Monday, August 17, 2020

याद आया गांव

बस यूं.ही

'गौरी तेरा गांव बड़ा प्यारा, मैं तो गया मारा आके यहां रे...' चितचोर फिल्म के इस गीत वाले गांव का तो मुझे पता नहीं कैसा होगा लेकिन मुझे मेरा गांव बड़ा प्यारा लगता है। बहुत से गांव देखे। तीन चार राज्यों में भी घूमा लेकिन गांव जैसा सुकून कहीं नहीं मिलता। शहर के बंद कमरों में एसी व कूलर की हवा में कट रही जिंदगी से लाख गुना वो नीम की छांव भली थी। भरी दुपहरी में नीम के पेड़ के नीचे चारपाई पर डालकर सोने के आनंद की अनुभूति तो बस पूछिए ही मत। बचपन से लेकर जवां होने तक का सफर गांव की गलियों में ही बीता। चौबीस साल गांव में बिताने के बाद शहर की ओर रुख किया था। भला कोई खुशी-खुशी गांव छोड़ता है? शायद नहीं। आरिफ शफीक का यह शेर वाकई काफी कुछ कह जाता है।
'जो मेरे गांव के खेतों में भूख उगने लगी, मेरे किसानों ने शहरों में नौकरी कर ली ।' सच में भूख मतलब पेट के लिए गांव छोडऩा मजबूरी है। मेरी ही नहीं उन तमाम लोगों की भी जिनका गांव में जीविकोपार्जन का कोई साधन नहीं है या फिर मेहनत के अनुपात में प्रतिफल नहीं मिलता है। बीस साल से पत्रकारिता के चलते गांव से दूर हूं लेकिन गांव से जुड़ाव लगातार रहा। हर माह गांव जाने की आदत रही है। मुझे याद है पत्रकारिता के शुरुआती समय में.हर माह गांव जाने की इस आदत से झुंझलाकर मेरे तत्कालीन संपादक ने यहां तक कह दिया था 'यार शेखावत, अखबार छापने की एक मशीन आपके गांव में भी लगवा देते हैं। इससे हर माह आने-जाने का झंझट की खत्म हो जाएगा।' और मैं उनकी बात सुनकर मुस्कुरा दिया करता था। वक्त गुजरा, जिम्मेदारियां बढ़ी। राजस्थान से दूसरे प्रदेश भी गया लेकिन कभी तीन माह से ज्यादा गांव से दूर नहीं रहा। 2014 के बाद तो परिजनों को साथ ले आया वरना इससे पहले अधिकतर बार होली-दिवाली गांव में ही मनाई। आज गांव का अचानक ख्याल आया। याद आया कि गांव गए हुए तो छह माह हो गए। काम की आपाधापी एवं भागदौड़ में गांव याद ही नहीं रहा। पिछले साल 11 दिसम्बर को गांव से श्रीगंगानगर लौटा था। बीस दिन ही बीते होंगे कि जोधपुर तबादला हो गया। जोधपुर में नया काम था, लिहाजा व्यस्तता ज्यादा रही। इतनी कि पिताजी एवं बच्चे श्रीगंगागनर से जोधपुर अकेले ही आए। इसके बाद मार्च में अचानक कोरोना के चलते लॉकडाउन लग गया और मेरा गांव तो क्या आफिस जाना भी दुभर हो गया। जीवन में एेसा पहली बार हुआ जो छह माह से गांव से दूर हूं। व्यस्तता का अंदाजा इसी से लगा लीजिए कि पिछले छह माह में मात्र दो ही अवकाश लिए हैं। खैर, मेरा गांव से प्रेम कोई दिखावा नहीं है। सच्चाई तो यह है कि मैं हमेशा गांव आने की वजह तलाशता रहता हूं। बस थोड़ा सा बहाना चाहिए। किसी शायर ने तो यहां तक कह दिया कि 'सुना है उसने खरीद लिया है करोड़ों का घर शहर में, मगर आंगन दिखाने आज भी वो बच्चों को गांव लाता है । ' पर हकीकत यह है कि शहर में अपना कोई घर नहीं है। और जो है वह किराये का है, लिहाजा गांव का आंगन ही अपना है। बच्चों का है। मेरा गांव ही मेरा देश है। मेरा गांव सदा आबाद रहे। जय जननी जय जन्म भूमि ..।

No comments:

Post a Comment