Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना-32

बस यूं ही

यह महज संयोग है कि वर्क फ्रॉम होम को आज पूरे दो माह हो गए। 21 मार्च को पहला दिन था, जब कार्यालय का काम घर से करना शुरू किया था। दूसरा संयोग यह है कि कोरोना पर लगातार लिखते हुए भी आज एक माह पूरा हो गया। पहली कड़ी 21 अप्रेल को लिखी थी। एक ही विषय पर लगातार लिखना तथा साथ में रोचकता एवं पठनीयता को बरकरार रखने की चुनौती हो तो मामला थोड़ा दुरुह हो जाता है। कल अचानक यह ख्याल भी आया कि कहीं मेरा लेखन पाठकीय कसौटी पर खरा उतर रहा है या नहीं? एक हल्का सा अपराध बोध भी घर कर गया कि कहीं मैं यह सब जबरन लिख-पढ़वा तो नहीं रहा? खैर, यह सवाल मित्रों, परिचितों व शुभचिंतकों से साझे किए और जो जवाब आए उससे लगा मेरा ऐसा सोचना एकपक्षीय था और सही भी नहीं था।मुझे यह भी बताया गया कि लेखन सदैव स्वांत सुखाय होता है। वैसे तुलसीदास जी ने भी लिखा कि 'स्वांत: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा।' इसका सीधा-सा अर्थ है मैं अपने सुख के लिए कथा कर रहा हूं। भले ही उन्होंने अपने सुख के लिए रामचरित मानस की रचना की हो लेकिन दूसरों को भी सुख मिले इसके लिए भी तुलसी दास जी ने कोई कमी नहीं छोड़ी। खैर, सभी सुझावों-सलाहों को दृष्टिगत रखते हुए कोरोना पर निरंतर लिखना तय किया है।
हां तो बात मध्यम वर्ग की चल रही थी। इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार कीर्ति राणा ने मध्यम वर्ग के हालात पर एक बड़ा सा लेख लिखा है। उनके लेख की एक खास बात यह लगी कि उन्होंने मध्यम वर्ग की खुशहाली, उधार को बताया है और इसको उन्होंने उधार के सिंदूर की संज्ञा दी है। आप भी पढिए उनके लेख के कुछ चुनिंदा अंश:- 'कोरोना महामारी में सरकारों को निम्न वर्ग तंग बस्ती के रहवासियों की चिंता है। अमीर वर्ग अपने बंगलों में कैद रहते उकता जरूर गया है लेकिन आटे-दाल की चिंता से मुक्त है। कुल आबादी में 45 प्रतिशत मध्यम वर्ग है। कोरोना काल ने मध्यम वर्ग की हालत उधार के सिंदूर जैसी ही कर दी है। इस मध्यम वर्ग में वह नौकरीपेशा भी शामिल है,जिसकी पगार न्यूनतम 20 से 50 हजार मासिक है और वह व्यापारी भी शामिल है, जो हर माह इतने का व्यापार करता है। इस वर्ग की चुनौती यह है कि मकान बनाना या फ्लैट-गाड़ी-व्हीकल खरीदना हो, हर सपना पूरा करने के लिए बैंक लोन पर निर्भर रहना है। बच्चों के बेहतर एजुकेशन के लिए, पब्लिक स्कूल का खर्चा ,बाद की ऊंची पढ़ाई के लिए एजुकेशन लोन, अचानक बीमारी-दुर्घटना में महंगे इलाज में राहत के लिए इंश्योरेंस की किश्त, टीवी-फ्रिज आदि के लिए लोन यानी घर की खुशहाली का अखंड दीपक उधार के सिंदूर से ही रोशन रहता है।'
राणा आगे लिखते हैं, 'सरकार चाहे कांग्रेस की, जनता दल की रही हो या अभी भाजपा की, सर्वाधिक अमीर वर्ग इन सभी दलों के लिए दूध देती गाय रहा है, लिहाजा बजट में एक हाथ से सरकारें इनकी नाक दबाने का काम करती हैं तो दूसरा हाथ अदृश्य तरीके से इनके गाल सहलाता रहता है। यही कारण है कि बड़े लोग बैंकों से करोड़ों-अरबों का लोन लेकर या तो बड़ी आसानी से फरार होते रहे या 'विलफुल डिफाल्टर' के कोडवर्ड से सम्मानित होते रहते हैं। रही बात निम्न वर्ग की तो राज्य और केंद्र सरकार की शायद ही कोई ऐसी योजना हो जिसे लागू करते वक्त इनके हितों का ध्यान ना रखा जाता हो।जो सबसे अमीर है उसमें एक बड़ा वर्ग सफेदपोश चोट्टा होकर भी सम्मान पाता है और रहा निम्न वर्ग तो न उसे टैक्स चुकाना है, न पानी का बिल और न ही बिजली बिल। अब बचा मध्यम वर्ग जो हर सरकार के करों व अन्य वसूली के निशाने पर रहता है।' कीर्ति राणा की तरह ही जयपुर के वरिष्ठ पत्रकार डा.उरुक्रम शर्मा ने भी मध्यम वर्ग को लेकर बेबाक कलम चलाई। वो लिखते हैं, ' मिडिल क्लास के हालात को देखकर मन द्रवित होता है, रोता है। उसकी स्थिति दो पाटों के बीच पिसने जैसी है। वो जैसा दिखता है, वैसा होता नहीं। उसकी मुस्कुराहट नकली होती है, वो दिल से कभी नहीं हंस पाता है। उसकी आंखों से आंसू निकलना बंद हो गए। कहो तो सूख गए। इतनी सारी विपदाओं से घिरे होने के बाद भी वो जीने की कोशिश करता है, वो सब कुछ अपने परिवार को देने का पूरा प्रयास करता है, जो धनिक वर्ग को मिलती है। वो भी सपने देखता है, उसके सपनों में भी अच्छे दिन होते हैं, मगर हालात के बोझ तले दबा मिडिल क्लास मजबूर था और मजबूर है। सबसे ज्यादा कोरोना काल में किसी पर अटैक हुआ है तो मिडिल क्लास पर। वह इधर गिरे तो कुआं और उधर गिरे तो खाई।'
इससे बड़ी भी बात यह है कि मध्यम वर्ग समाचारों की दुनिया व चर्चाओं से गायब है। टीवी, समाचार पत्र व.सोशल मीडिया में मध्यम वर्ग की दशा व दिशा पर कोई बात नहीं है। देश की सियासत व मीडिया को सड़क पर चलते मजदूर तथा उनके पैरों में पड़े छाले ही ज्यादा दिखाए दे रहे हैं। मैं यह नहीं कहता कि इस मजदूरों को नजरअंदाज करना चाहिए लेकिन उनके चक्कर में मध्यम वर्ग के लिए आंखें मूंद लेना भी तो नाइंसाफी ही है।
क्रमश:

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