Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना-39

बस यूं.ही

वैसे सियासत काजल की कोठरी की तरह होती है। कोई लाख जतन करे कालिख लग ही जाती है। मां की एक कहावत याद आ रही है। बचपन में घर से बाहर चौक पर लड़कों के बीच बैठ जाता था तो मां पीछे-पीछे जाती है और खड़ा करके घर ले आती। मैं कहता कि मैं तो चुपचाप बैठा था। न किसी से लड़ाई कर रहा थ न किसी को गलत बोल रहा था। तब मां कहती बेटा भले ही तुम कुछ ना कहो या करो लेकिन काली हांडी के पास बैठने से कालस लगती है। तो राजनीति वो काली हांडी है, जिसके पास बैठने वाले को कालिख लगना तय है। सियासी दलों में लड़ाई विचारधारा की मानी जाती है लेकिन अब यह विचारधारा की मर्यादा को लांघ कर तू-तड़ाक एवं व्यक्तिगत गाली-गलौज तक आ पहुंची है। बात कोरोनाकाल में हो रही सियासत की हो रही थी। आप गंभीरता से कोरोनाकाल में लिए प्रत्येक सरकारी फैसलों का अध्ययन करेंगे तो आपको कहीं न कहीं सियासी तड़का लगा दिखाई दे ही जाएगा। तबलीगी जमात को लेकर भी खूब सियासत हुई। संक्रमण के आंकड़ों में तबलीगी जमात के कॉलम को हटाने के पीछे भी लोग सियासी दिमाग ही मान रहे हैं। इतना ही नहीं अब तबलीगी जमात जैसा ही प्रयोग प्रवासी श्रमिकों के लिए किए जाने की वकालत होने लगी है। खैर, और कहीं न जाएं,  आपको कोरोना संक्रमितों की संख्या के आधार पर बनाए गए लाल, पीले एवं हरे जोन तो याद ही होंगे। सियासत करने वालों ने तो इन रंगों को भी नहीं बख्शा। इन रंगों को भी धर्म से जोड़ दिया गया। जिस तरह से गाय व बकरे को संप्रदाय से जोड़ा गया, ठीक उसी तर्ज पर जोन के रंगों को जोड़ा गया।

सियासत का चेहरा बड़ा अजीब, रहस्यमयी एवं तिलिस्मी होता है। मां की एक बात फिर याद आ रही है। वो कहती थी ' त्रिया चरित्र कोई नहीं जाणै, खसम मार सती हो जाणै।' इस हरियाणवी कहावत का अर्थ है कि स्त्री को समझना आसान नहीं होता। वह पति की हत्या करके सती भी हो सकती है। यकीनन लोकोक्तियां एवं कहावतें किसी न किसी अनुभव या घटना के आधार पर बनती रही हैं। अतीत में एेसा कोई घटनाक्रम या अनुभव रहा होगा, जिस पर यह कहावत बनी।  यह कहावत भले ही मौजूदा समय में महिलाओं पर सटीक न बैठे लेकिन सियासत पर फिट जरूर बैठती है। वह शेर भी है ना, अर्ज किया है,

'सियासत इस कदर अवाम पे अहसान करती है,

आंखें छीन लेती है फिर चश्मे दान करती है।'

सच में सियासत के दोहरे चरित्र को समझना देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकाता को देखना या पढने जैसा ही है। बचपन में इस धारावाहिक को रोज देखता पर आगे से आगे कड़ी में कड़ी इस कदर उलझती हुई मिलती है कि आगे का देखता तो पिछला भूल जाता। यह सियासत भी तो वैसे ही है। जब कोई मसला आता है, जनता मुखर होती है तो उसके समकक्ष कोई दूसरा मसला और खड़ा कर दिया जाता है। जनता फिर नए मुद्दे में इस कदर उलझती है कि पुराने वाला मुददा पता नहीं कहां गायब हो जाता है। यह तो मुआ कोरोना है। अभी देश-दुनिया में हिट है, इस पर तो राजनीति होनी ही थी, वरना सियासत तो किसी को नहीं बख्शती। कभी फिल्मों के नाम पर राजनीति तो कभी पानी के नाम पर। कभी देशभक्ति के नाम पर तो कभी विकास के नाम पर। और तो और शवों पर भी सियासत करके सत्ता के सौपान तय कर लिए जाते हैं। भावना में बही जनता सियासत का यह चरित्र समझ कहां पाती है। सियासी मोहरे एेसे मौकों की अक्सर तलाश में रहते हैं। नईम जज्बी फरमाते हैं,

'कच्चे मकान जिनके जले थे फसाद में

अफसोस उनका नाम ही बलवाइयों में था।'   

एेसा ही तो हो रहा है आजकल। इसी शेर से मिलता-जुलता एक शेर और है, सुदर्शन फाकिर फरमाते हैं, गौर फरमाइए:-

'मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ  है,

क्या मेरे हक में फैसला देगा।'

खैर, धर्म और अपराध तो सियासत के खास हथियार हैं। यह एेसे ब्रह्मशस्त्र हैं, जो मुफीद मौका देखकर इस्तेमाल किए जाते हैं। वैसे भी सियासत जो दिखाई देती है, वैसी है नहीं। पर्दे के पीछे इसका दूसरा चेहरा है। पिछली एक पोस्ट पर प्रतिक्रिया स्वरूप भाईसाहब ने कहा, आजकल विपक्ष भी विपक्ष न होकर एेसे पेश आता है जैसे दुश्मन हो। वाकई  यह बात सच है। हालात कई बार तो इतने गंभीर हो उठते हैं कि अगर पक्ष-विपक्ष का आमना-सामना हो जाए तो जूतमपैजार जैसे हालात बनते देर नहीं लगती।  प्रवासी मजदूरों के पलायन पर तो सियासत की भूमिका और दखल तो सभी ने देखा। यह अलग बात है कि समर्थक भी अपने सियासी दलों की खेमाबंदी में शामिल होकर, सच- झूठ का आकलन किए बिना बस उनकी हां में हां मिलाते रहते हैं। वाकई राजनीति के रंग समझना बड़ी टेढ़ी खीर है। फिर भी इसका आभामंडल एेसा है कि हर दूसरा-तीसरा आदमी सियासत का मुरीद निकलेगा। किसी चौपाल या नुक्कड़ पर आप किसी समस्या की बजाय किसी दल की चर्चा छेड़ कर देखिए। एक से बढ़कर एक विशेषज्ञों की जमात जमा हो जाएगा। कोई बड़ी बात नहीं अपने तर्कों, कुतर्कों एवं दलीलों से वो आपको निरुत्तर भी कर दे। सोशल मीडिया भी आधुनिक जमाने की एक तरह की चौपाल या नुक्कड़ ही तो है। खुद को चैक करना है तो किसी भी दल के समर्थन या विरोध में कोई पोस्ट लिखकर आप परिणाम जान सकते हैं। कोई बड़ी बात नहीं, आपका एेसे सियासी विशेषज्ञों से वास्ता पड़ भी चुका होगा। खैर, 'ईश्वर-अल्लाह तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान, सारा जग तेरी संतान। भजन  का स्मरण करते हुए सियासत के प्रति इतना तल्ख लिखने के लिए खेद जताते हुए  इस पोस्ट को यहीं विराम देता हूं। अगली पोस्ट सियासत से अलग किसी दूसरे विषय पर।

क्रमश:

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