Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना- 19

बस यूं ही

मजदूरों के शहरों से गांव लौटने का जिक्र पिछली पोस्ट में था। उसे पढकर झुंझुनूं से एक परिचित ने फोन किया और पूछा कि आपको पता है यह मजदूर पलायन क्यों कर रहे हैं। मैंने कहा कि कुछ मर्जी से कर रहे हैं तो कुछ करवाए जा रहे हैं और कुछ भेड़चाल हैं, जो एक दूसरे को देखकर कर रहे हैं। और इस पलायन में सियासत भी हो रही है। खैर, उनके विचार मेरे से थोड़े से इतर थे। कहने लगे, आप मोटा कारण भूल रहे हो। पलायन करने वालों को अंत दिखाई दे रहा है, इसलिए यही सोचकर कि क्यों न अपनी जन्मभूमि पर आखिरी समय बिताया जाए, वो अपने मूल निवास की ओर लौट रहे हैं। मैंने उनकी बात बीच में ही काटी और कहा जी एेसा नहीं हो सकता। भारतीय आदमी आशावादी बहुत होता है। वह उम्मीद का दामन आसानी से नहीं छोड़ता। जीवन जीने की ललक में उसका कोई मुकाबला नहीं है। वह अंतिम समय की तो सोच भी नहीं सकता। मुझे लगता है पलायन को लेकर भी अलग-अलग मापदंड हैं। फिर भी सियासत जो होती है ना वह जनता की सहानुभूति पाने या उनको किसी न किसी बहाने प्रभावित करने का कोई कारण नहीं छोड़ती। मुझे एक किस्सा याद आ रहा है। सर्जिकल स्ट्राइक तो आपको भी याद होगी। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सीमा पर हलचल बढ़ी थी। सरहद से लगते भारतीय गांवों में हलचल थी। इसी को नजदीक से देखने में श्रीगंगानगर से लेकर पंजाब तक का बोर्डर घूम कर आया। दोनों ही प्रदेशों में मुझे बहुत बड़ा अंतर देखने को मिला। राजस्थान के सरहदी गांवों में जहां किसी तरह का खौफ नहीं था। ग्रामीण आम दिनों की तरह काम कर रहे थे। स्कूल लग रहे थे। खेतों में भी चहल-पहल थी। लेकिन पंजाब के सरहद से लगते गांवों को खाली करवा लिया गया था। ग्रामीणों को दूर की धर्मशालाओं एवं स्कूलों में ठहरा दिया गया था। गांवों में सैन्य वाहनों के अलावा कुछ न था। हर तरफ सन्नाटा पसरा था। मात्र चंद किमी की दूरी पर दो तरह के नजारे देखकर मैं हतप्रभ था। सोच रहा था एेसा क्यों? जिज्ञासावश एक दो साथियों से चर्चा की तो उन्होंने बताया कि आपको पता ही नहीं है पंजाब में चुनाव है जबकि राजस्थान में चुनाव नहीं है। मैंने उनकी बात पर गौर किया तो मुझे भी लगा कहीं युद्ध की आशंका को प्रचारित करना तथा सेवा करके सहानुभूति बटोरना कोई चुनावी मुद्दा तो नहीं? बात आई गई हो गई। मेरी इस बात का कोरोना वाले पलायन से कोई लेना देना नहीं है लेकिन हां, इस मामले में सियासत सहानुभूति जरूर बटोर रही है। खैर पहले ही कह चुका हूं राम और राज के रास्ते अलग होते हैं। हां शहर से गांव लौटने पर गांव की महिमा को लेकर एक जज्बाती लेख पिछले दिनों सोशल मीडिया पर वायरल था, हालांकि जन्मभूमि से स्नेह सभी को होता है, मुझे भी है। पर मौजूदा समय में एक जगह से दूसरी जगह जाने का मैं समर्थक नहीं हूं। गांव मुझे बहुत अच्छा लगता है इसलिए यह पोस्ट साझा कर रहा हूं। वैसे इस पोस्ट में गांव खुद अपनी जुबानी कह रहा है। वह गांव लौटने वालों पर ताना मार रहा है, तंज कस रहा है। उसके इस तंज में पीड़ा है, दर्द है। इस दर्द को आप भी महसूस कीजिए।
