Monday, August 17, 2020

बैठे-बैठे

बस यूं ही

मैं अक्सर सोचता बहुत हूं। सोचते-सोचते इतना गहराई तक चला जाता हूं कि वापस सामान्य और सहज होने में काफी वक्त लगता है। इसी आदत के चलते मुझे उच्च रक्तचाप रहने लगा है। अक्सर परिचित और शुभचिंतक कहते भी हैं कि ज्यादा मत सोचा करो, यह आपके स्वास्थ्य के लिए सही नहीं है। मैं तमाम सलाहों सुझावों को आत्मसात करने की भरसक कोशिश करता हूं लेकिन यह सोचना नहीं छूट रहा। दरअसल, यह सोच एक तरह का चिंतन होता है, जो मुझे अंदर ही अंदर कचोटता रहता है। आज की ही बात है बैठे-बैठे अचानक सोचमग्न हो गया। ख्याल आया अपराधबोध से घिरा हुआ आदमी धीरे-धीरे जिम्मेदारियों से भी मुंह मोड़ लेता है। रफ्ता-रफ्ता उसकी मनोदशा एवं आचरण चिकने घड़े की तरह हो जाते है। जिस तरह चिकने घड़े पर कितना ही पानी डालो वह नहीं ठहरता है, वैसे ही अपराधबोध से घिरे आदमी को कितना ही कह -सुन लो। उसको कोई फर्क नहीं पड़ता। अपराधबोध से घिरा आदमी न केवल विचारों के मामले में संकीर्ण हो जाता है बल्कि उसकी सोच भी नकारात्मक हो जाती है। एक दिन एेसा भी आता है जब अपराधबोधग्रस्त व्यक्ति का उठने-बैठने चलने-फिरने का दायरा भी सीमित हो जाता है। वो ही उसकी दुनिया और संसार हो जाता है। उसकी सोच का दायरा भी बेहद सीमित हो जाता है। वह फिर लाख जतन करे, उसकी सोच समग्र नहीं हो सकती। और तो और एेसा शख्स सच को भी अपनी सोच के हिसाब से ही देखता है और वैसा बर्ताव करता है। उसकी हकीकत को स्वीकारने-मानने और जीने का शक्ति भी क्षीण हो जाती है। अंततोगत्वा उसका पुरुषार्थ सो जाता है और स्वार्थ जाग जाता है। मेरा मानना है और कई अनुभवों के आधार पर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि अपराधबोध से घिरा आदमी बेहद स्वार्थी भी हो जाता है। उसे फिर अपने-पराये का बोध भी नहीं होता।

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