Monday, August 17, 2020

मुआ करोना-18

बस यूं.ही

कल मजदूरों के एक स्थान से दूसरे स्थान आने जाने की बात हो रही थी, इसी से याद आया। नौकरी मिलने के बाद छुट्टियां बीता कर जब घर से निकलता तो मां कहती थी, 'बेटा यह पेट पापी है, ये ही घर छुड़वाता है। वरना कौन अपना घर छोड़ता है।' वाकई पेट पापी है। इसके लिए आदमी को क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते हैं। न जाने कितनी ही चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यह पेट भरना कोई आसान काम नहीं है। पेट के लिए घर छोड़ने वाले अब घर लौट रहे हैं। समझ नहीं आ रहा पहले गांव क्यों छोड़ा था और अब गांव जाकर क्या मिलेगा? क्या गांवों में संक्रमण नहीं है? खतरा तो सब जगह ही है। फिर सारे देश यह भगदड़ सी क्यों मची है? और अगर आदमी कार्यश्रेत्र की बजाय अपने मूल निवास पर ही ज्यादा सुरक्षित है तो यह बात हमारे सियासतदानों को इतनी देर बाद दिमाग में क्यों आई। गांव जाकर भी कौनसा सुख मिल रहा है। वहां भी अपनों के बीच बेगाने वाली बात ही हो रही है। हर नजर में संदेह है। कोई पास नहीं आना चाहता। बचपन की एक बात याद आ रही है। महिलाएं जब आपस में लड़ती थी तो एक काम बहुत करती थी। एक थम्स अप बनाकर दूसरे हाथ की हथेली पर बार-बार जोर से मारती और आपस में एक दूसरी को दिखाती। इस दौरान जो संवाद होता उसकी बानगी देखिए 'ठोसो ले ले, ठोसै पर बैठ और गुड़ गुड़ जा।' (अंगूठा ले ले। अंगूठे पर बैठ और बार-बार लुढ़क) इसके अलावा गाली या अपशब्द की बजाय उस लड़ाई में एक बात और होती थी, जो दोनों हाथ जोड़ते हुए आपस में कहती थी। ' एे तू तेरे भली और मैं म्हारे। न तो तू म्हारे आए और न मैं थारे आऊं।' (एे तू तेरे घर ही भली और मैं मेरे घर। न तो तू हमारे घर आना, ना मैं तेरे घर आऊंगी।) समय के साथ अब ठोसा मतलब अंगूठे का महत्व बढ गया है। अब ठोसा दिखाना सम्मान व गर्व की बात है। सोशल मीडिया के जमाने में यह निगोड़ा ठोसा हर जगह है। मतलब सर्वव्यापी। थम्स अप मिल जाए तो जैसी कोई बड़ी खुशी मिल गई। मतलब यही है कि ठोसे के जलवों से अछूता कोई नहीं है। खैर, बात गांवों में आ रहे प्रवासी श्रमिकों की चल रही थी। ऐसे में महिलाओं की लड़ाई का वह संवाद आज फिर प्रासंगिक हो गया। मतलब तू तेरे घर रह मैं मेरे घर। इतना ही नहीं अकेला भी कोई प्रवासी घर लौटा है तो कौन सा चैन से बैठा है। अलग-थलग दुनिया है उसकी। आज फेसबुक पर कवि व टीवी अभिनेता शैलेष लोढा की कविता पढ़ी। गांव से शहर और फिर गांव लौटने की कहानी को उन्होंने शब्दों में बखूबी पिरोया है। शैलेष लोढा मूल रूप से जोधपुर के ही हैं। करीब अठारह साल पहले श्रीगंगानगर के एक कवि सम्मेलन में इनको सुना था। खैर, इनकी नई कविता अच्छी है और प्रासंगिक भी। बस, हमें अपने घर जाना है शीर्षक वाली यह कविता आदर सहित साझा कर रहा हूं। 'मैं चल पड़ा था गांव से, दूर भाग कर अभाव से। सोचता था शहर को अवसरों में बदल दूंगा। परिश्रम से परिवार को संबल दूंगा। मेरे जवान बाजुओं को जब नगर में काम मिलेगा, बापू की बूढी हड्डियों को तब आराम मिलेगा। घर का आंगन कच्चा है, अब पक्का हो जाएगा। बहन की शादी होगी अब भाई कमाएगा। कमाने की दौड़ में बह कर निकला था मैं, गांव में कुछ नहीं रखा है यही कह कर निकला था मैं। क्या पता था कि दिन एेसे भी आएंगे, हम अचानक अजनबियों में बदल जाएंगे। क्या पता था आंखों में सिर्फ दर्द ठहरा होगा, क्या पता था नियति का भयावह पहरा होगा। क्या पता था डेरों में हमारे भूख पलेगी, क्या पता था शहरों से ये सौगात मिलेगी। क्या पता था करूणा का मोल नहीं रहेगा, क्या पता था संवेदना का एक बोल नहीं रहेगा। क्या पता था दुखों के बादल यूं बरस जाएंगे। क्या पता था अपनों को देखने को तरस जाएंगे। क्या पता था रास्ते अंतहीन हो जाएंगे। क्या पता था हम पटरियों पर सो जाएंगे। काल की क्रूरता का आभास न था। यूं बेघर हो जाएंगे। ये एहसास न था। चल रहे हैं नि:सहाय चाहे कोई प्रहर है। अब समझ आया जहां कोई किसी को असहाय नहीं छोड़ता। उस गांव में मेरा घर है। अब न भविष्य की चिंता है, न सोचा कि क्या कमाना है। बस, हमें अपने घर जाना है। बस हमें अपने घर जाना है।' वाकई कविता के मर्मस्पशी बोल हैं। एेसा लगता है हर प्रवासी श्रमिक की यही कहानी है। गांव से शहर जाने वाले अब वापस गांव की ओर लौट रहे हैं। एक बड़ा और अनसुलझा सवाल जेहन में लिए कि जिस वजह से गांव छोड़ा क्या वह वजह अब गांव में पूरी हो जाएगी? माना बीमारी बड़ी है पर पेट से तो बड़ी नहीं। भूख से बड़ा कोई मर्ज नहीं होता। सोशल मीडिया पर वायरल इस जुमले के साथ आज की कड़ी में इतना ही, ' इंडिया जिन्हें पसंद नहीं था वो हवाई जहाज से घर आ रहे हैं.. जो भारत निर्माण में व्यस्त थे, वो पैदल घर जा रहे हैं।'
क्रमशः

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