Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना- 27

बस यूं.ही

देश का मजदूर आज मजबूर है। वह मुसीबत में फंसा हैं। हर साल की तरह इस बार भी मजदूर दिवस आया, लेकिन लॉकडाउन के चलते चुपचाप बीत गया। शौर भी होता तो मजदूरों की मुसीबत कौनसी कम होती। हर साल एक दिन मजदूरों को याद किया जाता है, उनकी महिमा गाई जाती है। फिर सब अपने-अपने काम लग जाते हैं । मौजूदा हालात में अदम गोंडवी की मजदूर पर लिखी एक रचना याद आती है।
'वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बंधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है ।'
बदले हालात में मजदूर बेकाम हो गया है। उसका रोजगार छिन गया है। लेकिन पैरों में बिवाई उसकी नियति है। अब हजारों किलोमीटर कदमों से नापने के बाद उसके पैरों में छाले हैं। देश में मजदूरों पर कितनी ही फिल्में बनी, कितनी ही कलमें चलीं लेकिन उनकी किस्मत कभी नहीं फिरी। उनका संघर्ष कभी खत्म नहीं हुआ। यह तो दिए और तूफान की लड़ाई है। यह समानता और असमानता का द्वंद्व है। यह अमीरी-गरीबी के भेद का झगड़ा है। यह सक्षम-समर्थ की मजबूर-लाचार से लड़ाई है। यह शोषित का पोषित से संघर्ष है। यह संघर्ष जन्म जन्मांतर का है। समय बदला, वैज्ञानिक युग आया। आदमी चांद पर जा पहुंचा लेकिन यह संघर्ष कभी खत्म नहीं हुआ। यह भूख और पेट का संघर्ष है। कोरोना काल में यह संघर्ष बड़ा हो गया है। मजदूर कहां रोए, किसके सामने रोए। कोई सुनने वाला भी नहीं है। सियासत को भी पैसों से प्यार है। वह अपना फायदा पहले देखती है। कंपनियों को राहत दी जा रही है लॉकडाउन में पूरा वेतन देने का सरकारी निर्देश भी वापस हो गया है। सियासी घटनाक्रम में मजदूर बेचारा फुटबाल बना हुआ है। मजूदरों के हितैषी बनने की नौटंकी हर स्तर पर जारी है। कल एक जगह पढ़ा था, ' किसी को लेने बस आई, किसी को लेने जहाज आया। मैं गरीब मजदूर था, मुझे लेने यमराज आया।' इसी तरह का एक गीत भी है ' जिसका कोई नहीं उसका खुदा है यारो, मैं नहीं कहता किताबों में लिखा है यारो।' वाकई मजदूर का तो भगवान ही मालिक है। जैसे पहले भी बताया था कि मजदूरों पर काफी लिखा गया है, लेकिन कोरोनाकाल में भी यह लेखन जारी है। हर मौके पर लिखा जा रहा है, बानगियां देखिए 'था गुरुर तुझे लम्बा होने पर एे सड़क, गरीब के हौसले ने तुझे पैदल ही नाप दिया।' नापे भी कैसे नहीं, मजदूर का हौसला तो पहाड़ जैसा होता है। किसी कवि ने लिखा भी है, ' मजदूर तुम्ही जादूगर हो, पत्थर के महल बना देते हो।' इतना संघर्षशील व्यक्तित्व होने के बावजूद मजदूर किसी का बुरा नहीं सोचता। देखिए किसी ने क्या खूब लिखा है, 'आज फिर वो मुझ पर एक कर्ज चढ़ा गया, वो गरीब कुछ न मिलने पर भी दुआ दे गया।' इसी तरह के मिजाज वाला एक फूल दो माली फिल्म का यह गीत भी है। 'भूखे गरीब की तो ये ही दुआ है, औलाद वालो फूलो फलो।' गांव में साइकिल पर करतब दिखाने वाले आते थे, तब लाउडस्पीकर पर यही गीत बजता था। रोज करतब देखने जाते। वह साइकिल पर सवार होकर नंगे बदन से टयूबलाइट तोड़ता और सारे दर्शक तालियां बजाते। बस तभी से यह गाना जेहन में कैद हो गया। इसी गाने की यह चार लाइन तो हम बच्चे तब अक्सर गुनगुनाते थे, हालांकि इन बोलों का मर्म बडे़ हुए तब जाना। बोल थे, 'कर दे मदद गरीब की, तेरा सुखी रहे संसार, बच्चों की किलकारी से गूंजे तेरा घर बार।' खैर, मुफलिसी में जीने वाले मजूदर को लेकर कवि रामधारीसिंह दिनकर ने अपनी एक कविता में लिखा है कि...'मैं मजदूर हूं मुझे देवों की बस्ती से क्या, अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाए, अम्बर पर जितने तारे उतने वर्षों से, मेरे पुरखों ने धरती का रूप संवारा।' मैं खुद को भी मजदूर मानते हुए किसी कवि की ही इन चंद पंक्तियों के साथ आज की पोस्ट को विराम देता हूं। यह पंक्तियां सच के करीब हैं, और एेसा लगता है, जैसे मौजूदा समय के लिए ही लिखी गई हों।
'हालात से मजबूर हैं सब
इस जिंदगी के मजदूर हैं सब
पास यहां सब जिस्मों से
जज्बातों से अब दूर हैं सब।'
क्रमश:

No comments:

Post a Comment