Monday, August 17, 2020

मजबूर मजदूर!

टिप्पणी
दो जून रोटी की तलाश में अपने घर-परिवार को छोड़कर बाहर कमाने निकले लोगों की हालत आसमान से गिरकर खजूर में अटकने जैसी हो गई है। कोरोना के चलते समूचे देश में काम धंधे बंद होने से बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिक अपने घर लौटना चाहते हैं। लेकिन, नियमों के फेर ऐसे हैं कि उनके लिए आसानी से न घर जाते बन रहा है और न ही वो वापस काम वाली जगह लौट पा रहे हैं। लॉकडाउन के करीब डेढ़ माह बाद प्रवासी श्रमिकों को घर पहुंचाने के फैसले के बाद समूचे देश में अफरा-तफरी का माहौल है। देर से लिए गए इस फैसले से प्रवासी श्रमिकों को दोराहे पर खड़ा कर दिया है। विशेषकर राजस्थान की अन्य राज्यों से लगती सीमाओं पर कड़ी चौकसी के चलते हजारों प्रवासी श्रमिक अटके हुए हैं। राजस्थान से अन्य राज्यों में जाने वाले प्रवासी श्रमिक भी कमोबेश इसी तरह फुटबॉल बने हुए हैं। सवाल यही है कि ऐसे प्रतिकूल माहौल में श्रमिकों को घर भिजवाने का निर्णय क्या सही है? क्या अपने मूल निवास जाकर वो सुरक्षित हो जाएंगे या रह पाएंगे? और अगर अपने मूल निवास जाने से ही वो सुरक्षित होते हैं तो यह निर्णय इतनी देर से क्यों? ऐसे बहुत से सवाल हैं, जो जिम्मेदारों को कठघरे में खड़ा करते हैं। रोजगार के अवसर बंद होने से प्रवासी श्रमिक वैसे ही अग्निपरीक्षा से गुजर रहे हैं। रही सही कसर उनके दर-बदर करने के सियासी फैसलों ने कर दी। कभी बस तो कभी ट्रेन के फेर में प्रवासी श्रमिक ऐसे फंसे कि न इधर के रहे न उधर के। कुछ किराये के साधनों से तो कुछ पैदल ही अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। इनमें से कुछ ऐसे 'भाग्यशाली भी हैं, जो तमाम औपचारिकता पूर्ण करने के बाद अपने मूल निवास लौट आए लेकिन चैन से वो भी नहीं रह पा रहे हैं। अपनों के बीच ही बेगानों जैसी हालात है उनकी। अपनों की संदेह व आशंका भरी नजरें तथा आस-पडोस के लोगों से दूरी अभी उनके दुख को कम नहीं कर सकती। माना कोरोना के कारण आज श्रमिक इधर कुआं ऊधर खाई वाले हालात से गुजर रहा है। फिर भी शासन-प्रशासन संबंधी कुछ पेचिदगियों से उसको मुक्त कर राहत दी जा सकती है। हालात के मारे मजूदरों को कुछ तो मदद चाहिए। चुनावी मौसम में सियासी दलों की गुड बुक में रहने वाले प्रवासी श्रमिक आज फुटबॉल क्यों बने हैं या बना दिए गए हैं, यह यक्ष प्रश्न हैं। जिम्मेदारों को इस दिशा में सोचना होगा। क्योंकि ...
'किसी का मसीहा और किसी की जान होता है,

मजदूर मजदूर होने से पहले एक इंसान होता है।' 

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर, बीकानेर व बाडमेर संस्करण में 10 मई 20 के अंक में.प्रकाशित।

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