Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना- 43

बस यूं.ही

भला कभी रेलों को रास्ते भटकते हुए देखा या सुना है? बात जरूर चौंकाने वाली है लेकिन कोरानाकाल में यह भी संभव हो गया है। लोग रेलों के रास्ते भटकने पर तरह-तरह के चटखारे ले रहे हैं। चर्चाओं का बाजार गर्म है। सियासी बाजार तो चुटीले व्यंग्य बाणों से आबाद है। वाकई यह कैसे संभव है कि रेल रास्ता भूल जाए? देश में पिछले तीन-चार दिन से रेलों के रास्ते भटकने की खबरें यकायक बढ़ी हैं। जैसा कि सुना है और बताया जा रहा है कि तीन दर्जन से अधिक रेलें अब तक रास्ता भटक चुकी हैं। इसीलिए सोचा आज क्यों न रेल पर ही लिखा जाए। कोरोना के चलते लंबे समय तक रेलों का संचालन बंद रहा है। एेसे में कोई एक दो रेल रास्ता भटकती तो शायद फिर भी बात गले उतर जाती है कि रेल चालक कोरोना काल से आया था, इस कारण उनकी मनोस्थिति ठीक नहीं थी, लेकिन यहां तो लाइन लग गई है। सियासी फुटबाल बने प्रवासी श्रमिक अब रेल के माध्यम से भारत भ्रमण कर रहे हैं। उनको शुक्र मनाना चाहिए कि कोरोना के बहाने भारत भ्रमण का मौका मिल गया। वैसे रेल के सफर को आरामदायक व सुरक्षित माना गया है। रेल के संबंध में एक मारवाड़ी कहावत भी है, जिसको तुकबंदी करके मैंने और बढ़ा दिया है। गौर फरमाइएगा, 'चलना रास्ते का चाहे फेर ही हो। छांव मौके की भली, चाहे केर ही हो। बैठना भाइयों का चाहे बैर ही हो। सफर ट्रेन का चाहे देर ही हो और धीणा भैंस का चाहे सेर ही हो।' बाकी बातें तो आपके आसानी से समझ आ गई होंगी लेकिन धीणा भैंस वाली बात राजस्थानी साथियों के अलावा शायद ही कोई समझे। बता दूं कि गांवों में लोग पशुपालन करते हैं। वह चाहे गाय हो, भैंस हो बकरी हो। जब भैंस या गाय का प्रसव होता है तो वह दूध देती है। उसी दूध से दही-छाछ-घी आदि बना लिया जाता हैं। गांवों में एक दूसरे से हाल-चाल जानने के बाद धीणा किसका वाली बात अक्सर पूछी जाती थी। अब भी बड़े बुजुर्ग जरूर पूछ लेते हैं। जिसके भैंस ब्याही हुई होती है वह भैंस का धीणा है और अगर गाय है तो वह गाय का बता देता है। खैर, बात रेल की थी। सफर रेल का चाहे देर से हो। वाकई रेलवे ने यह कहावत चरितार्थ कर दी। वैसे भारतीय फिल्मकारों के लिए भी रेल शूटिंग के लिए अच्छी खासी लोकेशन रही है। न जाने कितनी ही फिल्मों में रेल या रेलवे स्टेशनों के दीदार हो जाते हैं। कई गीत तक रेल के अंदर या रेलों की छत पर फिल्माए गए हैं। 1985 के आसपास गांव में किसी मांगलिक अवसर पर वीसीआर, रंगीन टीवी व तीन चार फिल्में लाने का प्रचलन शुरू हुआ था। उस वक्त टीवी तो इक्का-दुक्का घरों में ही हुआ करते थे और वो श्वेत-श्याम थे। इस कारण रंगीन टीवी पर फिल्म देखने का तब बड़ा क्रेज था। मेरी उम्र तब कोई नौ-दस साल रही होगी लेकिन फिल्म देखने का चस्का ऐसा लगा कि 1994 तक एक हजार से ऊपर फिल्में देख चुका था। बाकायदा सबके नाम डायरी में दर्ज करता। आस पड़ोस या पांच किलोमीटर के दायरे में कहीं कोई मांगलिक अवसर होता और वीसीआर व टीवी आता तो मेरा वहां जाना तय था। कई बार तो फिल्म देखने के लिए