Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना-22

बस यूं.ही

कोरोना पर आज अगली कड़ी लिखने बैठा ही था कि श्रीगंगानगर से एक परिचित के मैसेज ने सोचने की दिशा ही बदल दी। वैसे तो कोरोनाकाल में दोस्तों एवं परिजनों के संग व्हाट्स एप पर मैसेजों का आदान-प्रदान होता ही रहता है। इन मैसेजों के भी कई रंग होते हैं। कोई मजाकिया तो कोई नसीहत भरा। कोई सुझाव तो कोई आगाह करता। कोई सामाजिक तो कोई एेतिहासिक। कोई धार्मिक तो कोई आर्थिक। कोई आंकड़ों की बात करता है तो कोई सियासत की। कोई सरकार विरोधी पोस्ट लिखता है तो कोई सरकार के समर्थन में कशीदे पढ़ता है। भारत को जिस तरह विविधता में एकता वाला देश कहा जाता है, ठीक वैसे ही सोशल मीडिया के मैसेज भले ही विभिन्न रंगों के हों लेकिन इनके मूल में अभी कोरोना ही है। यह भी तो एक तरह से विविधता में एकता वाली ही बात हुई ना। और यह सब संभव हुआ है केवल इंटरनेट के कारण। वाकई इंटरनेट ने कोरोनाकाल में सगे भाई या गहरे दोस्त जैसी भूमिका निभाई है। थोड़ी देर कल्पना करके देखिए यह इंटनरेट नहीं होता तो क्या होता? मैं यह नहीं कहता कि काम एकदम से ही ठप हो जाते लेकिन हां प्रभावित जरूर होते। कोरोनाकाल में कितने ही एप आ गए। वीडियो कॉल से बात करने के, बात एकल हो चाहे सामूहिक सभी विकल्प मौजूद हैं। इसलिए यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है, जिस तरह त्रेतायुग में श्रीराम का सहयोग वानर सेना व हनुमान जी ने किया। द्वापर युग में पांडवों का सहयोग श्रीकृष्ण ने किया। ठीक वैसा सा ही सहयोग कलयुग कहें या कोरोना काल, इसमें इंटनरेट ने किया है। इंटनरेट ने कई मुश्किलों को हल किया तो कई नए विकल्पों के द्वार भी खोले हैं। वर्क फ्रॉम होम की अवधारणा भी इंटरनेट के चलते ही अमल में आई। अब तो इस अवधारणा पर ही काम करने से रास्ते खुल गए हैं। सुबह-सुबह आफिस जाने की टेंशन, नहाना, शेव करना, कपड़े साफ सुथरे एवं बिलकुल क्रीज वाले पहन कर जाना, समय पर पहुंचने की चिंता आदि से एक झटके में ही छुटकारा मिल गया। घर में बिना नहाए, बरमुडे -बनियान में, चाय पीते हुए, बात करते-करते, लेटे हुए या टांग पसार कर किसी भी तरीके से काम कर सकते हैं। मोबाइल भी एक तरह से लैपटॉप की तरह ही है, लिहाजा आप लेटे-लेटे काम भी कर सकते हैं। मन किया तो कमरे के अंदर नहीं तो बाहर बरामदे या पोर्च में काम कर सकते हैं। और नहीं तो छत पर बैठकर भी आसानी से काम होने लगा है। वाकई वर्क फ्रॉम होम की अवधारणा एक पंथ कई काज वाली है। राजस्थान पत्रिका ने तो वर्क फ्रॉम होम की अवधारणा को नई राह के रूप में रेखांकित किया है। शनिवार के अंक में बाकायदा वर्क फ्रॉम होम के दस फायदे तक बताए गए। बानगी देखिए, आफिस आने-जाने का समय बचता है, कर्मचारी को डीजल-पेट्रोल का खर्चा नहीं देना पड़ेगा। वर्क फ्रॉम होम में कागजी कामकाज कम होने से पर्यावरण को फायदा होगा। घर से काम करने पर 13 फीसदी उत्पादकता बढ़ती है। परिवार के साथ रहने से कर्मचारी एवं उसके परिजन ज्यादा खुश रहते हैं। कर्मचारी की ऑनलाइन उपलब्धता व गुणवत्ता दोनों बढ़ जाती हैं। ऑनलाइन काम होने से कर्मचारी को भी अपनी निजी जिंदगी को बेहतर करने के लिए ज्यादा वक्त मिल जाता है। संस्थानों के स्थापना संबंधी खर्चों की सीधी बचत होती है। अनावश्यक छुट्टी, मेडिकल लीव जैसे झंझट कम हो जाते हैं। अध्ययन बताते हैं कर्मचारी कम बीमार पड़ते हैं। कभी-कभार होने वाली लंबी मीटिंग भी उत्साहपूर्ण और परिणामजनक होती हैं। चूंकि मैं भी करीब दो माह से वर्क फ्रॉम होम के तहत लगा हुआ है। वाकई इस अवधारणा के कई प्रत्यक्ष एवं परोक्ष फायदे और भी हैं। देश में इस संस्कृति को बढ़ावा मिलता है तो निसंदेह सड़कों पर यातायात कम होगा, प्रदूषण भी कम होगा। सिटी बसों एवं मेट्रोज में भीड़ भड़ाका कम होगा। आज की पोस्ट में बस इतना ही। हां इस लंबी चर्चा के कारण वह श्रीगंगानगर से आया मैसेज तो रह ही गया। आप उस मैसेज को पढ़कर मुस्कुराएं या अपनी भौंहें टेढी करें, यह आप पर निर्भर है। गौर फरमाइएगा, 'माननीय मोदी जी, 17 तारीख को लॉक डाउन भले हटाओ, ना हटाओ लेकिन कोरोना की रिंगटोन जरूर हटा दो। इसको सुनकर हम भूल जाते हैं कि किस काम के लिए फोन किया था।'
क्रमश:

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