Monday, August 17, 2020

स्कूल के दिन : गुरुजन एवं सहपाठी

अतीत की यादें-1
कल आठवीं कक्षा का एक फोटो एफबी पर लगाया। उसी फोटो से ख्याल आया कि क्यों न उस दौर के सहपाठियों एवं गुरुजनों के बारे में भी कुछ लिखा जाए। चूंकि याददाश्त के मामले में खुशकिस्मत हूं, इसलिए स्कूली जीवन की लगभग घटनाएं याद हैं। पापाजी तब एफसीआई अजमेर में नौकरी करते थे और बड़े भाईसाहब केशरसिंह जी उनके साथ अजमेर ही रहते और वहीं पढ़ते। पीछे गांव में दादी, मां, बहन संतोष कंवर एवं बीच वाले भाईसाहब सत्यवीरसिंह जी रहते थे। बचपन से ही मैं चंचल स्वभाव का था, दिन भर घर में धमाचौकड़ी मचाए रखता। शर्म शंका तो बिलकुल भी नहीं करता। अपनी उदंडता के चलते दादी एवं मां से खूब डांट खाता। यह बात सन 1981 के आसपास की है। पापाजी हर माह छुट्टी आते थे। जुलाई में छुट्टी आए तो दादी एवं मां ने उनसे एक स्वर में कहा कि महेन्द्र बड़ा हो गया है, उसको स्कूल में दाखिला दिलवा दो। पिताजी मुझे लेकर स्कूल गए तो अध्यापक ने प्रवेश पत्र भरवाया तो पापा ने मेरी वास्तविक जन्मतिथि 18 अक्टूबर 1976 बताई। इस पर अध्यापक ने यह कहते हुए प्रवेश आवेदन निरस्त कर दिया गया कि बच्चे की आयु अभी छह साल की नहीं हुई है। यह तो अभी साढ़े चार साल का ही हुआ है। चूंकि दादी एवं मां का आदेश था तो पापाजी ने अध्यापक से कहा कि ठीक है आप छह साल लिख दीजिए लेकिन इसको भर्ती कर लो। और इस तरह डेढ़ साल बढ़ाकर मेरी जन्मतिथि आठ जुलाई 1975 लिख दी गई। स्कूल में प्रवेश से पहले कुछ दिन मैं एक मैडम के पास भी पढऩे गया था। वो मैडम उस वक्त रामेश्वर जी मीणा के मकानों में रहा करती थी। उस वक्त बच्चे मैडम न कहकर बहनजी पुकारते थे। खैर, बहनजी के यहां कुछ दिन जाने के बाद ही स्कूल जाने लगा। पहली कक्षा का कमरा कोने में था न नीचे फर्श था न ऊपर पट्टी थी। हम बच्चे धूल में खूब धमाचौकड़ी मचाते। मिट्टी का बड़ा सा ढेर बना लेते और अपना बरता (स्लेट जिसे हम पट्टी कहते थे, उस पर लिखने के लिए उपयोग में लिया था। चॉक की प्रजाति का लेकिन चॉक से टाइट और बेहद पतला होता है। ) उस मिट्टी के ढेर में छिपा देते। बाद में सारे ढेर के मिट्टी को समतल करते हुए अपने-अपने बरते तलाशते। उस वक्त बरते खोते भी ज्यादा थे। हमारे इस खेल में पहले के खोए हुए बरते भी हमको मिल जाते हैं। जिसको ज्यादा बरते मिल जाते उसके चेहरे पर अलग तरह की विजयी मुस्कान होती थी। उस वक्त स्कूल में केवल पट्टी एवं बरता लेकर ही जाते थे। यह बात अलग है कि गांव की पहली कक्षा में मेरा जाना कुछ समय के लिए हुआ और बाद में जिद करके मैं पापाजी के साथ अजमेर चला गया। वहां पास ही एक सरकारी स्कूल था, मैं ऑफ द रिकॉर्ड उसमें जाने लगा लेकिन इधर पिताजी मेरी गतिविधियों पर बराबर नजर रखे हुए थे। उन्होंने एक दिन बडे़ भाईसाहब से मुझे ककहरा एवं बारहखड़ी सिखाने का कहा। भाईसाहब ने प्रयास भी किए लेकिन बात बनी नहीं। इतना ही नहीं उन्होंने पापाजी को यहां तक कह दिया था कि यह कभी नहीं सीख सकता। खैर, उस वक्त पिताजी मेरे पास बैठे और पहले उन्होंने क ख ग घ ड़ सिखाए। उसके बाद बारहखड़ी भी सिखाई। मुझे याद है ककहरा एवं बारहखड़ी मैंने एक ही दिन में सीखे थे। - क्रमश:

समानताओं का संयोग

बस यूं ही

डेढ़ दशक से ज्यादा समय से करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाले क्रिकेटर महेन्द्रसिंह धोनी ने कल स्वाधीनता दिवस के दिन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास लेने की घोषणा कर दी। विश्व कप में न्यूजीलैंड से हार के बाद धोनी की क्रिकेट से दूरी से उनके संन्यास के कयास लगने शुरू हो गए थे। निसंदेह धोनी के प्रशंसकों में मैं भी शामिल हूं। उनके खेल के साथ-साथ हमनाम होने के कारण भी। यह अलग बात है कि जब धोनी भारतीय क्रिकेट टीम का हिस्सा बने थे, उससे ठीक पांच साल पहले मैंने नियमित क्रिकेट खेलना छोड़ दिया था। फिर भी कुछ समानताएं दिखाई दी, जिनके वजह से मैं धोनी का मुरीद होता गया। समानताओं के इन संयोगों के बारे में बहुत बार सोचा है लेकिन आज लिखने का मन किया। तो सबसे पहले चर्चा नाम ही करते हैं, दोनों ही महेन्द्रसिंह। धोनी का सरनेम धोनी और मेरा शेखावत। संयोग देखिए बचपन में बड़े भाईसाहब मुझे धानम नाम से पुकारते थे। सेना से जुडऩे का सपना मैंने भी देखा, दो तीन बार कोशिश भी की लेकिन नहीं जा पाया। इसी तरह से धोनी का सपना भी सेना थी। क्रिकेट में लोकप्रिय होने के बाद धोनी का सपना पूरा हो गया। उनको सेना में मानद लेफ्टिनेंट कर्नल की उपाधि से नवाजा गया। बात क्रिकेट की करें तो विकेटकीपिंग एवं कप्तानी के मामले में भी संयोग जुड़े है। कॉलेज टीम और गांव की टीम की कप्तानी मैंने लंबे समय तक की है। स्टम्पिंग के मामले में धोनी के आसपास कोई नहीं है। मुझे भी अपनी विकेटकीपिंग का वह दौर याद आता है, जब बगड़ के खेल मैदान पर एक मैच में तेज गेंदबाजों के समक्ष मैंने विकेट से चिपक कर न केवल कीपिंग की है बल्कि तेज गेंदों पर फ्रंट फुट पर खेलने वाले पांच बल्लेबाजों को स्टम्पिंग के माध्यम से पैवेलियन का रास्ता भी दिखाया था। उस मैच के पांचों स्टम्पिंग आज भी मेरे जेहन में ताजा हैं। धोनी को भी अक्सर मध्यम गति के तेज गेंदबाजों के समक्ष विकेट से सटकर कीपिंग करते देखा गया है। इस तरह की कीपिंग एक विशेष रणनीति के तहत की जाती है। इसमें बल्लेबाज पर मनोवैज्ञानिक दवाब भी बढ़ता है। विकेट के पीछे गेंदबाजों के साथ-साथ खिलाडि़यों को प्रोत्साहित करने के लिए बोलने की आदत मेरी भी रही है। धैर्य एवं आक्रामकता का जो सम्मिश्रण धोनी की बल्लेबाजी में रहा, कमोबेश वैसी ही शैली मेरी थी। खेलने का अंदाज भी काफी कुछ धोनी में मिलता।
छक्के मारने के मामले में उस दौर में मेरा नाम भी चर्चित था। बगड़ तिराहे के पास जो अस्पताल है, आजकल शायद संस्कृत कॉलेज बन गया है। वहां अभ्यास के दौरान लंबे शॉट खेल-खेल कर मैंने न जाने कितनी ही खिड़कियों के शीशे तोड़े हैं। कॉलेज टीम में सलेक्शन भी एक गुगनचुंबी छक्के की बदौलत ही हुआ था। गेंद खेत में इतनी दूर जाकर गिरी थी कि बाद में मिली ही नहीं। बगड़ के ही मैदान पर एक मैच के दौरान कमेंटेरी बॉक्स में छक्का मारने पर नकद इनाम की घोषणा की गई थी, कमेंटेरी बॉक्स बिलकुल ठीक सामने स्टेट में था। कमेंटेटर ने जैसे ही घोषणा की, ठीक उससे अगली ही गेंद पर ही एेसा करारा शॉट मारा था कि जिस टेबल पर खड़ा होकर कमेंटेटर, कमेंटरी कर रहा था (मैच रोमांचक होने के कारण कमेंटेटर अपनी कुर्सी छोड़कर टेबल पर खड़ा हो गया था। ) उसके पैरों के नीचे जाकर टेबल पर गेंद टकराई थी। हालांकि मैं तेज गेंदबाजी भी कर लिया करता था लेकिन धोनी ने नियमित गेंदबाजी नहीं की। एक मैच में जरूर उनको गेंदबाजी करते जरूर देखा था। वैसे धोनी के खेल व आंकड़ों से संबंधित सारी जानकारी नेट व समाचार पत्रों में उपलब्ध है ही। बात समानता की थी। एक और समानता देखिए। 1997 में बीए करने के बाद वार्षिकोत्सव में विदाई समारोह में सभी जूनियर छात्रों की ओर से हमको विदाई के साथ-साथ टाइटल भी दिए गए थे। कल इंस्टाग्राम पर धोनी ने पुराने फोटोज मिलाकर जो वीडियो बनाया उसने मेरी आंखें नम कर दी। इतना भावुक हुआ कि पूरा वीडियो देख भी नहीं पाया। इस वीडियो की पृ़ष्ठभूमि में जो गीत था, वही मुझे 23 साल पहले कॉलेज में टाइटल मिला था। बिलकुल वो ही 'मैं पल दो पल का शायर हूं' वाला। खैर, धोनी ने क्रिकेट से संन्यास ले लिया है लेकिन आईपीएल में वो नजर आएंगे। क्रिकेट मैदान पर अपने खेल एवं फैसलों से चौंकाने वाले धोनी ने कल भी चौंकाया। हालांकि मुझे उनका अचानक क्रिकेट से अलविदा कहने का यह अंदाज जमा नहीं। यकीनन सचिन के बाद किसी ने दिल में जगह बनाई तो धोनी ही हैं। धोनी आप सदा दिल में रहोगे।

