Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना- 47

बस यूं.ही

दिमाग का दही हो गया। यह डॉयलॉग यकीनन आपने बोला होगा, सुना होगा या कहीं पढ़ा तो जरूर होगा। दिमाग का दही होने का मतलब है, सोचने व समझने की क्षमता का जवाब देना। आज मेरी भी हालत कमोबेश एेसी ही थी। सुबह से लेकर शाम तक इतना व्यस्त रहा कि कोरोना पर लिखने के लिए ठीक से वक्त ही नहीं निकाल पाया। सचमुच आज दिमाग का दही ही नहीं उससे कहीं ज्यादा हो गया। रायता या छाछ भी कह सकते हैं। रायता व छाछ से तुलना इसीलिए कि यह दही को मथने के बाद ही तैयार होते हैं, मतलब बनते हैं। और जब दिमाग का दही बनता है तथा दही मथा जा सकता है तो लाजिमी है वह रायता या छाछ भी बन सकता है। खैर, दही व दिमाग की इस चर्चा के बीच सुबह सबसे पहले तो हिन्दी पत्रकारिता दिवस की बधाई के संदेश आने लगे थे। इस बार पता नहीं क्यों, बधाई कुछ ज्यादा ही दी जा रही थी। झुंझुनूं के एक दल विशेष के कल ही बने व्हाटस एप ग्र्रुप में तो मुझे भी जोड़ा गया था। वैसे यह पत्रकारों का ग्रुप बनाया गया था। मैंने जोड़ने की वजह भी पूछी लेकिन कोई जवाब नहीं आया। बाद में ग्रुप में बातें पढी तो जाना कि यह पार्टी विशेष के प्रेस नोट जारी करने के लिए ग्रुप बनाया गया है। इसमें तीन आदमी पार्टी प्रेस नोट जारी करेंगे। एक दो पत्रकारों ने बहस भी की, एक दो लेफ्ट भी हुए। बाद में एडमिन के समझ आया होगा कि इस तरह तो रायता बिखर जाएगा तो उन्होंने ग्रुप की सेटिंग बदल कर 'ओनली एडमिन्स सेंड मैसेज' कर दी। वैसे जब से कोरोना आया है तब से एडिमन एक तरह से तानाशाह हो गए हैं, या फिर बेहद.डरपोक। मतलब वो जो कहें वो ही सहें। बाकी सब उनकी पोस्ट पढऩे व समझने को मजबूर। कोई इन एडमिन से पूछे कि भाई यह ग्रुप बनाया ही किसलिए था? किसी को कुछ कहना था तो इनबॉक्स में ही कह सकते थे ? इस तरह ग्रुप बनाकर अपनी मनमानी करना कहां का न्याय है भला। पता नहीं किस बात से डरते हैं ये एडमिन। और अगर डरते ही हैं तो इस तरह के ग्रुप बनाते ही काहे हैं। मेरी बताऊं तो मुझे बड़ी कोफ्त होती है एेसे ग्रुप व उनके एडमिन से। ग्रुप बनाकर सेटिंग बदलकर बिना मतलब की पंचायती करते हैं। खैर, बात झुंझुनूं वाले ग्रुप व हिन्दी पत्रकारिता दिवस की हो रही थी। वहां भी ग्रुप की रात को सेटिंग बदली गई और चार जनों को एडमिन बना दिया गया। अब चारों ने ही सुबह-सुबह ही पत्रकारों के बीच सहानुभूति बटोरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चारों ने ही हिन्दी पत्रकारिता दिवस के बहाने खुद का चेहरा चमकाया। पता नहीं इन चेहरा चमकाऊ नेताओं ने यह फोटो शॉप खुद ने सीख लिया, कोई एप डाउनलोड कर लिया या भाड़़े-अनुबंध पर कोई बंदा रख लिया। वैसे आजकल खुद