Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना-33

बस यूं.ही

मध्यम वर्ग की चर्चा के बीच दो खबरें अचानक ही आंखों के सामने से गुजरी तो चौंका, हालांकि गुणग्राहकों का आग्रह है कि मध्यम वर्ग पर और लिखा जाए, इसलिए मध्यम वर्ग को नजरअंदाज करके उनके दो खबरों पर आना एक तरह की नाइंसाफी ही होगी। दरअसल, कोरोना का दर्द और दुख सबका साझा है, फिर भी मानव स्वभाव है, सभी को अपना दुख ज्यादा लगता है, यह सही है दुनिया गमों से भरी है। यहां दुखियारों की कोई कमी नहीं है। खुद को सबसे ज्यादा दुखी मानने वालों को यह गीत सुनना चाहिए, 'दुनिया में कितना गम है। मेरा गम कितना कम है, लोगों का गम देखा तो मैं अपना गम भूल गया।' बात गुणग्राहकों की हो रही थी। श्रीगंगानगर जिले के सूरतगढ़ इलाके से एक परिचित वकील ने बताया कि 'जिन वकीलों के खेती आदि अन्य कोई काम नहीं है, उनका हाल बहुत बुरा है। हमारे पड़ोसी गांव में एक प्राइवेट स्कूल का संचालक खुद नरेगा में मजदूरी करने लगा है।' देखा जाए तो यह एक छोटा सा उदाहरण है, लेकिन इस तरह के हालात से कोई गांव, कस्बा या शहर अछूता नहीं है। कोरोना ने एक झटके में अर्श से फर्श पर ला पटका। सरकारें भले ही अमीर-गरीब का भेद करे। निम्न-मध्यम वर्ग बनाए। उनकी औकात, हैसियत एवं वोट बैंक देखकर योजनाएं बनाए। पैकेजों का निर्धारण करे लेकिन कोरोना ने सभी के प्रति समान व्यवहार रखा। अमीर-गरीब से ऊपर उठकर समभाव रखा। उसने इंसान को इंसान ही समझा। काश, एेसा यह समभाव सियासत भी समझ जाए। वो इंसान को जाति, धर्म व वोट बैंक के नजरिये से ऊपर उठकर देखे और केवल इंसान समझे। जाति, धर्म, वर्ग तो बाद की बात है पहले तो सभी इंसान ही हैं। सभी का खून लाल हैं। सियासत से कोई सवाल नहीं करता। मुझे क्रांतिवीर फिल्म का वो डॉयलाग याद आ रहा है। डॉयलाग काफी बड़ा है लेकिन यह दर्शकों को झकझोरता है, उसी डॉयलोग की जरा सी झलक देखिए। 'तुम्हारी ये ना-मर्दानगी, बुजदिली, एक दिन इस देश की मौत का तमाशा इसी ख़ामोशी से देखेगी। कुछ नहीं कहना मुझे तुम्हे। कुछ नहीं। तुम्हारी जिंदगी में कोई फर्क पड़ने वाला नहीं। अंधेरे में रहने की आदत पड़ी है तुमको। गुलामी करने की आदत पड़ी है। पहले राजा महाराजाओं की गुलामी की। फिर अंग्रेज़ों की फिर अब चंद गद्दार नेताओं और गुंडों की। धर्म के नाम पर ये तुम्हे बहकाते हैं। तुम एक दूसरे का गला काट रहे हो। काटो। काटो। ऊपर वाला भी ऊपर से देखता होगा तो उसे शर्म आती होगी। सोचता होगा मैंने सबसे खूबसूरत चीज बनाई थी इंसान। नीचे देखा तो सब कीड़े बन गए। कीड़े। कीड़े रेंगते रहो। रेंगते रहो। सड़ते रहो। मरो। आए और गए। खेल खत्म क्यों जिए मालूम नहीं क्यों मरे मालूम नहीं।' भले ही जज्बात भरा यह डॉयलोग अभी प्रासंगिक नहीं लेकिन चुनाव के वक्त इसको एक बार याद कर लिया जाए तो शायद मतदाताओं का सोया जमीर जाग जाए। खैर, मैं भी इस विषय पर जज्बाती हो गया। कहां से कहां आ गया। हां तो इसी तरह झुंझुनूं से एक परिचित ने लिखा, 'मध्यम वर्ग की रसाई से पौषकता गायब होने लगी है और चेहरे पर चिंता की लकीरों ने अड्डा जमाया है। समस्या यह है कि कोई उसे गरीब मानने को तैयार नहीं। उसके भवन, उसके कपड़े तक शक की नजर में आ रहे हैं। साबुन तेल की गुणवत्ता बदल रही है, पर इतना धीरे कि कहीं कोई गरीब न मान ले। अब एक सब्जी दो समय चलने लगी है।' यह कहानी भी कमोबेश हर मध्यम वर्ग की रसोई की होगी। दअरसल' मध्यम वर्ग के साथ एक दुविधा है। वह गरीब बनना तो चाहता है पर उसे कोई गरीब बनते देखे यह गवारा नहीं है। बस सियासत उसकी हालत पर चुपचाप तरस खा जाए। वह यह भूल जाता है कि बच्चे को मां भी स्तनपान तभी करवाती है जब वो रोता है। बच्चा ना रोए तो मां की नजर में सब ठीक ही होता है। मध्यम वर्ग व सियासत को मां व बेटे वाली भूमिका में समझना चाहिए। बेटा (मध्यम वर्ग) रो नहीं रहा है तो मां (सियासत) समझ रही है कि उसका पेट भरा हुआ है। उसे दूध (पैकेज या मदद ) की जरूरत नहीं है। और यह मध्यम वर्ग इतना आज्ञाकारी पुत्र है कि कभी रोता ही नहीं है, और न कभी शिकायत करता है, उल्टे श्रवण कुमार बनकर वह सियासत की सेवा करता है, उसका पालन पोषण करता है। बहरहाल, लॉकडाउन में 4.0 को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं और उन सवालों के बीच हमेशा की तरह से आज भी गुदुगुदाने वाले मैसेज आए, लिहाजा आप से साझा कर रहा हूं। ' बाजार खोलने से पहले, संसद खोलो, मुख्यमंत्रियों के दफ्तर खोलो। सभी अफसरों को काम पर लगाओ ताकि आपको पता लग सके कि यह कोरोना कितनी खतरनाक बीमारी है। लॉक डाउन खोल रहे हो हम पब्लिक हैं, साहब कोई टेस्टिंग किट नहीं हैं।' खैर, इतनी गंभीर बात के बाद एक हल्का पुछल्ला ताकि इस प्रतिकूल मौसम में आपकी मुस्कान कायम रहे। ' पति नहाने गया था... पत्नी ने उसका फोन चेक किया तो कॉन्टेक्ट्स में एक नाम कोरोना लिखा था, उसने डायल किया तो किचन में पड़ा उसका खुद का फोन बजने लगा...अब लाख समझाने पर भी पति बाथरूम से बाहर नहीं आ रहा है... बोल रहा है मैं कोरंटाइन हूं।' अब हंसिते रहिए, कल फिर मिलते हैं।
क्रमश:

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