मनमर्जी का सौदा !

टिप्पणी,

शहर के सुखाडिय़ा सर्किल स्थित भारत माता चौक पर लगा एक सौ फीट ऊंचा राष्ट्रीय ध्वज कब फहराएगा और कब नहीं, यह सब नगर विकास न्यास की मर्जी पर निर्भर है। इस राष्ट्रीय ध्वज को यहां लगाने के पीछे तात्कालिक कारण जो भी रहे हों लेकिन वर्तमान में वैसी तत्परता एवं गंभीरता अब नजर नहीं आती। 

दरअसल, इसको लगाते वक्त श्रेय लेने वालों तथा वाहवाही बटोरने वालों ने यह तो कतई भी नहीं सोचा होगा कि कालांतर में इस ध्वज का हश्र क्या होगा? जल्दबाजी एवं बिना सोचे समझे लगाया गया यह ध्वज अब नगर विकास न्यास के गले की फांस बन गया है। दिक्कत यह है कि हर दो माह बाद ध्वज के कपड़े को बदलता पड़ता है। इसके बदले में नगर विकास न्यास को तीस हजार रुपए का खर्चा वहन करना पड़ता है। बात यहीं तक सीमित नहीं है। इससे भी बड़ा धर्मसंकट यह आता है कि ध्वज का खर्चा किस मद में दिखाया जाए। यह अड़चन न्यास अधिकारियों के लिए आफत बन चुकी है। 

कहने को तो नगर विकास न्यास की ओर से ध्वज संहिता की पालना के लिए कागजी कार्रवाई भी पूरी की जा रही है लेकिन धरातल पर इसका असर दिखाई नहीं देता। ध्वज को लेकर जिस एजेंसी से अनुबंध हुआ था, वह भी इसकी पालना नहीं कर रही है। देखने में यह भी आया है कि ध्वज का खर्चा बचाने के लिए इसके कपड़े की आवक अक्सर टाल दी जाती है। इससे बड़ी बात तो यह है कि यूआईटी के पास ध्वज उतारने या फहराने का हिसाब किताब भी नहीं है। ऐसे में यह यह मामला और भी संदिग्ध हो जाता है। कुल मिलाकर आम जन की भावनाओं से जुड़े इस मामले में नगर विकास न्यास प्रशासन की भूमिका को सही नहीं जा सकता है। उसने इस मामले को एक तरह से 'मनमर्जी का सौदा' बना रखा है। वह इस काम को न तो कर पा रहा है और न इसके लिए मना कर रहा है। वह मना करे तो नगर परिषद ध्वज के रखरखाव के लिए तैयार है। नगर परिषद के पूर्व सभापति ने तो इसके लिए प्रस्ताव भी रखा था। मौजूदा सभापति भी ध्वज के रखरखाव को लेकर तैयार हंै। बहरहाल, राष्ट्रीय ध्वज आम लोग की भावना एवं आस्था से जुड़ा मामला है। इसका बार-बार कटना, फटना या लंबे समय तक न फहराना भी एक तरह का अपमान है। इससे लोगों की भावनाएं आहत होती हैं। नगर विकास न्यास के लिए ध्वज का रखरखाव करना बस की बात नहीं है तो यह काम उसे सहर्ष नगर परिषद को सौंप देना चाहिए। और अगर वह ऐसा नहीं करता है तो खुद ऐसी व्यवस्था करें कि किसी तरह की कोई शिकायत ही नहीं रहे ताकि आस्था एवं सम्मान का प्रतीक लगातार फहरता रहे।

--------------------------------------------------------------------------------------------

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 13अगस्त के अंक में प्रकाशित। 

नजीर पेश करें नेता

टिप्पणी

राज्यसभा सांसद किरोड़ीलाल मीणा तथा लोकसभा सांसद हनुमान बेनीवाल के बाद केन्द्रीय मंत्री कैलाश चौधरी व अर्जुनराम मेघवाल का कोरोना पॉजिटिव आना यह साबित करता है कि वैश्विक महामारी कोरोना किसी की सगी नहीं है। यह सभी के प्रति समभाव रखती है। यह छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, नेता-जनता आदि में किसी तरह का कोई भेद नहीं करती है। यह ऐसा मर्ज है जो जाने-अनजाने में जरा सी चूक करने वाले को अपनी चपेट में लेता है। भले ही वह कोई भी हो। प्रदेश के चार सांसदों के कोरोना पॉजिटिव आने के बाद यह आम धारणा भी ध्वस्त हो गई होगी कि कोरोना केवल आमजन या कमजोर लोगों पर ही वार करता है। वैसे इस रोग से बचाव के लिए जो बातें शुरू से कही जा रही हैं, वे आज भी प्रासंगिक है। मतलब उचित दूरी रखें तथा सोशल डिस्टेंसिंग की पालना करें। दरअसल, जनप्रतिनिधियों का सीधा जुड़ाव जनता से होता है। जनप्रतिनिधियों का जनता के बीच जाना या जनता का उनके पास चलकर आना आम बात है। यह सब सामान्य परिस्थितियों में तो चल जाता है, लेकिन मौजूदा समय में मेल-मुलाकातों का दौर किसी खतरे से खाली नहीं है। जाहिर सी बात है पॉजिटिव आने वाले जनप्रतिनिधियों ने बचाव की नसीहतों को न केवल दरकिनार किया बल्कि सार्वजनिक कार्यक्रमों में शिरकत करके आम जनता का जीवन भी खतरे में डाला। कोरोना पॉजिटिव आए नेताओं के संपर्क में आए लोगों की मनोस्थिति अब कैसी होगी? वो किस तरह की दुविधा से गुजर रहे हैं? इसकी कल्पना मात्र से ही मन अनिष्ट की आशंका से सिहर उठता है।
खैर, कोरोना के फैलाव की गति को धीमा करने के लिए देश-प्रदेश में कई तरह के उपाय किए जा रहे हैं। जहां-जहां संक्रमितों की संख्या ज्यादा हैं, वहां लॉकडाउन भी होने लगा है। कहीं लगातार सात दिन तो कहीं सप्ताह में दो बार कर्फ्यू तक लगाया जाने लगा है। गौर करने लायक बात है कि तमाम तरह के यह उपाय/ पाबंदियां आमजन को सुरक्षित रखने के लिए ही हैं। कोरोना से बचाव के लिए ही हैं। और इन सब से नेता या जनप्रतिनिधि भी अलग नहीं है। वो भी इन उपायों/पाबंदियों की जद में आते हैं। बेहतर होता ऐसे प्रतिकूल हालात में जनप्रतिनिधि भी सुरक्षा एवं बचाव की नजीर पेश करते। खुद चलाकर कोई अनुकरणीय उदाहरण जनता के सामने रखते। वैसे भी मौजूदा समय जनता के बीच जाकर उनके अभाव-अभियोग सुनने तथा दुख-दर्द जानने का नहीं है। अभी तो सर्वाधिक जरूरत खुद को सुरक्षित कैसे एवं किस तरह रखा जाए, इस दिशा में सोचने एवं काम करने की जरूरत है।
बहरहाल, जीवन है तो कल है, इस बात पर जनप्रतिनिधियों को भी अमल करना चाहिए। वैसे भी जनप्रतिनिधियों का काम जनता को संकट में डालने का नहीं होता। उम्मीद की जानी चाहिए कि जनप्रतिनिधि भी उन प्रतिबंधों एवं नसीहतों की उसी तरह से पालना करेंगे जैसे कि आमजन कर रहे हैं। उनको अभी सार्वजनिक कार्यक्रमों से परहेज करना चाहिए। कहा भी गया है जान है तो जहान है।

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

राजस्थान पत्रिका के 10 अगस्त 20 के अंक में जैसलमेर, बाडमेर, बीकानेर,श्रीगंगानगर व.हनुमानगगढ संस्करण में.प्रकाशित ।

सुरक्षा पर सवाल!