की बड़ी सी फोटो लगाकर फेसबुक पर बधाई व शुभकामना देने की होड़ सी लगी हुई है। अखबार आदि में तो प्रचार आदि के लिए जेब ढीली करनी पडती है, यहां फ्री का प्रचार है, लिहाजा कोई दिन खाली जाता ही नहीं है। त्योहार, पर्व व राष्ट्रीय पर्व के अलावा रोज किसी की पुण्यतिथि, जन्मतिथि या अवसर विशेष आ ही जाता है। फ्री में चेहरा चमकाने वाले एेसे ही अवसरों की ताक में तो रहते हैं। झुंझुनूं जिले में पार्टी का ग्रुप बनाने वाले एडमिन को यह तो सोचना चाहिए था कि वो पत्रकारिता दिवस की बधाई तो दे रहे हैं लेकिन कोई पलट के धन्यवाद कैसे ज्ञापित करेगा। सच बताऊं यह बिना मतलब की नेतागिरी मेरे को कभी नहीं जमती। लिहाजा, मैं सुबह ही उस ग्रुप से लेफ्ट हो गया। जोडऩे वाले ने पूछ कर नहीं जोड़ा था, इसलिए वह मेरे लेफ्ट होने का कारण भी किस मुंह से पूछता। मुझे उन तमाम व्हाट्सएप ग्रुप के एडमिन से आपत्ति है, जो बिना पूछे जोड़ लेते हैं और फिर बिना किसी की सुने सेटिंग बदलकर खुद को फन्ने खां समझने लग जाते हैं। वैसे इस बहाने सभी को सलाह भी दूंगा कि इस तरह के डेढ स्याणों के पिछलग्गू बनते ही क्यों हैं ? खैर, दिन भर में और काम आते रहे और मैं कोरोना पर लिखने के लिए वक्त नहीं निकाल पाया। चूंकि यह नियमित कॉलम हैं आज दिन में टाइम नहीं मिला तो अब रात का समय चुना, वैसे लिखने का मूड नहीं था लेकिन बीकानेर से एक परिचित का मैसेज आया। बस उसी से लगा कि कुछ लिखना चाहिए, क्योंकि मैसेज कल प्रासंगिक नहीं रहेगा। मैसेज भी हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर ही था। गौर फरमाइएगा , 'अखबार की भी अग्नि परीक्षा' यह शीर्षक था, आगे लिखा था 'कितनी अग्नि परीक्षा, मैं अख़बार हूं हर सुबह सबकी आंख खुलने से पहले दे देता हूं, दरवाज़े पर दस्तक। बेसब्री से रहता था मेरा इंतज़ार। पर न जाने क्या हुआ ऐसा लगा जैसे मुझ पर भी लग गया कोरोना-ग्रहण। मेरे चाहने वालों ने मुझ से मुंह ही मोड़ लिया। मैं भी समझ गया वो डरते हैं, मुझे छूने से उन्हें भी न हो जाए कोरोना। मेरी अग्निपरीक्षा हुई प्रयोगशालाओं में। समझाया बहुतेरे वैज्ञानिकों ने मीडिया ने कि कागज़़ पर नहीं ठहरता कोरोना वायरस, दस मिनट से ज़्यादा। प्रिटिंग प्रेस में भी सेनेटाइज़ हुआ। लेकिन सीता की तरह अग्निपरीक्षा के बाद भी लोकदृष्टि में रहा संदेह के घेरे में। अब कुछ घरों में हुई मेरी वापसी। पर कहीं मुझ पर गर्म प्रेस फेरी जा रही तो कहीं हाथ धोए जा रहे मुझे पढऩे के बाद। शायद, ज़रूरी हो उनकी सुरक्षा के लिए। लेकिन सोचता हूं कितनी बार होगी आखिऱ, मेरी अग्निपरीक्षा।' जिसने भी लिखा उसको दिल से शुक्रिया। आज की पोस्ट में इतना ही।
क्रमश:

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