याचक की भूमिका भी निभाई। खैर, उसी दौर में एक फिल्म आई थी। गंगा-जुमना सरस्वती। इसमें कलाकार थे अमिताभ बच्चन, मिथुन चक्रवती, मिनाक्षी शेषाद्रि और जया प्रदा। इस फिल्म का वो गीत आज भी याद है,जो रेल के डिब्बे में फिल्माया गया था। गीत के बोल थे ' साजन में मेरा उस पार है, मिलने को दिल बेकरार है।' इस तरह के न जाने कितने ही गीत और दृ़श्य हैं, जिसने फिल्मों के साथ रेलों की कीर्ति का बखान किया। रेल की मुलाकात, रेल में प्यार, रेल में गाना, रेल में लड़ाई, रेल में बिछडऩा आदि क्या-क्या नहीं फिल्माया गया। शोले फिल्म का चर्चित गीत भी रेल के सहारे फिल्माया गया था। बोल थे ' कोई हसीना जब रुठ जाती है तो और हसीन हो जाती है, स्टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो एक दो तीन हो जाती है।' इस तरह लंबी फेहरस्ति है। हां तो बात कोरोना की थी। इतनी बड़ी गलती के बाद रेलों पर जुमले बनने तो स्वाभाविक थे। बानगी देखिए 'आत्मनिर्भर भारतीय रेलवे..स्वतंत्र भारत मे पहली बार 40 श्रमिक ट्रेन रास्ता भूली..गोरखपुर की ट्रेन झारसुगुड़ा पहुंची...चालीस घंटे का सफर 80 घंटे में पहुंचे लोग..बुलेट ट्रेन होती तो शायद जापान पहुंच जाती।' एक जने ने तो अपने एफबी वाल पर लिखा कि 'जब देश मे नियमित तौर पर हजारों की संख्या में ट्रेन चल रही थी तब ट्रेन कभी भी रास्ता न भूली न रास्ता भटकी जबकि पटरियों पर ट्रेनों की भीड़ होती थी। लेकिन लॉकडाउन में श्रमिक ट्रेन कह लें या गरीबों की ट्रेन कह लें, जब चली तब खूब रास्ता भटक रही है। दूरी तय करने में समय का तो पूछो मत। 70 से 80 घंटे तक लगा रही है। खाना तो पूछो मत, वाह क्या बात है। गरीबों को भारत भ्रमण कराया जा रहा है। उसी लॉकडाउन में अमीरों के लिए राजधानी ट्रेन चलाई गई। राजधानी कभी रास्ता भूली न भटकी। गरीबो के साथ ऐसा क्यों होता है।' यकीनन यह लिखने वाला जरूर कोई भुक्तभोगी होगा लेकिन उसका सवाल बड़ा मारक है। एक और भुक्त भोगी ने तो बड़े व्यंग्यात्मक लहजे में एफबी पर जोरदार कटाक्ष किया है, देखिए, 'श्रमिक ट्रेन रास्ता नहीं भूली बल्कि रेलवे ने हां जी मतलब ड्राइवर ने मजदूरों की भलाई सोची है। कहां इन बेचारे लोगों को भारत दर्शन का मौका मिलता होगा। रोटी की तलाश में बेचारे बस काम से घर तक, घर से काम तक यही करते होंगे तो उन्होंने सोचा लगे हाथ क्यों ना भारत दर्शन करा दिए जाएं। अब अगर 8-10 लोग भूख प्यास से मर भी जाएं तो भाई इसमें उनकी क्या गलती। वो तो खाना-पानी सब दे ही रहे हैं ना। और मर जाएं तो मर जाएं, इतने लोगो का मनोरंजन भी तो करवाया है ना घुमा -घुमा कर। तो कोई नहीं बोलेगा, बस कुछ मर गए तो सब आ जाएंगे बदनाम करने।' बहरहाल आप दुष्यंत कुमार की चर्चित गजल के इस अंतरे का आंनद लीजिए या पढ़ कर सोचिए, संयोग से इसमें भी रेल का जिक्र है।
'मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूं,
वो गज़़ल आपको सुनाता हूं,
तू किसी रेल-सी गुजऱती है,
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं।'
क्रमश

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