Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना- 26

बस यूं ही

सन 1971 में राजेश खन्ना की फिल्म आई थी, हाथी मेरे साथी। इस फिल्म के लगभग सारे गाने हिट थे। इसी फिल्म का 'नफरत की दुनिया को छोड़ के प्यार के दुनिया में खुश रहना मेरे यार ...' गीत इतना मर्मस्पर्शी है कि सुनने वाले की आंखें नम हो जाए। इसी गाने की तर्ज और टेर पर आजकल एक गीत सोशल मीडिया पर वायरल है। देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से जा रहे है मजूदरों की बेबसी और लाचारी को दर्शाते दृश्यों के साथ इस गीत को मिक्स कर आगे से आगे बढ़ाया जा रहा है। निसंदेह यह पसंद भी काफी किया जा रहा है। गीत के बोल हैं, ' हम मजदूरों को गांव हमारे भेज दो सरकार, सूना पड़ा घर द्वार...। मजबूरी में हम सब मजदूरी करते हैं, घर बार छोड़कर शहरों में भटकते हैं, जो लेकर हमको आए वो ही छोड़ गए मझधार... सूना पड़ा है घर द्वार...। हमको ना पता था कि ये दिन भी आएंगे, कोरोना के कारण घरों में सब छिप जाएंगे, हम तो बस पापी पेट के कारण झेल रहे हैं मार... सूना पड़ा है घर द्वार... गांव हमारे भेज दो सरकार।' वाकई यह गीत भी डूब कर गाया गया है। गीत के बोलों में और गायक के सुर में छिपे दर्द को बखूबी महसूस किया जा सकता है। मौजूदा हालात को देखकर कहा जा सकता है कि मजूदरों की पीड़ा पर्वत सी है। उनकी फरियाद कहीं सुनी जा रही है तो कहीं अनसुनी है तो कहीं आधी अधूरी। समझ नहीं आ रहा उनकी पीड़ा को सभी जगह पूरा क्यों नहीं सुना गया? मानवता पर सियासत भारी पड़ रही है। माना जाता है कि मजबूर और लाचार आदमी को ज्यादा दबाया जाता है तो फिर वह बागी बन जाता है। देश में मजदूरों के बगावती सुर दिखाई भी देने लगे हैं। लूट खसोट की घटनाएं भी सामने आई हैं। आज से माह भर पहले ही मैंने एक टिप्पणी में आगाह किया था कि देश में भुखमरी के हालात पैदा होने की आशंका बन रही है। और यह हालात पैदा हुए तो स्थिति कोरोना से विकट होगी। चर्चित कवि गोपालदास नीरज जी ने भूख को लेकर बहुत पहले कहा था,
'तन की हवस मन को गुनाहगार बना देती है,
बाग के बाग़ को बीमार बना देती है,
भूखे पेटों को देशभक्ति सिखाने वालो,
भूख इन्सान को गद्दार बना देती है।'
यकीनन भूख इंसान को गद्दार बना देती है। फिलहाल वक्त के सताए मजदूरों के सामने खुद को सुरक्षित रखते हुए जान बचाना बड़ी चुनौती है। दो चार रोज पूर्व साइकिल चोरी करने की मजबूरी और चोरी की वजह बताते हुए छोड़ी गई चिट्ठी बताती है कि संकट के इस काल में मजबूर भले ही कितना दुखी हो जाए लेकिन उसका जमीर मरा नहीं है। उस मजदूर ने अपने किए के लिए बाकयदा माफी भी मांगी। मजदूर की चिट्ठी भी सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई। टूटी-फूटी हिन्दी में चिट्ठी में लिखा था, ' मैं आपकी साइकिल लेकर जा रहा हूं। मुझे माफ कर देना। मेरे पास बरेली जाने का और कोई साधन नहीं था। मेरा एक बच्चा है,जो विकलांग है। उसके लिए मुझे एेसा करना पड़ा रहा है। आपका कसूरवार, एक मजदूर, एक मजबूर।' इस तरह अपनी भावना लिखने वाला निसंदेह चोर तो कतई नहीं हो सकता। हालात से हारा व्यक्ति ही एेसा कदम उठाता है। वैसे सच यह भी है लॉकडाउन में भले ही दुकानें बंद रही हों लेकिन साइकिलें खूब बिकी हैं। घर जो जाना था। तभी तो जेब में बचे-खुचे पैसों से मजूदरों ने साइकिल खरीदना बेहतर समझा। किसी ने तो अपना मोबाइल तक बेचकर साइकिल का जुगाड़ किया। और जिनके पास साइकिल जितने पैसे भी नहीं थे, उन्होंने अपने जरूरी साजो सामान की गठरी सिर पर रखकर पैदल चलना ही मुनासिब समझा। कहीं नंगे पैर तो कहीं पैरों में छाले, कहीं टूटी हवाई चप्पल तो कहीं गोद में मासूम। बड़े ही हृदय विदारक एवं विचलित करने वाले नजारे सड़कों पर दिखाई दिए। कल कई साथी चुटकी ले रहे थे कि अभी चुनाव नहीं है वरना मजदूरों के लिए हर तरह की व्यवस्था हो जाती। मजदूरों की इसी दशा पर किसी ने शेर भी लिखा ,
'मौत तो पहले से तय थी मेरी
पैदल तो वजह तलाशने निकला था।'
कल कहीं पढ़ा था, जिसमें एक कहावत के हवाले से बताया गया था कि गांव गया मजदूर तथा पानी में गई भैंस देर से ही वापस आते हैं। बात भी सही है, जो गांव गया है वह जल्दी से अब शहर का रुख नहीं करेगा।
क्रमश:

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