Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना-31

बस यूं ही

हां तो कल मध्यम वर्ग की बात महिलाओं की पोस्ट की वजह से बीच में छूट गई थी। तो आज बात मध्यम वर्ग की। जब से केन्द्र सरकार ने कोरोना के लिए देश में आर्थिक पैकेज की घोषणा की है। इसके बाद समूचे देश में बहस छिड़ गई है। एक तरह की प्रतिस्पर्धा भी हो चली है कि कोरोना की मार से प्रभावित ज्यादा कौन है। यह तो तय है कि कोरोना की मार से अछूता कोई नहीं बचा। कहीं नौकरियां चल गईं तो कहीं वेतन के लाले पड़ गए। काम धंधे सारे चौपट हो गए। हाथ के काम वाले भी बेकार हो गए। मध्यम वर्ग जो है वो सरकार का कमाऊ पूत भी है। सर्वाधिक करदाता भी इसी श्रेणी से आते हैं। सरकार बनाने, बिगाडऩे में भी मध्यम वर्ग का अहम योगदान होता है। कोरोना की मार से आहत तो सभी हैं लेकिन आर्थिक पैकेज के बाद मध्यम वर्ग का दर्द अब धीरे-धीरे बाहर आ रहा है। आर्थिक पैकेज से पहले दबे स्वर में यही आ रहा था कि मध्यम वर्ग गैरतमंद है, वह चलाकर न तो किसी के आगे हाथ फैलाता है और ना ही सरकार उसकी सुनती है। मध्यम वर्ग इसीलिए भी व्यथित है कि वह कहीं चर्चा में नहीं है, हालांकि कई पत्रकार साथियों ने भी मध्यम वर्ग के लिए कलम चलाई है। सोशल मीडिया पर भी कई ज्ञात-अज्ञात लेखक इस मुहिम को आगे से आगे बढ़ा रहे हैं। कल मुझे भी बीकानेर के एक परिचित ने मैसेज भेजा। उसमें मध्यम वर्ग का दर्द था, चूंकि मैं भी इसी श्रेणी का हूं, यह दर्द कुछ अपना सा लगा, लिहाजा साझा कर रहा हूं, गौर फरमाइए 'ऐसा लग रहा है कि देश में सिर्फ मजदूर ही रहते हैं, बाकी क्या भटे बघार रहे हैं। अब मजदूरों का रोना- धोना बंद कर दीजिए। मजदूर घर पहुंच गया तो उसके परिवार के पास मनरेगा का जाब कार्ड , राशन कार्ड होगा। सरकार मुफ्त में चावल व आटा दे रही है। जनधन खाते होंगे तो मुफ्त में ढाई हजार रुपए भी मिल गए होंगे और आगे भी मिलते रहेंगे। बहुत हो गया मजदूर- मजदूर अब जरा उसके बारे में सोचिए, जिसने लाखों रुपए का कर्ज लेकर प्राइवेट कालेज से इंजीनियरिंग किया था और अभी कम्पनी में पांच से आठ हजार की नौकरी लगा था ( मजदूरों को मिलने वाली मजदूरी से भी कम ), लेकिन मजबूरीवश अमीरों की तरह रहता था। (बचत शून्य है) जिसने अभी अभी नई-नई वकालत शुरू की थी। दो -चार साल तक वैसे भी कोई केस नहीं मिलता। दो -चार साल के बाद चार पाच हजार रुपए महीना मिलना शुरू होता है, लेकिन मजबूरी में वो भी अपनी गरीबी का प्रदर्शन नहीं कर पाता और चार छह साल के बाद जब थोड़ी कमाई बढ़ती है, दस पंद्रह हजार होती है तो भी..लोन-वोन लेकर कार- वार खरीदने की मजबूरी आ जाती है। (बड़ा आदमी दिखने की मजबूरी जो होती है।) अब कार की किस्त भी तो भरनी है। उसके बारे में भी सोचिए, जो सेल्समैन, एरिया मैनेजर का तमगा लिए घूमता था। बंदे को भले ही आठ हज़ार रुपए महीना मिले, लेकिन कभी अपनी गरीबी का प्रदर्शन नहीं किया। उनके बारे में भी सोचिए, जो बीमा एजेंट, सेल्स एजेंट बने मुस्कुराते हुए घूमते थे। आप कार की एजेंसी पहुंचे नहीं कि कार के लोन दिलाने से लेकर कार की डिलीवरी दिलाने तक के लिए मुस्कुराते हुए साफ -सुथरे कपड़ो में आपके सामने हाजिर। बदले में कुछ हजार रुपए लेकिन अपनी गरीबी का रोना नहीं रोता है। आत्म सम्मान के साथ रहता है।
मैंने संघर्ष करते वकील, इंजीनियर, पत्रकार, एजेंट, सेल्समेन, छोटे-मंझोले दुकान वाले, क्लर्क, बाबू, स्कूली माटसाब, धोबी, सलून वाले आदि देखे हैं अंदर भले ही चड्डी- बनियान फटी हो, मगर अपनी गरीबी का प्रदर्शन नहीं करते हैं।
और इनके पास न तो मुफ्त में चावल पाने वाला राशन कार्ड है न ही जनधन का खाता। यहां तक कि गैस की सब्सिडी भी छोड़ चुके है। ऊपर से मोटर साइकिल की किस्त या कार की किस्त ब्याज सहित देनी है। बच्चों की एक माह की फीस बिना स्कूल भेजे ही इतनी देनी है, जितने में दो लोगों का परिवार आराम से एक महीने खा सकता है। परंतु गरीबी का प्रदर्शन न करने की उसकी आदत ने उसे सरकारी स्कूल से लेकर सरकारी अस्पताल तक से दूर कर दिया है। ऐसे ही टाइपिस्ट, स्टेनो, रिसेप्सनिस्ट व ऑफिस बॉय जैसे लोगो का वर्ग है। अब ऐसा वर्ग क्या करे, वो तो फेसबुक पर बैठ कर अपना दर्द भी नहीं लिख सकता है (बड़ा आदमी दिखने की मजबूरी जो है। ) तो मजदूर की त्रासदी का विषय मुकाम पा गया है, मजदूरों की पीड़ा का नाम देकर ही अपनी पीड़ा व्यक्त कर रहा हूं। क्या हकीकत पता है आपको, आईएएस, पीएससी का सपना लेकर रात-रात भर जाग कर पढऩे वाला छात्र तो बहुत पहले ही दिल्ली व इंदौर से पैदल निकल लिया था। अपनी पहचान छिपाते हुए, मजदूरों के वेश में। क्यों वो अपनी गरीबी व मजबूरी की दुकान नहीं सजाता। काश! कि देश का मध्यम वर्ग ऐसा कर पाता' वाकई इस अज्ञात लेखक ने गागर में सागर भर दी है। मध्यम वर्ग का जो सजीव चित्रण किया है देखा जाए हकीकत यह भी है। पर पता नहीं यह जिम्मेदारों को, सियासतदानों को दिखाई क्यों नहीं देती है।
क्रमश

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