टिप्पणी

इसमें कोई दो राय नहीं कि बाडमेर जिले में नकली नोटों का खेल बेखटके व बेखौफ चल रहा है। सरहद से लगे संवदेनशील क्षेत्र में इस तरह का कारोबार न केवल चिंताजनक है बल्कि सुरक्षा व्यवस्था को भी कठघरे में खड़ा करता है। मामला उजागर होने के बाद हरकत में आई पुलिस भले ही अब इस मामले की कड़ी से कड़ी जोडऩे का प्रयास कर रही हो लेकिन अभी भी साफ तौर पर कोई यह बताने की स्थिति में नहीं है कि नकली नोटों की इतनी बड़ी खेप आई कहां से। यह तो गनीमत रही है कि नकली नोटों का पर्दाफाश बैंक के माध्यम से हो गया, वरना इस काले कारोबार के नेटवर्क से जुड़े लोग बाजार में न जाने कितने ही नकली नोट चला चुके होते। प्रारंभिक पूछताछ के बाद पुलिस ने पता लगाया है कि पकड़े गए आरोपी के पास आठ लाख रुपए की खेप आई थी, जिसमें से करीब डेढ लाख रुपए वह असली के रूप में बाजार में चला भी चुका है।
दरअसल, सरहद पर नशीले पदार्थों की तस्करी हो या नकली नोट बरामद होने के मामले गाहे-बगाहे सामने आते रहते हैं। विशेषकर श्रीगंगानगर एवं पड़ोसी प्रदेश पंजाब क्षेत्र में तस्करों के तार सीमा पार के तस्करों से जुड़े होने के कई मामले उजागर होते रहे हैं। हाल ही में मई माह में पंजाब सीमा में पाकिस्तान से काफी मात्रा में हेरोइन एवं हथियार आने की जानकारी वहां की पुलिस को मिली थी। पंजाब पुलिस ने तार से तार जोडऩे हुए इस मामले का खुलासा किया तो इसमें सीमा सुरक्षा बल के एक जवान की मिलीभगत भी सामने आई। पंजाब पुलिस ने इस जवान को पिछले सप्ताह ही श्रीगंगानगर जिले के रावला क्षेत्र से गिरफ्तार किया है। पंजाब के इस घटनाक्रम का जिक्र बाडमेर के संदर्भ में इसीलिए जरूरी है कि क्योंकि यहां भी अंदेशा इसी बात का है कि यह खेप सीमा पार से ही इधर आई है। अतीत का इतिहास देखें तो आशंका को बल भी मिलता है। वैसे इतना तो तय है कि सरहदी क्षेत्र में नकली नोटों का यह कारोबार लंबे समय से चल रहा है। इस बात की गवाही पुलिस के आंकड़े भी बयां करते हैं। इन तमाम घटनाक्रमों को जोडऩे के बाद यह समझ लेना चाहिए कि यह खेल कोई एक दो लोगों के बस का नहीं है। इस नेटवर्क के तार लंबे हैं। यकीनन व्यवस्था में भी कोई कमजोर कड़ी है, जो इस नेटवर्क को फलने-फलने में मददगार साबित हो रही है।
बहरहाल, पुलिस मामले की कड़ी से कड़ी जोडक़र आगे बढ़ रही है। बढऩा भी चाहिए। उसे प्रभावी कार्रवाई करते हुए जांच का दायरा आगे से आगे बढाकर इस काले कारोबार के सरगना तक पहुंचना चाहिए, जो निश्चिय ही इस खेल का मुख्य सूत्रधार भी है। सरगना के गिरफ्त में आने के बाद व्यवस्था की कमजोर कड़ी की शिनाख्त होना भी कोई मुश्किल काम नहीं है। फिर भी यह तो मानकर ही चलना चलिए कि सरगना तक पहुंचे बिना पर्दे के पीछे की कहानी राज ही रहेगी। कहानी का राजफाश हो तथा नेटवर्क का भंडाफोड़ हो, इसके लिए सरगना तक पहुंचना बेहद जरूरी है। उम्मीद की जानी चाहिए पुलिस बिना किसी दवाब में आए ईमानदारी से इस मामले को अंजाम तक पहुंचाएगी।

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------

राजस्थान पत्रिका के जैसलमेर व.बाडमेर संस्करण में 07 अगस्त 20 के अंक में प्रकाशित।

ऑल इज वेल

दस दिन भयभीत रहने के बाद आज डॉक्टर से मेरी तीसरी मुलाकात थी। 24 जुलाई को जो डर था....वो आज मित्रता दिवस के दिन लगभग गायब हो गया है। सच में यह आप सब की सच्ची मोहब्बत और दुआओं का परिणाम है। तब बीपी 203/121 था और आज बिना टेबलेट के 150/100 आया। हां, इन दस दिन में मैंने करीब दो किलो वजन भी कम किया है। डाक्टर ने पांच किलो वजन और कम करने की सलाह आज दी है। खैर सुबह छह बजे उठना...तीन चार किलोमीटर घूमना...सुबह-शाम भोजन का समय तय करना तथा भोजन के बाद टहलना रोजमर्रा का हिस्सा बन चुका है। गुनगुना पानी पीना भी आदत में शुमार हो गया है। तेलीय और तली चीजें पहले भी कम खाता था अब बिलकुल बंद। घी बंद और नमक का सेवन न के बराबर कर दिया है। एक तरह से जैन मुनियों जैसा शुद्ध सात्विक आहार हो गया है अब। सात दिन पहले की रिपोर्ट में पीलिया के लक्षण और लीवर इंफेक्शन था लेकिन आज की रिपोर्ट में यह न के बराबर आया है। इन दस दिन के बीच में कोरोना के डर ने भी डराया। आरोग्य सेतु एप ने तो संक्रमण उच्च स्तर की आशंका तक जता दी लेकिन लगातार गर्म पानी और काढे के सेवन से अब कोई जुकाम, खांसी या बुखार नहीं है। दरसअल, 24 जुलाई को पहले दिन ही ज्यादा घूमने से शरीर अकड़ गया था और हल्का बुखार आ गया था। वैसे भी मान लो तो हार है और ठान लो तो जीत। और मैं तो हमेशा ठानता ही रहा हूं। खुश हूं आज बेहद। खैर, अब सब ठीक है। आप सबकी शुभकामनाओं के लिए दिल से आभार। आपका स्नेह बना रहे। एहसान मेरे दिल पर तुम्हारा है दोस्तो, यह दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो। सभी को मित्रता दिवस की शुभकामनाएं

सत्ता के सियासी संग्राम में दोनों बार सचिन से इक्कीस पड़े गहलोत

जोधपुर. प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को उनके समर्थक समय-समय 'राजनीति का चाणक्य' व 'जादूगर' के उपनामों से नवाजते रहे हैं। गहलोत ने समय-समय पर आए सियासी संकटों को सुलझा कर इन उपनामों को चरितार्थ भी किया है। विशेषकर विधानसभा चुनाव एवं अब पायलट प्रकरण के बाद राजनीतिक गलियारों में उनकी सियासी सूझबूझ के ही चर्चे हैं। वैसे मौजूदा सियासी संकट की पटकथा विधानसभा चुनाव वितरण के समय ही लिख दी गई थी जब गहलोत एवं पायलट खेमे ने अपने-अपने समर्थकों को टिकट दिलाने एवं काटने की भरपूर कोशिशें की। जहां दोनों खेमे कामयाब नहीं हुए वहां बागी भी बड़ी संख्या में खड़े हो गए, लेकिन गहलोत खेमे से ही बागी ज्यादा जीते। कुल 13 निर्दलीय में 11 तो कांग्रेस के ही बागी थे और लगभग सभी गहलोत खेमे से ही थे, हालांकि बीच-बीच में कुछ निर्दलीय कभी सचिन तो कभी गहलोत के पक्ष में दिखाई दिए। राजनीतिक विश्लेषक इसकी प्रमुख वजह मंत्री पद न मिलना भी मानते हैं। बाड़ेबंदी की नौबत आने पर पहले निर्दलीय विधायक सरकार के साथ दिखे थे। वहीं दूसरी बाड़ेबंदी में सरकार निर्दलीयों को साथ लेने में सफल रही, लेकिन अपनी ही पार्टी के विधायकों को रोक नहीं पाए।

