Monday, August 17, 2020

मुआ कोरोना-40

बस यूं.ही

कोरोना पर बारहवीं कड़ी में मैंने बीकानेर के शिक्षक मित्र के आग्रह पर उनकी बात का समर्थन करते हुए लिखा था कि कोरोना काल में एक शिक्षक की भूमिका भी महत्वपूर्ण है लेकिन वो नींव का पत्थर बना हुआ है। उसके काम का, उसकी मजबूरी का, उसकी परेशानी का कहीं जिक्र नहीं है। पोस्ट लिखने के बाद मित्र का खुश होना स्वाभाविक था। हो सकता है, उनकी जमात से जुड़े शिक्षकों को भी खुशी हुई हो, क्योंकि वह दर्द इकलौता उनका न होकर कोरोना ड्यूटी में लगे तमाम शिक्षकों का था। वैसे आपको बता दूं कि जीवन में मैंने हमेशा दो वर्गों को सर्वाधिक सम्मान दिया है। इसके पीछे कई तरह के कारण व अनुभव शामिल हैं। पहला वर्ग शिक्षक तो दूसरा सैनिक। हालांकि इन दोनों वर्गों को लेकर कई तरह के खट्टे मीठे अनुभव भी रहे हैं, फिर भी मान-सम्मान व श्रद्धा में कभी कोई कमी नहीं आई। अभी ताजा मामला भी एक मित्र अध्यापक का ही है। लंबे समय से उनको अवकाश नहीं मिल रहा था। न अध्यापन करवा पा रहे थे न कोई ड्यूटी। बस घर से दूर सरकारी फरमान के इंतजार में फंसे बैठे थे। न सरकार का कोई फरमान आया न लॉकडाउन में घर जाने का कोई साधन मिला। हालांकि बात सप्ताह भर पुरानी हो चुकी है, इसी बीच वो घर चले गए। अवकाश मिला या नहीं यह जानकारी मुझे नहीं दी। दरअसल बात यह थी कि उन्होंने किसी अध्यापक की लिखी एक कविता मुझे भेजी। उसमें भी अध्यापकों की पीड़ा थी और यह पीड़ा थी सरकार से। चूंकि पीड़ा को कविता रूप में देखने के बाद मैं उसको साझा करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। हो सकता है आपको भी पसंद आए। इसका शीर्षक है ड्यूटी पर लगे शिक्षक की सरकार से पुकार। पेश है: -
'मुख्यालय पर रुके शिक्षक गुनहगार हो गए,
जो छोड़ गए वो सरकार के पनाहगार हो गए।
बिना अनुमति के गए वो कर रहे हैं मजा,
नियम पालना में रहे वो पा रहे हैं सजा।
प्रवासी मजदूर लाने का तो कर दिया इंतजाम,
शिक्षकों में ले जाने में रेड जोन का कैसे आया नाम।
संख्या बल देखकर वोट बैंक याद आ गया,
कार्रवाई न करने का आदेश तुरंत ही आ गया।
दो चार हजार होते तो नोटिस आ जाते,
कई निलंबित होते, कइयों के वेतन रुक जाते।
रोटेशन आदेश की नहीं हो रही है पालना,
मनमर्जी चल रही है लगा रहे हैं छालना।
ऑफिस के बाबू से जिनकी है सांठगांठ
मुख्यालय पर उपस्थिति, पर घर पे कर रहे ठाठ
हम कर्तव्य विमुख नहीं पर दोहरा बर्ताव क्यों,
जो रसूखदार हैं, उनके प्रति ये वफादारी क्यों।
ड्यूटी आने पर भी उनके तुरंत नाम कट जाते हैं,
कर चुके दिनों तक ड्यूटी वही नाम आ जाते हैं।
कर्तव्यपरायणता व आदर्शों का पढाते थे पाठ,
वो आने की पहल क्यों नहीं करते, जो रहे हैं बाट।
कोसों दूर गया मजदूर जब घर वापस आ सकता है,
तो फिर शिक्षक के आने में किस बात की विवशता है।
रोटेशन आदेश की अधिकारी करें सख्ती से पालना,
रसूखदार हो या शिक्षक नेता, पर उसे भी न टालना।
आपात आपदा व महामारी में भी भाई-भतीजावाद क्यों,
ईमानदारी से लगाओ ड्यूटी, व्यर्थ का विवाद क्यों।
कर ली बहुत दिनों तक ड्यूटी, हमें भी छुट्टी चाहिए,
मात-पिता, बीवी-बच्चों से मिलने का हक हमें भी चाहिए।'
अब जरा सा उस अध्यापक मित्र से हुआ वार्तालाप भी जान लीजिए, जिस दिन यह कविता भेजी थी, उसी दिन उन्होंने यह भी कहा था कि, जो टीचर्स मुख्यालय छोड़कर चले गए थे, उनका सरकार ने साथ दिया और जो ईमानदारी से मुख्यालय पर थे, उनके साथ अन्याय हुआ। जो अभी यहां हैं वो तो पहले ड्यूटी करो, अगर नंबर आता है तो, और नहीं आता है तो भी यहीं रहो। बाकी जो घर आराम कर रहे हैं, उनकी ड्यूटी बाद में लगाओ। यह सब उन्होंने मुझे बिना पूछे ही बताया था। हां अपने घर जाने के बाद तो उन्होंने कुछ भी नहीं बताया। वैसे भी घर जाने के बाद पीड़ा किसे याद रहती है। कहा जाता है एकांकी आदमी नकारात्मक हो जाता है, जहान भर की पीड़ाएं उसके इर्द-गिर्द रहती हैं, उसको घेर लेती हैं लेकिन जब वह अपनों के बीच जाता है तो सारी पीड़ाएं दूर हो जाती हैं। तमाम समस्याओं, शंकाओं को समाधान स्वत: हो जाता है। अध्यापक मित्र के साथ भी शायद एेसा ही हुआ। मुसीबत दूर न होती तो शायद फिर याद करते। खैर, इस संकट के मौसम में वो अपनों के बीच हैं मुझे तो खुशी इसी बात की है। हां इस वाकये पर एक गाना जरूर याद आ रहा है, 'किससे शिकायत करूं शरारत मेरे साथ हुई...'
क्रमश:

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