Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना-17

बस यूं.ही

शराब के विरोध व समर्थन की तरह इन दिनों प्राइवेट स्कूलों की फीस का शोर भी बहुत जोर-शोर से सुनाई दे रहा है। अभिभावकों का तर्क है कि जब बच्चे स्कूल ही नहीं जा रहे तो कैसी फीस, किस बात की फीस। इधर कुछ स्कूल वाले तो अभिभावक की बातों पर सहमति जताते हुए नजर आ रहे हैं, लेकिन सर्वाधिक चिंता तो इन प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षकों में है जब फीस ही नहीं आएगी तो जाहिर सी बात है इन अध्यापकों को तनख्वाह कहां से मिलेगी? सीधी सी बात है कि तीन माह की पढ़ाई न होने का खामियाजा विद्यार्थी तो भोंगेगे ही उनसे ज्यादा आर्थिक नुकसान निजी स्कूलों के शिक्षकों का होंगा। शायद स्कूल संचालकों से भी ज्यादा। देखा जाए तो इस हालात के लिए न शिक्षक जिम्मेदार, ना स्कूल संचालक जिम्मेदार और ना ही विद्यार्थी। मुआ कोरोना ने शिक्षा से जुड़ी इन तीनों इकाइयों का व्यवहार आपस में खराब कर दिया। रिश्तों में बेवजह कड़वाहट ला दी। और नहीं तो अभिभावक इन दिनों ऑनलाइन क्लासेज का भी जमकर विरोध कर रहे हैं। अभिभावकों की विरोध के समर्थन में दलील देखिए, 'मुख्य रूप से यह जूम पर चलाई है जो कि सरकार के हिसाब से बिलकुल भी सुरक्षित नहीं है। इन्हीं मोबाइल से हम रोज नेट बैंकिंग एवं अन्य कार्य करते हैं, क्या स्कूल इसकी जवाबदेही लेता है? क्लासेज पांच-छह बार चल रही है, जिससे मोबाइल गर्म हो रहे हैं। अगर कोई दु़र्घटना हुई तो जिम्मेदार कौन? पांच-छह घंटे मोबाइल पर बैठने के बाद फिर चार-पांच मिनट का होम वर्क वो भी मोबाइल पर तो एक बच्चा रोज के नौ घंटे मोबाइल पर बीता रहा है जबकि माता-पिता बच्चों को ज्यादा मोबाइल के लिए मना करते थे, उनकी आंखों का क्या होगा? जिनके घर में दो बच्चे हैं, उनको दो मोबाइल चाहिए, वो कहां से लाएंगे और अगर घर के सारे मोबाइल उनको दे भी दें तो नौ घंटे खुद कैसे रहेंगे? मोबाइल बीच में चार्ज लगाना पड़ा है तो उसमें रेडिएशन और भड़कता है, उसका क्या? डेढ़ जीबी डाटा मिलता है वो पूरा नहीं पड़ता। और अगर स्कूल को सिर्फ फीस से ही मतलब है तो इसके लिए दूसरा तरीका निकाले। एक बात और स्कूल को फीस देनी जरूरी है ताकि वो अपना इंफ्रास्ट्रक्चर बरकरार रख सके तो उन माता-पिता के मासिक वेतन की गारंटी कौन देता है? अगर नुकसान हर किसी को हो रहा है तो स्कूलों को क्यों नहीं? क्या स्कूल ऑनलाइन क्लासेज के बदले आधी फीस लेंगे? क्योंकि हमने लॉकडाउन में कुछ नहीं कमाया है। और सबसे बडी बात बच्चों की सेहत से खिलवाड यानि उनके भविष्य से खिलवाड़ ।' कोरोना से
सबकी हालत पतली कर रखी है। अब जो हालात से समझौता करेगा वो ही तो घाटे का भागीदार होगा। सारी लड़ाई इसी घाटे की है। सबके पास अपनी-अपनी मजबूरियां हैं। कमबख्त कोरोना ने एक साथ सबको ही मजबूर कर दिया। सबकी हालत पतली कर दी। वाकई लोगों के समक्ष धर्मसंकट पैदा कर दिया। विद्यार्थी, स्कूल संचालक एवं स्कूल अध्यापक। इनमें दोषी कौन? कोई नहीं है लेकिन इसमें सर्वाधिक प्रभावित कौन होगा? कहा गया है कि जो सबसे कमजोर कड़ी होती है, वो सबसे पहले टूटती है, जाहिर सी बात है यह गाज निजी शिक्षकों पर ही गिरने के प्रबल आसार हैं। अंदर खाने गिर भी गई होगी। यह कोरोना का एेसा जख्म है, जो शिक्षक न तो किसी को बता सकते और ना ही दिखा सकते। दुनिया का दस्तूर भी यही है कि वक्त की सर्वाधिक मार कमजोर आदमी पर ही पड़ती है। कमजोर ही सबसे पहले मजबूर और लाचार होता है। कोरोना ने बहुत से सकारात्मक परिर्वतन किए लेकिन इस मामले में तो उसने परिवर्तन की बजाय कोढ में खाज का काम किया है। दो जून की रोटी की तलाश में अपने घर-परिवार से दूर गया श्रमिक वर्ग आज सड़कों पर जीवन और मौत से संघर्ष कर रहा है। सरकारी प्रबंध भी गरीबों को जैसे चिड़ा रहे हैं। कल एक कार्टून देखा, घर गृहस्थी का सामान सिर पर उठाए एक मजदूर का परिवार रेल पटरियों पर पैदल जा रहा है। ऊपर एक हवाई जहाज उड रहा है, जिस पर लिखा है, वंदे मातरम मिशन। हवाई जहाज को देखकर महिला कहती है, 'हमारा कसूर इतना है कि हम अपने देश में मजूदरी करते रहे।' इस कार्टून के माध्यम से सरकारी सिस्टम पर बहुत बड़ी चोट की गई है। वाकई यह विडम्बना भी है कि विदेश मजदूरी करने गए लोगों को हवाई जहाज से लाया जा रहा है जबकि देश में मजदूरी करने वाले सड़कों पर धक्के खा रहे हैं। मतलब इस कोरोना ने आदमी-आदमी में भी फर्क पैदा कर दिया। वैसे यहां दोष कोरोना की बजाय सियासत का ज्यादा है, जो सही समय पर सही फैसला नहीं कर पाई। बचाव के नाम पर जितने प्रयोग हुए उतने ही हास्यास्पद निर्णय भी हुए। और इन सभी फैसलों को भोगा आम आदमी ने।
क्रमश:

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