यह है निर्दलीय विधायकों का इतिहास
1.श्रीगंगानगर विधायक राजकुमार गौड़: गहलोत खेमे के हैं। टिकट न मिलने पर बागी हुए। वर्ष 2008 में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की टिकट से चुनाव हार गए थे। अब भी गहलोत के साथ हैं।
2. बहरोड़ विधायक बलजीत यादव: गहलोत खेमे के हैं। कांग्रेस से टिकट मांगा था पर नहीं मिलने पर निर्दलीय चुनाव लड़ा था। 2013 में इन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ा था। तब यह चुनाव हार गए थे। अब गहलोत के साथ हैं।
3. किशनगढ़ विधायक सुरेश टांक: वसुंधरा राजे खेमे से रहे हैं। भाजपा से बागी होकर चुनाव लड़ा और जीते। मार्बल और ग्रेनाइट के व्यापारी भी हैं। अभी रुख साफ नहीं।
4. शाहपुरा विधायक आलोक बेनीवाल: गहलोत खेमे में हैं। बेनीवाल परिवार कट्टर कांग्रेसी रहा है। इनकी मां डॉ. कमला बेनीवाल दिग्गज नेता रही हैं। गहलोत से करीबी रिश्ते तभी से हैं। दो बार पराजित। इस बार निर्दलीय जीते।
5. बस्सी विधायक लक्ष्मण मीणा: गहलोत के करीबी माने जाते हैं। पिछला चुनाव पार्टी टिकट पर हार चुके हैं। एडीजी पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले दौसा लोकसभा सीट से 2009 में चुनाव लड़ा, हार गए।
6. कुशलगढ़ विधायक रमिला खडिय़ा: गहलोत खेमे से हैं। खुद व पति प्रधान रहे हैं। पति पिछला विस चुनाव मामूली अंतर से हारे थे। पति के निधन के बाद टिकट मांगा था, नहीं मिला तो बागी बनकर ताल ठोकी। अब भी गहलोत के साथ।
7. थानागाजी विधायक कान्ति मीणा: गहलोत खेमे के हैं। इस बार टिकट नहीं मांगा, निर्दलीय खड़े हुए। वर्ष 2003 में भी निर्दलीय विधायक थे। तब इन्होंने बीजेपी को समर्थन दिया था। गहलोत के साथ हैं।
8. खंडेला विधायक महादेव सिंह: गहलोत खेमे के हैं। पहले भी निर्दलीय जीतकर गहलोत को समर्थन दे चुके हैं। सीकर से सांसद और केन्द्र में मंत्री भी। छठी बार विधायक बने हैं। गहलोत के साथ हैं।
9.दूदू विधायक बाबूलाल नागर: गहलोत खेमे में हैं और भी उनके ही समर्थन में हैं। तीन बार कांग्रेस के टिकट से चुनाव जीते हैं। इस बार कांग्रेस के बागी बने तथा निर्दलीय जीते।
10. गंगापुर सिटी विधायक रामकेश मीणा: 2008 में बसपा टिकट पर जीतकर गहलोत सरकार में संसदीय सचिव बने। 2013 का चुनाव कांग्रेस से हारे। अब भी गहलोत के साथ।
11. महुवा विधायक ओमप्रकाश हुडला: राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ थे। 2013 में भाजपा से चुनाव जीते। किरोड़ी मीणा के विरोधी।
12.मारवाड़ जंक्शन विधायक खुशवीरसिंह: कांग्रेस के बागी होकर चुनाव लड़ा, निर्दलीय जीते, निष्ठा बदलती रही है। एक बार जिला प्रमुख और विधायक भी रहे हैं।
13. सिरोही विधायक संयम लोढा: अभी गहलोत खेमे में हैं। बागी होकर चुनाव लड़ा और जीते। पहले भी एक बार विधायक रहे हैं।

----------------------------------------------------------------------------------------------

राजस्थान पत्रिका के 17 जुलाई 20 के अंक में समूचे प्रदेश में प्रकाशित।

फिर वही कहानी

टिप्पणी

श्रीगंगानगर शहर का नसीब ही ऐसा है कि यहां विकास लंबे समय से सपना बना हुआ है। विडंबना तो यह भी है कि विकास के बड़े-बड़े वादे करके सत्ता में आने वाले बाद में अपने ही वादों से न केवल मुकरते हैं बल्कि दूसरों पर दोषारोपण करके खुद की खाल बचाने की नौटंकी भी बखूबी करते हैं। ऐसे हालात तब हैं जब राज्य में जिस दल की सरकार है, उसी दल की सभापति श्रीगंगानगर नगर परिषद में हैं। यूआइटी भी राज्य सरकार की निगरानी में काम कर रही है। और तो और निर्दलीय जीते विधायक भी उसी दल से 'हाथ' मिला चुके हैं। श्रीगंगागनर से लेकर जयपुर तक सत्ता की सीढ़ी एक ही दल की होने के बावजूद श्रीगंगानगर की न दशा सुधरी है न दिशा। उल्टे कमोबेश वैसे ही हालत और उसी तरह की सियासत अब भी हो रही है। यह नौटंकी मेडिकल कॉलेज वाले सेठजी से शुरू हुई, तब भी वर्तमान दल के ही सभापति थे। तब सेठजी ने अपने पिता के नाम से जल निकासी के लिए दस करोड़ रुपए की राशि उपलब्ध कराई लेकिन शर्त भी लगा दी कि यह निकासी योजना बननी चाहिए। कहीं सेठजी का नाम न हो जाए यह सोचकर तत्कालीन नगर परिषद बोर्ड ने यह योजना बनाई ही नहीं। नतीजतन पिछले बोर्ड में ब्याज सहित तेरह करोड़ रुपए दान राशि वापस लेने के लिए नगर परिषद प्रशासन ने परहेज नहीं किया। सेठजी ने इस जल निकासी के मुद्दे को न केवल जमकर भुनाया बल्कि दान की गई राशि भी ब्याज सहित वापस ले गए।
पिछले कार्यकाल में नगर परिषद के पास बहाना था कि विकास कार्यों में राज्य सहयोग नहीं कर रहा है, लेकिन इस बार यह दोषारोपण यूआईटी पर है। मामला शहर की बेहद गंभीर और नासूर बन चुकी समस्या बरसाती पानी की निकासी का है। नगर परिषद सभापति का कहना है कि एसटीपी प्लांट का काम अधूरा है। बरसात आई तो शहर का डूबना तय है और इसके लिए वो जिम्मेदार नहीं है। उन्होंने तो नालों की सफाई भी करवा दी, अब एसटीपी प्लांट का काम यूआईटी जाने। इधर, यूआईटी प्रशासन का कहना है कि एसटीपी प्लांट बरसाती पानी के लिए है ही नहीं। एसटीपी में शौचालय, रसोईघर व बाथरूम के पानी को ट्रीट किया जाना है। यूआईटी का पक्ष सही है तो नगर परिषद सभापति किस आधार पर एसटीपी में बरसाती पानी छोडऩे की बात कर रही हैं? एसटीपी के निर्माण में देरी के कारण भी यूआईटी प्रशासन सभापति के निशाने पर है, लेकिन सवाल तो यह है कि एसटीपी बनने के बाद क्या समस्या का स्थायी समाधान हो जाएगा? खैर, परिषद व न्यास की इस बयानबाजी से इतना तो तय है कि दोनों ही जनता की अदालत में खुद को पाक दामन साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। बदकिस्मती यह भी है कि इस बयानबाजी से शहर का भला होने की उम्मीद कतई नहीं है। वैसे भी परिषद एवं न्यास के पास श्रीगंगानगर में जनहित का कोई बड़ा काम, विकास या सौन्दर्यीकरण कार्य बताने की उपलब्धि नहीं है। उल्टे दोनों आपस में बयानबाजी कर अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं। कितना बेहतर हो सभी विभाग आपस में तालमेल एवं समन्वय से श्रीगंगानगर के विकास का खाका खींचे। बड़ी समस्याओं के स्थायी समाधान के लिए दूरदर्शी सोच के साथ योजनाएं बनवाएं तथा उन पर प्रभावी तरीके से काम करवाएं। बार-बार एक ही कहानी और बयानों से शहर का भला न पहले हुआ न आगे होगा। जनप्रतिनिधियों को इन बयानों एवं दोषारोपण के बजाय पहल करके दिखाना होगा। जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेना जनप्रतिनिधियों के लिए किसी भी सूरत में उचित नहीं है।
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में.03 जुलाई के अंक में.प्रकाशित।  

इस 'मर्ज' का इलाज क्या ?

