Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना- 21

बस यूं.ही

आइडियाज से याद आया कि आने वाला जमाना अब आइडियाज का ही होगा। जिसके पास बेहतर आइडिया होंगे वो सफल होगा। रोजगार का संकट वैश्विक हो चला है। अब कीमत मैन पावर की बजाय मशीन एवं आइडियाज की ही होगी। तकनीक के साथ जहां आडियाज का मिश्रण होगा, उसको ज्यादा महत्व दिया जाएगा। मेरे जयपुर के एक मित्र ने तो हालात को समझते हुए पहले से ही तैयारी शुरू कर दी थी। बाकायदा एक एप बना लिया है। घर बैठे सब्जी की सप्लाई कर रहे हैं। साथ में ऑफर भी दे रहे हैं। समय की नजाकत भी यही है। उद्योग धंधों को उबरने तथा रोजगार के अवसर सृजित होने में अभी वक्त लगेगा लेकिन पेट को तो रोज चाहिए। रोजगार नहीं भी मिलेगा तब भी पापी पेट को भरने का जुगाड़ तो करना होगा। खैर, सरकारी पैकेज पर नजर डालें तो 20 लाख करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज के दूसरे हिस्से के तहत आठ करोड़ प्रवासी मजदूरों को अगले दो महीने के लिए मुफ्त अनाज दिया जाएगा। एक व्यक्ति को महीने में पांच किलोग्राम गेहूं या चावल और एक किलोग्राम दाल मिलेगी। अगर किसी के पास राशन कार्ड नहीं है, तो उसे इस योजना से दूर नहीं किया जाएगा, उसे भी मुफ्त अनाज मिलेगा। प्रवासी मजदूरों की पहचान करने, उन्हें मुफ्त अनाज देने का काम राज्य सरकारें करेंगी। इस पर तीन हजार 500 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। यह राशि केंद्र सरकार देगी, जो प्रवासी मजदूर शहरों से पलायन करके गांव जा रहे हैं, उनके रोजगार का भी इंतजाम सरकार ने किया है। सरकारी आंकड़ों पर यकीन करें तो एक लाख 87 हजार गांवों में अब तक दो करोड़ 33 लाख लोगों के लिए मनरेगा के तहत काम का बंदोबस्त किया गया है। दैनिक मजदूरी को 182 रुपए से बढ़ाकर 202 रुपए कर दिया गया है। प्रवासी मजदूरों के रोजगार पर अब तक 10 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं। फिलहाल देश में मजदूरों के पलायन, उनकी बेबसी व लाचारी के साथ-साथ बड़ी चर्चा और जिज्ञासा इस बात की भी है कि लोकडाउन 4.0 में क्या होगा? किस तरह की छूट मिलेगी तथा किस तरह की पाबंदी होगी। लॉक डाउन के चौथे चरण को लेकर कयास भी लगने लगे हैं। कई तरह की संभावना जताई जाने लगी हैं। हां इधर सोशल मीडिया पर पैकेज को लेकर जबरदस्त बहस मची है। हमेशा की तरह समर्थकों एवं विरोधियों के अपने-अपने तर्क हैं। पिछले दिनों गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों के खाते में ढाई हजार रुपए आए थे। इसमें एक हजार एक बार तो 15 सौ एक बार आए। इसके अलावा कोरोना पीड़ित के क्वारंटीन होने का प्रतिदिन का खर्चा भी समाचार पत्रों में छपा था। जो कमोबेश 2500 के करीब ही था। अब सोचिए कहां तो एक दिन का खर्चा और कहां एक माह का। दरअसल यह जो भेद होता है ना वो ही बहस को जन्म देता है। विडम्बना देखिए महाराष्ट्र में रेलवे ट्रेक पर मालगाड़ी के चपेट में आने वाले प्रवासी श्रमिकों को जीते जी घर जाने का कोई साधन नसीब नहीं हुआ लेकिन मरने के बाद स्पेशल ट्रेन मयस्सर हो गई। इसी तरह से विदेशों से आने वालों को हवाई यात्रा तथा देश में रहने वालों को कोई साधन न मिलना असंतोष को जन्म देता है। यही असंतोष ही बहस की बुनियाद रखता है। समूचे देश में बहस जारी है। अब एक परिचित मित्र ने कल मजाक-मजाक में कहा, जनता को देने वाला काम था तब तक तो समाजसेवियों को आगे कर दिया लेकिन जब लेने की बारी आई तो सरकार खुद आगे आ गई। यह तो खैर, सर्वविदित है ही कि जनता का पैसा ही जनता पर लगता है। जनता से लेंगे तभी तो जनता पर खर्च करेंगे। और नहीं तो इसी बात पर भी जुमला तैयार हो गया, बानगी देखिए, 'देखा दारू का कमाल एक हफ्ते बिकने के बाद ही आर्थिक पैकेज देने लायक़ बना दिया सरकार को ।' इस तरह के जुमले संकट के समय में थोड़ा गुदगुदा जाते हैं, फ्री में तनाव कम कर जाते हैं, हालांकि यह सभी जानते हैं, जुमलों से न संकट दूर होता है न कोरोना भागेगा। हां भोगना जनता को ही है और वो भोग भी रही है। जाते-जाते आज का कथा सार जो कि आज ही व्हाट्सएप पर मिला। हालांकि यह पहले भी आता रहा है लेकिन अभी ज्यादा प्रासंगिक है, गौर करें, ' एक राजा ने भेड़ों से वादा किया कि वो हर भेड़ को एक-एक कम्बल देंगे। यह सुनकर भेड़ों का झुण्ड खुशी से झूम उठा। फिर एक मेमने ने धीरे से अपनी मां से पूछ लिया, ये राजा जी हमारे कम्बलों के लिए ऊन कहां से लाने वाले हैं ? सवाल पर फिर वही सन्नाटा पसर गया..!' सार का अर्थ आप समझते रहिए..मिलते हैं कल अगली कड़ी के साथ।
क्रमश:

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