Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना-8


बस यूं ही
वैसे, बेईमानी के धंधों में बेईमानी होना तो इतना नहीं अखरता जितना ईमानदारी के काम में बेईमानी का घुसना। कोरोना काल में अच्छे-अच्छों का ईमान डगमगाते देखा है। लोग इस विपदा को सुनहरा अवसर मान बैठे हैं। अगर यह विपदा नहीं आती है तो यह कथित ईमानदार लोग अंदरखाने समाज और देश को कितना नुकसान पहुंचाते, सहज ही सोचा जा सकता है। क्योंकि इन कथित ईमानदारों के तो खून मुंह लगा हुआ है। फिर भी कोरोना ने इनका वर्गीकरण तो किया। आज भी कई कथित ईमानदार हैं, जो ईमानदारी का आवरण ओढे हुए हैं लेकिन पर्दे के पीछे काम बेईमानी वाला ही करते हैं। पर्दे की बेईमानी ही क्यों? इस प्रतिकूल मौसम में लोग तो सरेआम ठगी मारने या धोखाधड़ी करने से भी बाज नहीं आ रहे है। जब समूची मानवता पर संकट आन पड़ा है। वहां धोखाधड़ी करने वाले इंसानियत को शर्मसार कर रहे हैं। कल ही बीकानेर के एक साथी ने बताया वहां नेक काम करने वाले दुकानदार को सिला यह मिला कि उसके गल्ले से पचास हजार पार हो गए। हुआ यूं कि दो जने मास्क बांधे दुकानदार के पास आए और पीने के लिए पानी मांगा। दुकानदार के पास पानी की बोतल थी, लेकिन कोरोना के डर के चलते उसने अपनी बोतल देने की बजाय वह एक जने को पड़ोसी की दुकान ले गया और कैंपर से पानी पिला दिया। पीछे से दूसरे व्यक्ति ने गल्ले पर हाथ साफ कर पचास हजार पार कर लिए। होम करके हाथ जलवाने का इससे ज्वलंत उदाहरण और क्या होगा। मौत साक्षात खड़ी है और लोग ठगी, लूटमारी, धोखाधडी करने से नहीं हिचकिचा रहे बल्कि तरीके और बदल रहे हैं। यह तौर तरीकों में बदलाव भी तो इस निगोड़े कोरोना ने ही सिखाया है। कहावत है 'विष दे विश्वास न दे।' लेकिन विश्वास के सहारे ठगी मारना तो धतकर्म है। विश्वास भी इसीलिए किया जा रहा है क्योंकि कुछ सेवाभावी लोग अभी भी दुनिया में है, तभी तो यह विश्वास जिंदा है। बस इसी विश्वास का फायदा यह बेईमान लोग उठा रहे हैं। वैसे कोरोना के चलते कई सकारात्मक बदलाव हुए लेकिन यह विश्वास जताकर धोखा देने वाला बदलाव सब पर भारी पड़ जाता है। एेसे हालात में भी जिसका ईमान मरा हुआ है, वह कभी जिंदा हो भी नहीं सकता। एेसे लोग इंसानियत के नाम पर कलंक है। नासूर हैं। कोरोना से भी बड़ी बीमारी हैं। इस तरह की परिस्थितियों में मुझे बड़े बुजुर्गों से सुनी बातें याद आ रही हैं। यही कि ' कफन के जेब नहीं होती' मतलब यही है कि आदमी जीते जी कितना भी कमा ले, कैसे भी कमा ले, अंत में जाना खाली हाथ ही है। साथ कुछ नहीं चलता। शायद जीवन के इसी फलसफे को सम्राट सिकंदर भी जान गए थे। तभी तो मरने से पहले उन्होंने कहा था कि मरने पर उनके हाथ अर्थी से बाहर निकाल दिए जाएं। एेसा करने के पीछे मकसद यही था कि दुनिया का सम्राट होने के बावजूद सिकंदर आज खाली हाथ दुनिया से जा रहा है। अपने साथ कुछ नहीं ले जा रहा है। सब कुछ यहीं छोड़ कर जा रहा है। वैसे मुझे रेल में एक यायावर-फक्कड़ महिला से सुना वह गीत भी आज अचानक याद आ गया 'मुट्ठी भींच कर आया बंदे, हाथ पसारे जाना, अपना कोई नहीं संगी अपना मालिक प्यारा जी..।' सच में साथ कुछ नहीं जाता। मृत्य ही शाश्वत और अंतिम सत्य है फिर भी लोग लगे हैं, धनलिप्सा के चक्कर में अर्थ का अनर्थ करने। एेसी मानसिकता वाले लोगों को यह मुआ कोरोना बदले तो कुछ बात बने।
कल ही एक दोस्त कह रहा था 'जि़ंदगी में पहले ऐसा पंगा नहीं देखा। हवा शुद्ध है पर मास्क पहनना अनिवार्य है। सड़कें खाली हैं पर लॉन्ग ड्राइव पर जाना नामुमकिन है। लोगों के हाथ साफ हैं पर हाथ मिलाने पर पाबंदी है। दोस्तों के पास साथ बैठने के लिए वक़्त है, पर उनके दरवाजे बंद हैं। गंगा का पानी साफ हो गया है पर उसे पीना किस्मत में नहीं है। पार्क खाली हैं पर पेड़ों के पीछे प्रेमी युगल दिखाई नहीं दे रहे। अपने अंदर का कुक दीवाना हुआ पड़ा है पर किसी को खाने पर बुला नहीं सकते। सोमवार को भी ऑफिस जाने के लिए दिल मचल रहा है पर ऑफिस में लंबा वीकेंड है। जिनके पास पैसे हैं, उनके पास खर्च करने के रास्ते बंद हैं। जिनके पास पैसे नहीं हैं, उनके पास कमाने के रास्ते बंद हैं। पास में समय ही समय है लेकिन अधूरी ख्वाहिशें पूरी नहीं कर सकते। दुश्मन जगह-जगह है पर उसे देख नहीं सकते। कोई अपना दुनिया छोड़कर चला जाए तो उसे छोडऩे जा भी नहीं सकते। है तो सब-कुछ पर ज़्यादा कुछ कर नहीं सकते।' काश यह बात जमीर बेचने वालों के भी समझ आ जाती। काश वो भी बदल जाते।
क्रमश:

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