टिप्पणी

ऐसा माना जाता रहा है कि अस्पताल में चिकित्सकों के पास जाने के बाद गंभीर से गंभीर मर्ज का इलाज हो जाएगा, लेकिन श्रीगंगानगर एवं बीकानेर के दो चिकित्सा संस्थानों के बीच एक 'मर्ज' लाइलाज बना हुआ है। दरअसल, यह मर्ज एक ऐसी गंभीर लापरवाही या यूं कहिए कि गलती है, जिसको मानने को कोई तैयार ही नहीं है। श्रीगंगानगर का जिला अस्पताल प्रबंधन खुद को पाक दामन साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा जबकि बीकानेर का एसपी मेडिकल कॉलेज भी अपनी बात के समर्थन में अड़ा है। दोनों चिकित्सा संस्थानों की खुद को सही साबित करने की इस अजीब सी जिद के चलते चार दिन बाद भी इस लापरवाही के जिम्मेदार तय नहीं हो पाए हैं। मामला कोरोना के करीब पांच दर्जन सैंपल से जुड़ा है। गंभीर बात तो यह कि सैंपल जांच से पहले ही गायब हो गए। श्रीगंगानगर जिला अस्पताल प्रबंधन का कहना है कि जांच के लिए सैंपल बीकानेर के एसपी मेडिकल कॉलेज भेजे गए थे और उनके पास सैंपल सुपुर्दगी की रसीद भी है। इधर, बीकानेर एसपी मेडिकल कॉलेज के अधिकारियों का कहना है कि उनके पास सैंपल आए ही नहीं, सैंपल लाने वाले कर्मचारी ने केवल डिब्बे गिनवाए और उसके आधार पर सैंपल प्राप्ति की रसीद दे दी गई। बचाव में यह दलील भी दी जा रही है कि प्राप्ति रसीद सैंपल के डिब्बों की दी है ना कि सैंपल की। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि इस गफलत का जिम्मेदार कौन है? दोनों चिकित्सा संस्थान भले ही एक दूसरे पर दोषारोपण कर खुद को सही साबित करने की कोशिश करें लेकिन जान हलक में तो उन पांच दर्जन मरीजों की अटकी हुई है, जिनके यह सैंपल थे। क्या यह मरीजों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ नहीं? कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के प्रति दोनों संस्थानों का यह रवैया गैर जिम्मेदाराना है। क्या उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं? जिनके सैपल गुम हुए क्या यह उन मरीजों के लिए किसी मानसिक संताप या प्रताडऩा से कम है?
बहरहाल, श्रीगंगानगर का जिला अस्पताल सैंपल दुबारा लेने की बात कह रहा है लेकिन ऐसा करना भी एक तरह का मजाक ही है। इस मामले से सबक लेकर आगे से सैंपल जमा करने के तौर-तरीकों में भी भले बदलाव हो जाए लेकिन यह गलती किसकी थी और कैसे हुई, जब तक इसके कारण नहीं तलाशे जाएंगे तब तक इस तरह की लापरवाहियां यूं ही डराती रहेंगी। इस समूचे घटनाक्रम को देखने के बाद यह तो तय है कि लापरवाही किसी एक संस्थान की है लेकिन उसे स्वीकारना तो दूर, मानने को भी तैयार नहीं है। यकीनन, यह दोषारोपण किसी लापरवाह को बचाने या गलतियों पर पर्दा डालने के लिए ही किया जा रहा है। कितना बेहतर होता कि जहां लापरवाही हुई, जिसकी वजह से हुई उनको चिन्हित करके उनका ठोस समाधान खोजा जाता, लापरवाह को दंडित किया जाता। दुबारा सैंपल लेना इस समस्या का स्थाई समाधान नहीं है। हां, इस मामले में श्रीगंगानगर पीएमओ ने कमेटी गठित की है। अब कमेटी की रिपोर्ट का हश्र क्या होगा, यह भी देखने वाली बात होगी। कारण, सरकारी विभागों में नोटिस और कमेटियों की रिपोर्ट का अंजाम किसी से छिपा नहीं है।

--------------------------------------------------------------------------------------------------

 राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर व बीकानेर संस्करण के 30 जून 20 के अंक में प्रकाशित।

प्रस्ताव में देरी क्यों?

टिप्पणी

प्रदेश में जेलों की सुरक्षा व्यवस्थाओं की पोलपट्टी गाहे-बगाहे होने वाले निरीक्षणों में खुलती रहती है। कभी किसी जेल में मोबाइल बरामद होते हैं तो कभी कहीं पर नशे का सामान। नतीजतन, कार्रवाई के नाम पर कुछ रस्मी हरकत होती है फिर ढर्रा उसी अंदाज में चलने लगता है। ऐसे में यह निरीक्षण भी एक तरह की कागजी कार्रवाई ही है। औपचारिकता से ज्यादा कुछ नहीं। जेल में बैठे कैदियों के मोबाइल से बाहर अपना नेटवर्क संचालित की खबरें भी अक्सर आती रहती हैं। हनुमानगढ़ की जिला जेल भी इस तरह की घटनाक्रमों से अछूती नहीं है। यहां तो जेल स्टाफ और अपराधियों के बीच मिलीभगत तक के मामले भी उजागर हो चुके हैं। कैदियों के आपस में भिडऩे तो कभी जेल प्रशासन के खिलाफ कैदियों के आंदोलन भी यहां अक्सर होते रहे हैं। इतना ही नहीं यहां जेल प्रशासन पर कैदियों से वसूली करने तक के आरोप भी लग चुके हैं। बहरहाल, इन तमाम चुनौतियों के अलावा जेल प्रशासन एक और गंभीर समस्या से जूझ रहा है। जेल की दीवारें अब अभेद्य नहीं रही। जेल से लगती सड़कों की ऊंचाई बढऩे से जेल की दीवारों की ऊंचाई कम हो गई है। और इसी कमजोरी को फायदा अपराधिक तत्व उठा रहे हैं। हालांकि कुछ मामले जेल प्रशासन की नजरों में भी आए। कार्रवाई भी हुई लेकिन इसके बावजूद आपराधिक वारदातों पर अंकुश नहीं लगा है। और यह खतरा तब तक बना रहेगा जब तक दीवार नीची रहेगी।
इससे भी बड़ी हैरत की बात तो यह है कि इस समस्या को सरकार के स्तर पर बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। जेल की दीवारें ऊंची करके उन पर जाली लगाने का प्रस्ताव तीन साल से भिजवाया जा रहा है फिर भी सरकार इस समस्या की सुध नहीं ले रही है। हनुमानगढ़ जिला वैसे भी मादक पदार्थों की तस्करी के मामले में कुख्यात है। यहां की जेल में जितने कैदी हैं, उनमें से पचास फीसदी से ज्यादा तस्करी के मामलों से जुड़े विचाराधीन कैदी हैं। प्रदेश की जेलों से अप्रिय वारदातों की खबरें अक्सर आती रहती हैं। ऐसा हनुमानगढ़ में भी हुआ है और भविष्य में भी हो सकता है, इसलिए इस मामले को अब ज्यादा लटकाना किसी भी सूरत में उचित नहीं है। सरकार को स्थानीय जेल प्रशासन के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार करते हुए तत्काल जेल की दीवारों को ऊंचा करवाना चाहिए।

----------------------------------------------------------------------------------------------

 राजस्थान पत्रिका हनुमानगढ संस्करण के 30 जून 20 के अंक में प्रकाशित ।

बैठे-बैठे

बस यूं ही

मैं अक्सर सोचता बहुत हूं। सोचते-सोचते इतना गहराई तक चला जाता हूं कि वापस सामान्य और सहज होने में काफी वक्त लगता है। इसी आदत के चलते मुझे उच्च रक्तचाप रहने लगा है। अक्सर परिचित और शुभचिंतक कहते भी हैं कि ज्यादा मत सोचा करो, यह आपके स्वास्थ्य के लिए सही नहीं है। मैं तमाम सलाहों सुझावों को आत्मसात करने की भरसक कोशिश करता हूं लेकिन यह सोचना नहीं छूट रहा। दरअसल, यह सोच एक तरह का चिंतन होता है, जो मुझे अंदर ही अंदर कचोटता रहता है। आज की ही बात है बैठे-बैठे अचानक सोचमग्न हो गया। ख्याल आया अपराधबोध से घिरा हुआ आदमी धीरे-धीरे जिम्मेदारियों से भी मुंह मोड़ लेता है। रफ्ता-रफ्ता उसकी मनोदशा एवं आचरण चिकने घड़े की तरह हो जाते है। जिस तरह चिकने घड़े पर कितना ही पानी डालो वह नहीं ठहरता है, वैसे ही अपराधबोध से घिरे आदमी को कितना ही कह -सुन लो। उसको कोई फर्क नहीं पड़ता। अपराधबोध से घिरा आदमी न केवल विचारों के मामले में संकीर्ण हो जाता है बल्कि उसकी सोच भी नकारात्मक हो जाती है। एक दिन एेसा भी आता है जब अपराधबोधग्रस्त व्यक्ति का उठने-बैठने चलने-फिरने का दायरा भी सीमित हो जाता है। वो ही उसकी दुनिया और संसार हो जाता है। उसकी सोच का दायरा भी बेहद सीमित हो जाता है। वह फिर लाख जतन करे, उसकी सोच समग्र नहीं हो सकती। और तो और एेसा शख्स सच को भी अपनी सोच के हिसाब से ही देखता है और वैसा बर्ताव करता है। उसकी हकीकत को स्वीकारने-मानने और जीने का शक्ति भी क्षीण हो जाती है। अंततोगत्वा उसका पुरुषार्थ सो जाता है और स्वार्थ जाग जाता है। मेरा मानना है और कई अनुभवों के आधार पर मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि अपराधबोध से घिरा आदमी बेहद स्वार्थी भी हो जाता है। उसे फिर अपने-पराये का बोध भी नहीं होता।