"मैं गांव हूं! मैं वहीं गांव हूं जिस पर ये आरोप है कि यहां रहोगे तो भूखे मर जाओगे। मैं वहीं गांव हूं जिस पर आरोप है कि यहां अशिक्षा रहती है, मैं वहीं गांव हूं जिस पर असभ्यता और जाहिल गंवार का भी आरोप है! हां मैं वहीं गांव हूं जिस पर आरोप लगाकर मेरे ही बच्चे मुझे छोड़कर दूर बड़े-बड़े शहरों में चले गए। जब मेरे बच्चे मुझे छोड़कर जाते हैं मैं रात भर सिसक सिसक कर रोता हूँ, फिर भी मरा नहीं। मन में एक आस लिए आज भी बाट जोहता हूं शायद मेरे बच्चे आ जाएं, देखने की ललक में सोता भी नहीं हूं, लेकिन हाय! जो जहां गया वहीं का हो गया। मैं पूछना चाहता हूँ अपने उन सभी बच्चों से क्या मेरी इस दुर्दशा के जिम्मेदार तुम नहीं हो? अरे मैंने तो तुम्हे कमाने के लिए शहर भेजा था और तुम मुझे छोड़ शहर के ही हो गए। मेरा हक कहां है? क्या तुम्हारी कमाई से मुझे घर, मकान, बड़ा स्कूल, कालेज, इन्स्टीट्यूट, अस्पताल, आदि बनाने का अधिकार नहीं है? ये अधिकार मात्र शहर को ही क्यों? जब सारी कमाई शहर में दे रहे हो तो मैं कहां जाऊं? मुझे मेरा हक क्यों नहीं मिलता? इस कोरोना संकट में सारे मजदूर गांव भाग रहे हैं, गाड़ी नहीं तो सैकड़ों मील पैदल बीवी बच्चों के साथ चल दिए आखिर क्यों? जो लोग यह कह कर मुझे छोड़ शहर चले गए थे कि गांव में रहेंगे तो भूख से मर जाएंगे, वो किस आस-विश्वास पर पैदल ही गांव लौटने लगे? मुझे तो लगता है निश्चित रूप से उन्हें यह विश्वास है कि गांव पहुंच जाएंगे तो जिन्दगी बच जाएगी, भर पेट भोजन मिल जाएगा, परिवार बच जाएगा। सच तो यही है कि गांव कभी किसी को भूख से नहीं मारता। हां मेरे लाल, आ जाओ मैं तुम्हें भूख से नहीं मरने दूंगा। आओ मुझे फिर से सजाओ, मेरी गोद में फिर से चौपाल लगाओ, मेरे आंगन में चाक के पहिए घुमाओ, मेरे खेतों में अनाज उगाओ, गोपाल बनो, मेरे नदी -ताल -तलैया, बाग -बगीचे गुलजार करो! गांव के बचपन के साथी, आज तुम्हे पुकार रहे हैं। मुझे पता है वो तो आ जाएंगे जिन्हे मुझसे प्यार है! लेकिन वो? वो क्यों आएंगे जो शहर की चकाचौंध में विलीन हो गए! वहीं घर - मकान बना लिए; सारे पर्व, त्यौहार, संस्कार वहीं से करते हैं। मुझे बुलाना तो दूर, पूछते तक नहीं। लगता अब मेरा उन पर कोई अधिकार ही नहीं बचा? अरे अधिक नहीं तो कम से कम होली दिवाली में ही आ जाते तो दर्द कम होता मेरा। सारे संस्कारों पर तो मेरा अधिकार होता है न, कम से कम मुण्डन, जनेऊ, शादी और अन्त्येष्टि तो मेरी गोद में कर लेते। मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि यह केवल मेरी इच्छा है, यह मेरी आवश्यकता भी है। मेरे गरीब बच्चे जो रोजी रोटी की तलाश में मुझसे दूर चले जाते हैं- उन्हें यहीं रोजगार मिल जाएगा, फिर कोई महामारी आने पर उन्हें सैकड़ों मील पैदल नहीं भागना पड़ेगा। मैं आत्मनिर्भर बनना चाहता हूँ। मैं अपने बच्चों को शहरों की अपेक्षा उत्तम, शिक्षित और संस्कारित कर सकता हूँ ! मैं बहुतों को यहीं रोजी रोटी भी दे सकता हूँ! मैं तनाव भी कम करने का कारगर उपाय हूँ। मैं प्रकृति की गोद में जीने का प्रबन्ध कर सकता हूँ। मैं सब कुछ कर सकता हूँ। मेरे लाल! बस तू समय - समय पर आया कर मेरे पास, अपने बीवी- बच्चों को मेरी गोद में डाल कर निश्चिंत हो जा! दुनिया की कृत्रिमता व दिखावे को त्याग दें। फ्रीज का नहीं घड़े का पानी पी! त्यौहारों समारोहों में पत्तलों में खाने और कुल्हड़ों में पीने की आदत डाल! अपने मोची के जूते और दर्जी के सिले कपड़े पर इतराने की आदत डाल! हलवाई की मिठाई, खेतों की हरी सब्जियां, फल-फूल, गाय का दूध, बैलों-ऊंटों की खेती पर विश्वास रख! कभी संकट में नहीं पड़ेगा। हमेशा खुशहाल जिन्दगी चाहता है तो मेरे लाल, मेरी गोद में आकर कुछ दिन खेल लिया कर! तू भी खुश और मैं भी खुश!' वाकई जिसने लिखा उसको दिल से धन्यवाद। इस पोस्ट का एक-एक शब्द गहराई तक उतरता है।
क्रमश:

No comments:

Post a Comment