Monday, August 17, 2020

स्कूल के दिन : गुरुजन एवं सहपाठी

अतीत की यादें-1
कल आठवीं कक्षा का एक फोटो एफबी पर लगाया। उसी फोटो से ख्याल आया कि क्यों न उस दौर के सहपाठियों एवं गुरुजनों के बारे में भी कुछ लिखा जाए। चूंकि याददाश्त के मामले में खुशकिस्मत हूं, इसलिए स्कूली जीवन की लगभग घटनाएं याद हैं। पापाजी तब एफसीआई अजमेर में नौकरी करते थे और बड़े भाईसाहब केशरसिंह जी उनके साथ अजमेर ही रहते और वहीं पढ़ते। पीछे गांव में दादी, मां, बहन संतोष कंवर एवं बीच वाले भाईसाहब सत्यवीरसिंह जी रहते थे। बचपन से ही मैं चंचल स्वभाव का था, दिन भर घर में धमाचौकड़ी मचाए रखता। शर्म शंका तो बिलकुल भी नहीं करता। अपनी उदंडता के चलते दादी एवं मां से खूब डांट खाता। यह बात सन 1981 के आसपास की है। पापाजी हर माह छुट्टी आते थे। जुलाई में छुट्टी आए तो दादी एवं मां ने उनसे एक स्वर में कहा कि महेन्द्र बड़ा हो गया है, उसको स्कूल में दाखिला दिलवा दो। पिताजी मुझे लेकर स्कूल गए तो अध्यापक ने प्रवेश पत्र भरवाया तो पापा ने मेरी वास्तविक जन्मतिथि 18 अक्टूबर 1976 बताई। इस पर अध्यापक ने यह कहते हुए प्रवेश आवेदन निरस्त कर दिया गया कि बच्चे की आयु अभी छह साल की नहीं हुई है। यह तो अभी साढ़े चार साल का ही हुआ है। चूंकि दादी एवं मां का आदेश था तो पापाजी ने अध्यापक से कहा कि ठीक है आप छह साल लिख दीजिए लेकिन इसको भर्ती कर लो। और इस तरह डेढ़ साल बढ़ाकर मेरी जन्मतिथि आठ जुलाई 1975 लिख दी गई। स्कूल में प्रवेश से पहले कुछ दिन मैं एक मैडम के पास भी पढऩे गया था। वो मैडम उस वक्त रामेश्वर जी मीणा के मकानों में रहा करती थी। उस वक्त बच्चे मैडम न कहकर बहनजी पुकारते थे। खैर, बहनजी के यहां कुछ दिन जाने के बाद ही स्कूल जाने लगा। पहली कक्षा का कमरा कोने में था न नीचे फर्श था न ऊपर पट्टी थी। हम बच्चे धूल में खूब धमाचौकड़ी मचाते। मिट्टी का बड़ा सा ढेर बना लेते और अपना बरता (स्लेट जिसे हम पट्टी कहते थे, उस पर लिखने के लिए उपयोग में लिया था। चॉक की प्रजाति का लेकिन चॉक से टाइट और बेहद पतला होता है। ) उस मिट्टी के ढेर में छिपा देते। बाद में सारे ढेर के मिट्टी को समतल करते हुए अपने-अपने बरते तलाशते। उस वक्त बरते खोते भी ज्यादा थे। हमारे इस खेल में पहले के खोए हुए बरते भी हमको मिल जाते हैं। जिसको ज्यादा बरते मिल जाते उसके चेहरे पर अलग तरह की विजयी मुस्कान होती थी। उस वक्त स्कूल में केवल पट्टी एवं बरता लेकर ही जाते थे। यह बात अलग है कि गांव की पहली कक्षा में मेरा जाना कुछ समय के लिए हुआ और बाद में जिद करके मैं पापाजी के साथ अजमेर चला गया। वहां पास ही एक सरकारी स्कूल था, मैं ऑफ द रिकॉर्ड उसमें जाने लगा लेकिन इधर पिताजी मेरी गतिविधियों पर बराबर नजर रखे हुए थे। उन्होंने एक दिन बडे़ भाईसाहब से मुझे ककहरा एवं बारहखड़ी सिखाने का कहा। भाईसाहब ने प्रयास भी किए लेकिन बात बनी नहीं। इतना ही नहीं उन्होंने पापाजी को यहां तक कह दिया था कि यह कभी नहीं सीख सकता। खैर, उस वक्त पिताजी मेरे पास बैठे और पहले उन्होंने क ख ग घ ड़ सिखाए। उसके बाद बारहखड़ी भी सिखाई। मुझे याद है ककहरा एवं बारहखड़ी मैंने एक ही दिन में सीखे थे। - क्रमश:

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