यह सोहलवां भी है कमाल-6

बस यूं.ही

तीन दिन से सोलह पर लिखते-लिखते भले मैं न थका हूं लेकिन पढऩे वालों के सवाल जरूर खड़े होने लगे हैं। पूछा जाने लगा है कि यह सोलह-सोलह क्या है? इस सोलह के पीछे क्या कहानी है? इस उम्र में सोलह के किस्से कैसे याद आ रहे हैं? और भी न जाने कितने ही तरह के सवालात। जितने मुंह उतनी बात की तर्ज पर। वैसे सवाल उठना स्वाभाविक भी है। उम्र के इस पड़ाव में आकर सोलह की इतने विस्तार से चर्चा करना तथा सोलह के समर्थन में इतने कशीदे पढना भला अच्छे खासों के कान खड़े नहीं कर देगा। जीवन के सोलह बसंत तो कब के पूरे हो गए। साढ़े सताईस साल हो गए, जिंदगी का सोलहवां साल गुजरे। कसम से क्या दिन थे, मस्ती भरे। खाने कमाने की परवाह से दूर एक अलग ही दुनिया थी वो। दादी, मां, पापा की सरपरस्ती में ना जाने कितनी ही गुस्ताखियां की। खैर, गुजरा हुआ जमाना कभी लौट कर नहीं आता है। वैसे सोलह पर इस तरह लिखने के पीछे भी एक पूरी कहानी है। इसे सोलह का संगम कहें या संयोग लेकिन इस तरह से जीवन में पहली बार आया है। स्वीट सिक्सटीन का नाम सुनते ही शरीर में झुरझुरी सी मच जाती है। एक अलग तरह का एहसास पूरे तन मन को रोमांचित कर देता है। बहुत पहेलियां बुझा ली। अब इस सोलहवें के राज से पर्दा हटा ही देता हूं। दरअसल, एक से दो होने की बुनियाद आज के दिन ही रखी थी। 22 जून 2004 का वो एेतिहासिक दिन था, जब पांवों में जिम्मेदारियों की बेडियां सच में पड़ गई थी। और आज उन बेडियों में बंधे ठीक सोलह साल हो गए। अपनी शादी की वर्षगांठ पर वैसे तो हर साल ही लिखता हूं लेकिन सोलह साल पूरे हुए तो कुछ विशेष तो लिखना ही था। अभी तो दोनों सोलह कदम ही चले हैं। अभी तो दोनों ने सोलह सावन ही देखे हैं। अभी तो दोनों ने जिदंगी के सोलह सौपान ही तय किए हैं। अभी मिलकर सोलह साल का सफर ही तय किया है। दोनों ने साथ साथ सोलह बंसत ही तो गुजारे हैं। वाकई यह सोलह साल का सफर बेहद हसीन रहा है। गृहस्थी की गाड़ी कभी कच्चे में चली तो कभी सड़क पर सरपट दौड़ी। कभी कटु अनुभवों के उबड़-खाबड़ रास्तों पर हिली-डुली तो कभी सुखद पलों की समतल सड़क पर रफ़्तार पकड़ी। शादी के सोलह साल पर इतनी भूमिका बनाने, इतने किस्से कहानियां सुनाने के बाद यही कहना है कि इस सोलह से प्यार है मुझे, क्योंकि यह सोलह का सफर समझ को बढ़ाने वाला, सुखद एवं सुकूनदायक रहा है। सादगी और समझदारी का संगम एक जगह मिल जाए तो फिर वो सोने पर सुहागा होता है। खुशकिस्मत हूं वो संगम जो मैंने निर्मल के रूप में पाया। आज एक बड़े सच से रूबरू करवाता हूं। सच का सारथी हूं, इसलिए सच बोलना, सुनना और कहना मेरी फितरत है। कई बार इस सच की कीमत भी चुकाई है लेकिन सच की राह में सदा अडिग रहा हूं और रहूंगा। काम का तनाव हो या कोई अन्य किसी वजह के कारण टेंशन, वह गुस्से के रूप में अक्सर निर्मल पर ही उतरता रहा है। बस वह सुन लेती है इसलिए। लाख कोशिश करता हूं। खुद को संयमित रखता हूं। नियंत्रित रखता हूं लेकिन फिर भी भावनाओं के आवेग तटबंद्ध लांघ ही जाते हैं। पता नहीं क्यों कई बार भावनाओं का ज्वार इतना उग्र हो जाता है कि फिर नियंत्रण रखना मुश्किल हो जाता है। खैर, इन सोलह साल में निर्मल ने मुझ जैसे तुनकमिजाज, खडूस एवं सनकी आदमी में काफी सुधार किया है। उसका धैर्य सच में गजब का है। कई बार सोचता हूं, उसकी प्रतिक्रिया या स्वभाव भी अगर मेरे जैसा हो जाए तो क्या होगा? निर्मल वाकई तुम्हारी जीवटता का कोई जवाब नहीं। मेरी गुस्ताखियों को इसी तरह से नजरअंदाज करते रहना।
' तुमने जाना है मेरे हालात को,
तुमने समझा है मेरे ज़ज्बात को,
हर गम और खुशी की साथी हो तुम,
थामे रखना सदा हाथ में मेरे हाथ को।'
सच में मैं तुमसे ही पूर्ण हूं। स्वीट सिक्सटीन की बधाई। शादी की वर्षगांठ की मुबारकबाद। लख-लख बधाई। और हां आप सब भी हम दोनों को बधाई दे सकते हैं। क्योंकि यह सोलह अब फिर ना आएगा..व्यक्तिगत तो कभी का गुजरा अब साथ वाला भी हाथ से फिसल रहा है सूखी रेत की तरह। तभी तो है यह सोहलवां कमाल।

यह सोलहवां भी है कमाल-5

बस यूं ही

सोलह की बात आती है तो सोलह कलाओं का जिक्र होना लाजिमी है। सोलह कला चंद्रमा की। सोलह कला भगवान श्री कृष्ण की। चन्द्रमा की सोलह कलाओं को देखें तो इनके नाम अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूणार्मत। इसी को प्रतिपदा, दूज, एकादशी, पूर्णिमा आदि भी कहा जाता है। इसी तरह से 16 कला हैं। अर्थात 15 कला शुक्ल पक्ष और एक उत्तरायण कला कुल हो गई सोलह। अब जिस तरह से चंद्रमा के प्रकाश की सोलह अवस्थाएं या कलाएं हैं उसी तरह से आदमी के मन में भी एक प्रकाश होता है और मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है, जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। देखा जाए तो चंद्रमा की इन सोलह अवस्थाओं से ही सोलह कलाओं का जन्म हुआ। कला को वैसे सामान्य शाब्दिक अर्थ के रूप में देखा जाए तो यह एक विशेष प्रकार का गुण मानी जाती है। यानि सामान्य से हटकर सोचना, सामान्य से हटकर समझना, सामान्य से हटकर खास अंदाज में ही कार्यों को अंजाम देना कुल मिलाकर लीक से हटकर कुछ करने का ढंग व गुण जो किसी को आम से खास बनाते हों कला की श्रेणी में रखे जा सकते हैं। भगवान विष्णु ने जितने भी अवतार लिए सभी में कुछ न कुछ खासियत थी वे खासियत उनकी कला ही थी। भगवान श्री कृष्ण को संपूर्ण सोलह कलाओं का अवतार माना जाता है । भगवान श्रीराम में बारह कलाएं थी। सामान्य मनुष्य में पांच तथा श्रेष्ठ मनुष्य में आठ कलाएं मानी गई हैं। कलाओं की बात करें तो इनके नाम श्री संपदा, भू संपदा, कीर्ति संपदा, वाणी सम्मोहन, लीला, कांति, विद्या, विमल, उत्कर्षिणि शक्ति, नीर-क्षीर विवेक, कर्मण्यता, योगशक्ति, विनय, सत्य धारणा, आधिपत्य और अनुग्रह क्षमता है। कुल मिलाकर जिसमें भी ये सभी कलाएं अथवा इस तरह के गुण होते हैं वह ईश्वर के समान ही होता है। क्योंकि किसी इंसान के वश में तो इन सभी गुणों का एक साथ मिलना दूभर ही नहीं असंभव सा लगता है, क्योंकि साक्षात ईश्वर भी अपने दशावतार रूप लेकर अवतरित होते रहे हैं। मान्यता है कि सरस्वती देवी की पूजा से भी कलाएं विकसित की जा सकती हैं। क्योंकि सरस्वती देवी भी सोलह कलाओं की देवी हैं। मन, विचार और कला की देवी होने और चंद्रशक्ति होने से ही उनकी पूजा करने का विधान शरदपूर्णिमा को है।
इसी तरह से वर्ष फल पद्धति अपने आप में एक महत्वपूर्ण पद्धति है। वर्ष फल में ताजिक योगों का बहुत ज्यादा महत्व है। ताजिक ज्योतिष वर्ष फल बताने की एक पद्धति है। यह ताजिक योग शुभ और अशुभ दोनों प्रकार से बनते हैं। योग तो बहुत से हैं लेकिन सोलह योगों का महत्व अधिक है, जो इस प्रकार से हैं। इक्कबाल योग, इन्दुवार योग, इत्थशाल योग, ईशराफ योग, नक्त योग, यमया योग, मणऊ योग, कम्बूल योग, गैरी कम्बूल योग, खल्लासर योग, रद्द योग, दुष्फाली कुत्थ योग, दुत्थकुत्थीर योग, ताम्बीर योग, कुत्थ योग तथा दुरुफ योग। सोलह की चर्चा अभी जारी है।
क्रमश:

