हैं और दिए जा रहे हैं पर पीने वालों पर इन सब का असर कभी होता है? कल ही एक परिचित से बात हुई। बड़ा खुश था। आवाज में थोड़ी पिनक थी। मैंने जरा सा कुरेदा तो एक रुबाई सुनाकर हंस पड़ा। मैं उसकी बात समझ चुका था। रुबाई अच्छी लगी लिहाजा याद कर ली। आप भी देखिए, 'गम इस कदर मिला कि घबरा के पी गए, खुशी थोड़ी सी मिली तो मिलाकर पी गए, यूं तो ना थी जन्म से पीने की आदत, शराब को तन्हा देखा तो तरस खाके पी गए।' वाकई चालीस दिन शराब और शराबी दोनों ही तन्हा थे। एक दूजे के बिना दोनों अधूरे। शराब को लेकर बने दोनों धड़ों के चुटकुले भी इतने जोरदार हैं कि गोया लड़ाई अब सरकार से न होकर समर्थक व विरोधियों की हो गई है। आज सुबह-सुबह ही एक मित्र ने व्हाट्सएप पर मैसेज भेजा, 'मदिरालय खुलेंगे और मन्दिर बन्द रहेंगे। यही तो कलयुग है। वाह जी वाह। कुछ भी हो यह कदाचित भी ठीक नहीं। एक तरफ नशे की दुकान खोल दी और रोजगार का कुछ पता नहीं। अब जो घर में बचे -खुचे राशन के पैसे हैं वो दारू पर खर्च होंगे। और दारू जिनको हजम नहीं होती उनके घर में महाभारत होगी सो अलग! अगर दारू की दुकान पर सोशल डिस्टेंसिंग हो सकती है तो मंदिर में क्यों नहीं ? बात कुछ समझ से परे है, लगता है दारू ईश्वर से ज्यादा ज़रूरी थी, इसलिए मदिरालयों को लॉकडाउन में छूट मिल गई। शायद ईश्वर की भी यही मर्जी थी, इसलिए सरकारों की बुद्धि भ्रष्ट कर दी , क्योंकि उसकी मर्जी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता, अब भ्रष्ट बुद्धि से कोरोना की रोकथाम कैसे होगी यह तो ऊपर वाला ही जानता है।' मुझे मित्र के इस मैसेज पर प्रसिद्ध कवि हरिबंशराय बच्चन की कालजयी रचना मधुशाला की यह पंक्तियां, सहसा ही याद आ गई,
'धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मस्जिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।
मुसलमान औ' हिन्दू हैं दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!'
मधुशाला की ही चंद और पंक्तियां मौजूदा माहौल पर मौजूं हैं। गौर फरमाएगा:-
'दुत्कारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहां ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।'
हां कोरोना के शोर में जब सारे धार्मिक स्थल बंद हैं लेकिन मदिरालय खुले हैं तो एक शेर जो अक्सर सुनते आए हैं, वो जरूर आज बेमानी लग रहा है। साथ ही इस शेर के समक्ष और भी पांच शेर कहे गए हैं, इसलिए पांचों ही शेर पेश है़ं। मिर्जा गालिब ने कहा, शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर, या वो जगह बता जहां ख़ुदा नहीं। इस पर इकबाल ने कहा, मस्जिद खुदा का घर है, पीने की जगह नहीं , काफिर के दिल में जा, वहां ख़ुदा नहीं। इसी विषय पर अहमद फराज फरमाते हैं, काफिर के दिल से आया हूं मैं ये देख कर, खुदा मौजूद है वहां, पर उसे पता नहीं। इसी बात को वसी कहते हैं, खुदा तो मौजूद दुनिया में हर जगह है, तू जन्नत में जा वहां पीना मना नहीं। तो साकी ने लिखा, पीता हूं ग़म-ए-दुनिया भुलाने के लिए, जन्नत में कौन सा ग़म है इसलिए वहां पीने में मजा नही।
क्रमश:

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