Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना- 16

बस यूं.ही

 बात दर्द की चल रही थी। जब माहौल गमजदा हो जाता है तो फिर मैं गजल सुनता हूं। मदर्स डे की वजह से आज मन सुबह से ही उखड़ा था। उदास मन को बहलाने गजलों की पिटारा खोला। संयोग तो देखिए पहली ही गजल में शराब का जिक्र आ गया। पंकज उधास गा रहे थे, 'सबको मालूम हैं मैं शराबी नहीं, फिर भी कोई पिलाए तो मैं क्या करूं, सिर्फ एक बार नजरों से नजरें मिलें, और कसम टूट जाए तो मैं क्या करूं।'  इसी गजल के साथ एक दो रुबाइयां भी याद आ गई, जो कमोबेश इसी तरह की भावना से ओतप्रोत है। अर्ज किया है,

'ना पीने का शौक था, ना पिलाने का शौक था,

हमें तो सिर्फ नजर मिलाने का शौक था,

पर क्या करें यारों, हम नजर ही उनसे मिला बैठे

जिन्हें सिर्फ नजरों से ही पिलाने का शौक था।'

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'फिर ना पीने की कसम खा लूंगा,

साथ जीने की कसम खा लूंगा।

एक बार अपनी आंखों से पिला दे साकी

शराफत से जीने की कसम खा लूंगा।

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'मैं उनकी आंखों से छलकती शराब पीता हूं

गरीब होकर भी महंगी शराब पीता हूं

मुझे तो नशे में वो बहकने ही नहीं देते

उन्हें तो खबर ही नहीं मैं कितनी शराब पीता हूं।'    

अब आप गजल या रुबाइयों के बोलों पर गौर फरमाएंगे तो यकीनन माथा पकड़ लेंगे। अगर शराब इसी तरह पी जाने लगी तो फिर सरकारों के खाली खजाने का क्या होगा? देश की डगमगाती अर्थव्यवस्था क्या होगी? खैर, यह सभी को पता है कि यह महज कवियों और शायरों की कल्पना है वरना आंखों से ही तलब बुझती तो मयखानों के ताले लग जाते। नजर दौड़ाएंगे तो जान पाएंगे कि शराब को पता नहीं क्या-क्या उपमाओं से नवाजा गया है। हां, गजल व रुबाइयों में कसम टूटने के जिक्र से एक जुमला जरूर याद आ गया जो कल-परसों तक खूब चर्चा में था। 'डेढ़ माह ड्राई क्या निकला कि दो दोस्तों ने कसम खाई कि अब कभी शराब नही पीएंगे, इधर कसम खाई उधर शराब बिकनी शुरू। अब दोनों असमंजस में, करें तो क्या करें।  एक ने सलाह दी कि पीने की कसम खाई है, वाइन शॉप पर जाने की तो नहीं, आखिर दोनों गए, घर पर ला कर बैठ गए। अब लत और जोर मारने लगी तो दूसरा बोला कि भाई ना पीने की कसम खाई है, बोतल खोलने की तो नहीं। आखिर बोतल खोली गई, ग्लास, नमकीन पत्नी खुद दे गई। लेकिन कसम के कारण आगे नही बढ़े, फिर एक बोला कि भाई पीने की कसम खाई है जाम बनाने की तो नही, लॉजिक जम गया शराब डाली गई। दो पटियाला पैग बनाए गए। लेकिन, अब भी दोनों मायूस, कसम के हाथों मजबूर, जाम देखते रहे और बैठे रहे। समय बीतता रहा बीतता रहा। कहा गया है कि नशा बड़े बड़ों को गुलाम बना लेता है, पर ये दोनों पक्के थे। कसम ली तो तोड़ नही सकते थे, चाहे कुछ हो जाए। फिर पता नहीं क्या हुआ कि..दोनों एक साथ बोले कि भाई पीने की कसम खाई है पिलाने की तो नही। यह कह कर दोनों ने जाम उठाए और एक दूसरे को पिला दिए। अब आप लोग बताएं कि कसम टूटी या नहीं ...'  बात ले देकर वहीं आ गई। पीने वालों को तो पीने का बहाना चाहिए। 

अब श्रीगंगानगर वाले शर्मा जी को ही देखिए। उम्र में मुझसे काफी बड़े हैं लेकिन व्हाट्सएप पर हंसी मजाक वाले मैसेज भेजते रहते हैं। आज भी कोरोना के बहाने सुबह-सुबह एक मैसेज चुपके से सरका ही दिया। मैसेज था, 'बहुत दिनों से पड़ोसी नहीं दिखे, मुझे लगा, कहीं निपट तो नहीं गए। यही सोच कर आज मैं उनके घर गया। देखा तो उनके पैर पर प्लास्टर चढ़ा था। उसे देख कर मेरे कब और कैसे वाले सवालों पर उन्होंने रहस्यमयी मुस्कान के साथ धीरे से जवाब दिया,  टेंशन मत लो, मुझे हुआ कुछ नहीं है। जब तक लॉक-डाउन लगा है, कहीं जाना तो था नहीं, इसलिए ऑफिस से आते वक्त पैर पर प्लास्टर चढ़वा लिया। ऐस नहीं करता तो घरवाली काम करवा-करवा कर कमर ही तोड़ देती। आप मानो या न मानो, अब....  आराम ही आराम है और सेवा भी भरपूर मिल रही है। काम करवाना तो दूर, पानी के खाली ग्लास तक को हाथ लगाने नहीं देती। ऊपर से दिन भर यह सुनने को मिलता है....  इस बहाने आपकी सेवा का अवसर पाकर मैं तो धन्य हो गई।  अफसोस...  सख्त अफसोस..।  फार्मूला तो बहुत शानदार है पर मार्केट में थोड़ी देर से आया है।' हंसी मजाक के माहौल के बीच आज की चर्चा को यहीं विराम देता हूं। आखिर में दिल्ली वाले एक मित्र का चर्चित डॉयलॉग, जो  पीने के बाद वो अक्सर बोलते हैं, 'घमंड की बीमारी शराब जैसी होती है। खुद को छोड़कर सबको पता है कि इसको चढ़ गई है।' 

क्रमश:

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