यह सोलहवां भी है कमाल-4

बस यूं ही

हां तो सोलह की चर्चा में बनारस का सोरहिया मेले को भी शामिल कर सकते हैं। 16 दिन चलने के कारण इस मेले का नाम सोरहिया मेला है। सोरहिया मेले में महालक्ष्मी की आराधना की जाती है। लक्ष्मी कुंड में मौजूद महालक्ष्मी के दर्शन इन दिनों फलदायक होता है। मेले के पहले दिन लोग महालक्ष्मी की प्रतिमा खरीद कर घर ले जाते हैं। उस प्रतिमा की 16 दिनों तक कमल के फूल से पूजा होती है। और तो और मां दुर्गा के भी सोलह नाम हैं। यह नाम हैं दुर्गा, नारायणी, ईशाना, विष्णुमाया, शिवा, सत्या, नित्या, सती, भगवती, सर्वाणी, सर्वमंगला, अंबिका, वैष्णवी, गौरी, पार्वती और सनातनी। इसी प्रकार षोडशोपचार का हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्व माना जाता है। षोडशोपचार का मतलब वे सोलह तरीके, जिनसे देवी-देवताओं का पूजन किया जाता है। पूजा के सोलह तरीके इस प्रकार से हैं। 1. ध्यान-आह्वान 2. आसन 3. पाद्य 4. अध्र्य 5.आचमन 6.स्नान 7. वस्त्र 8.यज्ञोपवीत 9. गंधाक्षत 10. पुष्प 11.धूप 12. दीप 13. नैवेद्य 14. ताम्बूल, दक्षिणा, जल आरती 15. मंत्र पुष्पांजलि और 16. प्रदक्षिणा-नमस्कार, स्तुति। सोलह पर और देखें तो श्राद्ध भी सोलह होते हैं। तिथियां भी सोलह ही होती हैं। रोचक जानकारी यह भी है कि दांत 32 होते हैं लेकिन इनमें सोलह ऊपर एवं सोलह नीचे होते हैं। खैर बात व्रतों की , तो मान्यता है कि सोलह सोमवार के व्रत करने से लड़कियों को मनपंसद का वर मिलता है तथा उनकी मनोकामना पूरी होती है। इसी तरह सोलह शुक्रवार के व्रत भी होते हैं, जो कि मां संतोषी को प्रसन्न करने के लिए किए जाते हैं। मान्यता है कि इनके करने से भी मनोकामना पूरी होती है।
इसी तरह किसी भी प्रकार की मंगलकामना और कार्य के निर्विध्न संपादन व संचालन के लिए भगवान गजानन के साथ ही सोलह मातृकाओं का स्मरण और पूजन अवश्य करना चाहिए। अनुष्ठान में अग्निकोण की वेदिका या पाटे पर सोलह कोष्ठक के चक्र की रचना कर उत्तर मुख या पूर्व मुख के क्रम से सुपारी व अक्षत पर क्रमश: इन 16 मातृकाओं की पूजा का विधान है। इससे न केवल कार्य की सिद्धि होती है बल्कि उसका संपूर्ण फल भी प्राप्त होता है। सोलह मातृकाओं में गौरी, पद्या, शची, मेघा, सावित्री, विजय, जपा, पष्ठी, स्वधा, स्वाहा, माताएं, लोकमताएं, धृति, पुष्टि, तुष्टी तथा कुल देवता। जैन धर्म की बात करें तो इसमें सोलह कारण व भावना ही तीर्थंकर बनाती है। और बात करें तो सोलह औंस का एक पौंड होता है। इतिहास में भी सोलहवीं सदी का विशेष महत्व है। सोलह की इस चर्चा में कल राजस्थान में सोलह ग्राम पंचायतों को भी नगर पालिका का दर्जा मिल गया। अभी सोलह की चर्चा जारी है।
क्रमश:

यह सोहलवां भी है कमाल-3

बस यूं.ही

सोलह संस्कार एवं सोलह श्रृंगार के बाद सोलह से जुड़े अन्य किस्सों, कहानियों व किवदंतियों की कर लेते हैं। हमारे प्राचीन गणराज्य सोलह थे। प्राचीन भारत कई गणराज्यों में दूर तक फैला हुआ था। इनमें से 16 गणराज्य खास महत्वपूर्ण माने गए हैं। इनको महाजनपद का दर्जा दिया हुआ था। महाजनपद का मतलब होता है महान देश। इन सोलह महाजनपदों में अंग, अश्मका, अवंती, चेती, गांधार, कंबोज, काशी, कौशल, कुरु, मत्स्य, मगध, मल्ल, पांचाल, सुरेषणा, वज्जी व वत्स आदि थे। इसी तरह हिन्दू मैरजि एक्ट की धारा-16 के जिक्र बिना तो चर्चा अधूरी है। किसी भी शादी को कानूनन अवैध ठहरा दिया गया तो उस विवाह से पैदा होने वाले बच्चे अवैध माने जाएंगे या वैध? यह सवाल सदा उठता आया है। इस बारे में हिन्दू मैरिज एक्ट की धारा-16 के मुताबिक एेसी शादी से होने वाले बच्चे वैध होंगे। चाहे वो एक्ट पारित होने से पहले पैदा हुआ हो या बाद में। भले ही इस एक्ट की धारा-12 के तहत विवाह शून्य की डिक्री दी गई हो पर यदि इस बीच में बच्चा गर्भ में आ गया तो वह वैध जाना जाएगा। पिता व मां की संपत्ति में उसको अधिकार प्राप्त होगा। सोलह का चर्चा जैन धर्म में भी हैं। बताते हैं कि जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी की मां रानी त्रिशला ने उनके जन्म से पहले एक ही रात में लगातार सोलह सपने देखे थे। यह सपने सफेद हाथी, सफेद सांड, बब्बर शेर, मां लक्ष्मी पर दायीं -बांयी ओर से लगातार पुष्प बरसाने वाले दो हाथी, दो हार, अपनी आभा बिखेतरा पूर्ण चंद्रमा, चमकता सूरज, मछलियों का प्रसन्नचित्त जोड़ा, सोने के दो कलश, कमल पुष्पों से भरी झील, सागर से उठती लहरें, सोने का सिंहासन, अंतरिक्ष यान, राजा धर्मेन्द्र का महल, हीरे व माणिक का ढेर तथा धुआं रहित आग। इन सोलह सपनों का जैन धर्म में खासा महत्व है। ज्योतिषशास्त्र में भी सोलह का महत्व है। जैसे सोलह में दो अंक हैं। एक और छह। कुल मिलाकर बना सात नंबर। अंक एक सूर्य का नबंर है और छह शुक्र का है। सात अंक केतु का है। इन तीनों के मिश्रण से इस अंक वाले को उपाय बताते हैं।
महाराष्ट्रीयन परिवारों के साथ भी सोलह का संयोग जुड़ा है। विशेषकर देवी आराधना के समय सोलह का विशेष ध्यान रख जाता है।देवी आराधना के लिए 16 प्रकार की पत्तियां गुड़हल, सफेद फूल, आघडा, केना, क्रोटन, चमेली, जाई, जुई, बेलपत्र, पारिजात, सदा सुहागन, मोंगरा, सेवंती, तुलसी पत्र, आम्र पत्र एवं अन्य सुगंधित पुष्प युक्त पौधों पत्तियों की जोड़ी बना कर अर्पित की गई। इसी तरह चढ़ावे के रूप में कमल फूल से लेकर अलग-अलग 16 प्रकार के फूल , गहने , सब्जी, चटनी, नमकीन, मिठाइयां बना कर मां को भोग लगाया जात है। यह पूजा करीब सौ साल से हो रही है। इसमें पूरा परिवार एकत्रित होकर विशेष रूप से मराठी व्यंजन पूरण पाली, अविल, पाती करंजी, वेणी फनी मोदक सहित 16 प्रकार के व्यंजनों का भोग लगाया जाता है। सोलह की और बात करें तो भारत के मालवा, निमाड़, व राजस्थान मेंं मनाए जाने वाले संध्या पर्व, जिसमें बालिकाओं द्वारा सोलह दिन संध्या की पूजा की जाती है। इसी तरह भारतीय सुहागन महिलाओं का त्यौहार गणगौर मेंं शिव पार्वती की, ईसर गणगौर के रूप में पूजा भी सोलह दिन की जाती है। सोलह पर बाकी चर्चा अब कल
क्रमश :

