Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना- 20

बस यूं.ही

गांव की चर्चा हो रही थी। सभी गांवों की ओर आ रहे हैं। पेट के लिए छूटा गांव अब अंतिम सहारे के रूप में नजर आ रहा है। सड़कों पर भीड़ कम नहीं हो रही है। वैसे लॉकडाउन में छूट बढ़ने के साथ अब सड़कों एवं बाजारों पर थोड़ी चहल-पहल भी नजर आने लगी हैं। लेकिन एक बात समझ नहीं आई। जैसे-जैसे छूट बढ़ रही है, संक्रमितों का आंकडा भी बढ़ रहा है। याद करें 21 मार्च को देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या मात्र 283 थी। और आज यह पोस्ट लिख रहा हूं तब संक्रमितों का आंकड़ा 74 हजार 281 तक पहुंच गया है। मृतकों की संख्या भी देश में 2415 हो गई है। मतलब साफ है कि बीते इन 55 दिनों में संक्रमितों की संख्या 74 हजार बढ़ी है। यह भी तथ्य है कि जिस दिन अकेले राजस्थान में संक्रमितों का आंकड़ा दो सौ पार हुआ, उस दिन लॉकडाउन में कई तरह की छूट भी मिली। मेरे तो यह समझ नहीं आया कि सरकारी स्तर पर यह विरोधाभास क्यों हैं? सवाल भी यही है कि लॉकडाउन से संक्रमण कितना रुका? छूट देने के बाद संक्रमण कितना बढ़ा या कम हुआ या फिर यथावत रहा। वैसे कहा जा चुका है कि कोरोना का अभी पूर्ण उन्मूलन संभव नहीं है, लिहाजा अब सावधानी और सतर्कता के साथ ही जीना होगा। कोई बड़ी बात नहीं सरकारें कल को कुछ नियमों व सावधानी बरतने की बात कहकर सब कुछ जनता के हवाले कर दे। अपने सामान की रक्षा स्वयं करें की तर्ज पर अपनी जान की सुरक्षा स्वयं करें की मुनादी करवा दे। दो माह के करीब समय हो गया। क्या सावधानी बरतनी है, कैसे जीना है और कैसे रहना है, यह सब के समझ मे आ गया होगा। सीधी सी बात है कि अपनी सुरक्षा आगे से अपने ही हाथ होगी। जैसे लॉकडाउन में छूट मिल रही है, लोगों की स्वच्छंदता भी बढ़ रही है जो कि चिंताजनक है। अनुशासन के साथ जीने की आदत डालनी होगी। पूर्ण लॉकडाउन के समय ही चुप न बैठने वाले आभासी दुनिया के सूरमा अब तो पूरी फॉर्म में हैं। जैसे क्रिकेट खिलाड़ी जब फॉर्म में होता है तब उसको रोक पाना किसी के लिए संभव नहीं होता, वैसे ही आभासी दुनिया के सूरमा अब खूब चौके छक्के चगा रहे हैं। कई बातें तो जीवन के एकदम करीब सी लगती भी हैं। बानगी देखिए ' लॉकडाउन में कोई सड़क पर नहीं आया पर हकीकत में घर बैठे ही कई लोग सड़क पर आ गए हैं।' वैसे सडक पर लोग दोनों तरह से है। आर्थिक रूप से भी और पलायन के दृष्टिकोण से भी। एक बड़ी समस्या और भी है। आज ही समाचार पत्रों में छपा, करोड़ों युवा बेरोजगार हो गए हैं। महामारी के बीच बेरोजगारी बढ़ने से भुखमरी बढ़ने की प्रबल आशंका है। देश के विभिन्न हिस्सों से एेसे उदाहरण सामने आने भी लगे हैं। कई सकारात्मक कामों के बीच यह बेरोजगारी व भुखमरी वाले हालात सब पर पानी फेर देते हैं। फिर भी आभासी दुनिया वाला तबका बेफिक्र होकर अपने काम में लगा है। अब यह मैसेज देखो, आज ही आया। सच है या नहीं पर इस दिशा में सोचा तो जा सकता है। और अगर एेसा है तो यह अपने आप में बड़ा सवाल भी है। मैसेज है, ' लॉकडाउन में एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया। 90 प्रतिशत औरतों की डिलीवरी सामान्य ढंग से हुई जबकि सामान्य दिनों में 90 प्रतिशत डिलीवरी सिजेरियन होती है। बाकी छोटी मोटी बीमारियां तो गायब ही हो गई।' छोटी मोटी बीमारियां तो वाकई कम हुई है। अस्पतालों की आेपीडी तक बंद कर दी गई। फकत कोरोना के कारण अन्य मरीजों को नजरअंदाज किया गया। भगवान की दया से घर में कोई बीमार नहीं हुआ लेकिन हार्टपैशेंट सासूजी का इस अंतराल में पहले दिन रक्तचाप बढ़ा और दूसरे दिन शुगर का स्तर कम हुआ तो वो अचेत हो गए। तीन अस्पतालों में लेकर गए लेकिन कहीं भर्ती नहीं किया गया। आखिर एम्स में लेकर गए। वहां कुछ राशि पहले जमा करवाई तब जाकर उनको एडमिट किया गया। सोचिए यही तकलीफ किसी गरीब को होती तो?
खैर, हास-परिहास के बीच आज गंभीरता घर कर गई, लिहाजा एक दो जुमलों से थोड़ा सहज हो जाइए। गौर फरमाइए, 'जंवाई पत्नी को लेने ससुराल गया और लॉकडाउन के कारण वही फंस गया। पहले दिन सासूजी ने सांगरी की सब्जी बनाई। दूसरे दिन सांगरी-प्याज की सब्जी बनाई। तीसरे दिन सांगरी-केर की सब्जी बनाई। चौथे दिन सांगरी-मिर्च की सब्जी बनाई। पांचवें दिन सांगरी- कुम्भटा की सब्जी बनाई। छठे दिन सांगरी का आचार बनाया। सातवें दिन सासूजी ने पूछा आज क्या बनाऊं, तो दामाद बोला आप तो मुझे सांगरी वाली खेजड़ी दिखा दो में वही चर आऊंगा।' जुमलों के बीच एक बात और याद आ गई। कल एफबी पर एक वीडियो देख रहा था। वीडियो कान्फ्रेंस में एक विधायक जी अपने सुझाव मुख्यमंत्री जी को बता रहे थे। बात पास को लेकर चली। गाड़ी में सवारियों की संख्या बढ़ाने पर भी चली। इसके बाद बाद विधायक जी ने सोशल डिस्टेंसिंग को फिजीकल डिस्टेंसिंग कहने का सुझाव भी रखा, हालांकि मुख्यमंत्रीजी ने उनके सुझाव को नकार दिया। विधायक जी के इस सुझाव पर दिमाग मैने भी लगाया। मोटा-मोटा अपनी समझ में आया कि सोशल का मतलब सामाजिक तथा फिजीकल मतलब शारीरिक। मतलब विधायक जी का सुझाव मान लिया जाए तो पहले से ही घर में कैद आदमी न तो अपने बच्चों को खिला सके और ना ही प्यार दुलार कर सके। इतना ही नहीं संकट के इस दौर में सुख- दुख की बतियाने के लिए अपनी बीवी के पास भी न जा सके। मुझे समझ नहीं आया इतने नायाब और अनूठे आइडियाज लोगों के दिमाग में आते कैसे हैं। शायद घर बैठे-बैठे नेता लोग सोचने ज्यादा लगे हैं।
क्रमश:

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