यह सोलहवां भी है कमाल-2

बस यूं ही

सोलह संस्कार के बाद बात आती है सोलह श्रृंगार की। राजस्थानी में इसको सोलह सिणगार भी कहते हैं। सोलह श्रृंगार का जिक्र आते हैं मुझे मारवाड़ी गीत 'गौरड़ी कर सोलह सिणगार चाली पाणी न पणिहार'... बरबस ही याद हो गया। चर्चित फिल्मी पाकीजा का गाना 'ठाड़े रहियो ओ बांके यार' में भी सोलह श्रृंगार का जिक्र है। इसी गीत में नायिका कहती है 'मैं तो कर आऊं सोलह श्रृंगार रे, ओ बांके यार रे' वैसे ईमानदारी की बात यह है सोलह श्रृंगार की चर्चा तो अमूमन सभी ने सुनी होगी लेकिन किसी से इनके नाम पूछ लिए जाएं तो बहुत कम ही बता पाएंगे। चूंकि श्रृंगार महिलाओं से जुड़ा विषय है लेकिन शायद ही कोई महिला होगी जो सोलह श्रृंगार के बारे में पूरा व सही बता पाए। श्रृंगार वैसे प्रत्यक्ष रूप से पुरुषों से संबंधित नहीं हैं। हां परोक्ष रूप से जरूर जुड़ा हुआ मान सकते हैं। अपवाद के रूप में केरल का एक मंदिर जरूर शामिल कर सकते हैं, जहां पुरुषों भी महिलाओं के समान साड़ी पहनकर पूजा पद्धति में शामिल होते हैं। केरल के कोट्टनकुलंगरा में स्थित श्रीदेवी का मंदिर हैं जहां पर मान्यता है कि पुरुष महिलाओं के समान साड़ी पहनकर पूरा साज श्रृंगार करके यदि पूजा करते हैं तो उनकी सभी इच्छाएं पूरी होती है। इस मन्दिर में पुरुषों को बिना श्रृंगार के एंट्री नहीं मिलती है। इस मंदिर में आने वाले सभी पुरूष वैसे तो बाहर से ही श्रृंगार करके आते हैं लेकिन उसके बावजूद यदि कोई पुरुष कहीं बाहर से यहां आ रहा है तो उसके लिए मंदिर परिसर में मेकअप रूम है जहां वह श्रृंगार कर सकते हैं। और इतना ही नहीं पुरूष अपनी मां ,बहन और अन्य महिला का मेकअप में सहयोग भी ले सकते हैं। खैर, अपवाद तो अपवाद है, हां सोलह श्रृंगारोंकी खोजबीन के लिए गूगल बाबा का सहारा लेना पड़ा। खोजा तो काफी कुछ सामग्री मिली। आप भी देखिए।
अंगशुची, मंजन, वसन, मांग, महावर, केश।
तिलक भाल, तिल चिबुक में, भूषण मेंहदी वेश।।
मिस्सी काजल अरगजा, वीरी और सुगंध।
अर्थात् अंगों में उबटन लगाना, स्नान करना, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, मांग भरना, महावर लगाना, बाल संवारना, तिलक लगाना, ठोढी पर तिल बनाना, आभूषण धारण करना, मेंहदी रचाना, दांतों में मिस्सी, आंखों में काजल लगाना, सुगंधित द्रव्यों का प्रयोग, पान खाना, माला पहनना, नीला कमल धारण करना। इस तरह से यह सोलह श्रृंगार हैं। यह सब तो ठीक है फिर भी आजकल जमाना तर्क-वितर्क एवं कुतर्क का भी है। कोई पूछ ले कि आज के समय में इनकी प्रासंगिकता या मतलब क्या है। तो सुनिए, सोलह श्रृंगार के पीछे भी मनोविज्ञान छिपा है। सोलह श्रृंगार घर में सुख और समृद्धि लाने के लिए किया जा है। ऋग्वेद में भी सोलह श्रृंगार का जिक्र किया गया है, जिसमें कहा गया है कि सोलह श्रृंगार सिर्फ खूबसूरती ही नहीं भाग्य को भी बढ़ाता है। महिलाएं मां भगवती को खुश करने के लिए इस पावन पर्व पर यह श्रृंगार करती हैं। वैसे सोलह श्रृंगार दुल्हन के लिए ज्यादा उपयोग में आता हैं। अवसर विशेष के अलावा शायद ही किसी महिला के लिए सोलह श्रृंगार रोजमर्रा का हिस्सा होगा। वैसे पिछले दिनों एक जुमला बड़ा चर्चित हुआ था। पति अपनी पत्नी से कहता है अब श्रृंगार सोलह की बजाय सत्रह होंगे। पत्नी पूछती है वह कैसे तो पति कहता है कि हेयर डाई को भी अब श्रृंगार में जोड़ लिया गया है। बात भले मजाक की हो लेकिन यह सत्रहवां श्रृंगार ही आजकल सोलह श्रृंगारों पर भारी पडऩे लगा है।
क्रमश:

यह सोलहवां भी है कमाल-1

बस यूं.ही
'सोलह बरस की बाली उम्र को सलाम, एे प्यार तेरी पहली नजर को सलाम'.... कमल हासन व रति अग्निहोत्री अभिनीत फिल्म एक दूजे के लिए फिल्म का यह गाना आपने भी कभी कहीं न कहीं तो सुना ही होगा। मैं तो इस गाने को न जाने कितनी ही बार सुन चुका हूं। फिल्म का तो कहना ही क्या। आज ही एफएम पर सुना तो फिर सोचा क्यों न आज सोलह पर ही कुछ लिखा जाए। वैसे सोलहवें साल की उम्र किशोरावस्था से जवानी के बीच का समय है। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण का पौधा अक्सर इसी साल में प्रस्फुटित होता है। इसलिए कहा भी जाता है कि सोलहवां साल बड़ा संगीन होता है। फिर भी फिल्मी दुनिया में सोलहवें साल को बड़ी तवज्जो दी गई है। 1980 में आई ऋषिकूपर व नीतूसिंह की फिल्म कर्ज का गाना 'मैं सोलह बरस की तू सत्रह बरस का, मिल जाए नैना, एक दो बरस जरा दूर रहना'... तो अपने जमाने में युगलों का आदर्श गीत था। आज भी यह गीत कहीं बजता है तो उस दौर के युवा इसको गुनगुनाने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। इसी तरह नब्बे के दशक में सलमान की फिल्म आई थी सनम बेवफा। इसमें एक गाना था 'बेइरादा नजर मिल गई तो, मुझसे दिल वो मेरा मांग बैठे'....इसी गीत के आखिरी अंतरें की पहली लाइन 'सोलह सावन हो जाए पूरे तब कहीं जाकर नजरें मिलाना'....भी सोलह की उम्र की ओर इशारा करती है। लोहा फिल्म का गाना 'पतली कमर लंबी बाल, हाय रे अल्लाह उस पे मेरी उम्र सोलह साल'.. में भी सोलह का जिक्र है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है सोलहवें साल को लेकर फिल्मी गीतकारों ने बेहद संजीदा होकर गीत लिखे हैं, उनसे कम कवि व शायर भी नहीं रहे। इस आधार पर कहा जा सकता है सोहलवां साल मासूम भी है, संगीन है और नामसझ भी है। खैर, बात सोलह उम्र की क्यों? सोलह का जिक्र तो बहुत सारी जगह है। लोग अक्सर किसी सच्चे आदमी की मिसाल देते हैं तो कहते हैं, वो आदमी तो सोलह आने खरा है। इसका मतलब यही होता है कि आदमी सच्चा है। चार आना मतलब पच्चीस पैसा तो आठ आना पचास पैसा। इस तरह सोलह आना मतलब सौ पैसा और सौ पैसे का एक रुपया, तो सोलह आने खरा का मतलब शत-प्रतिशत शुद्ध। हालांकि मैंने आने-दो आने वाला दौर तो नहीं देखा लेकिन चार आना, आठ आना, बारह आना आदि से खूब वास्ता पड़ा है। सोलह से याद आया कि संस्कार भी तो सोलह ही होते हैं। हिन्दू धर्म मे सोलह संस्कारों का बड़ा महत्व है। मनुष्य के गर्भाधान से लेकर अंतिम संस्कार तक यह सोलह संस्कार होते हैं। पहले से सोलहवें तक के संस्कार देखें तो गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारंभ, केशांत, समावर्तन, विवाह और अन्त्येष्टि। इन सोलह संस्कारों में जीवन दर्शन छिपा है। सोलह की यह चर्चा जारी है।
क्रमश

आत्महत्या मानसिक रोग

 आत्महत्या का प्रयास करना अपराध नहीं बल्कि मानसिक रोग है लेकिन जो आत्महत्या कर चुका हो उसको किस श्रेणी में माना जाए? इस सवाल की तलाश में मैं सुबह से लगा हूं लेकिन कहीं भी संतोषजनक जवाब नहीं मिला। पूरा गूगल छान मारा। एक दो जानकारों से लंबी चर्चा भी हुई लेकिन शंका का समाधान पूरी तरह से नहीं हुआ।

खैर, धार्मिक ग्रंथों में बताया गया है कि आत्महत्या शब्द ही गलत है, लेकिन यह अब प्रचलन में है। आत्मा की किसी भी रीति से हत्या नहीं की जा सकती। हत्या होती है शरीर की। इसे स्वघात या देहहत्या कह सकते हैं। दूसरों की हत्या से ब्रह्म दोष लगता है लेकिन खुद की ही देह की हत्या करना बहुत बड़ा अपराध है। जिस देह ने आपको कितने भी वर्ष तक इस संसार में रहने की जगह दी। संसार को देखने, सुनने और समझने की शक्ति दी। जिस देह के माध्यम से आपने अपनी प्रत्येक इच्‍छाओं की पूर्ति की उस देह की हत्या करना बहुत बड़ा अपराध है। जरा सोचिए इस बारे में। आपका कोई सबसे खास, सगा या अपना कोई है तो वह है आपकी देह।
वैदिक ग्रंथों में आत्मघाती मनुष्यों के बारे में कहा गया है:-
असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता।
तास्ते प्रेत्यानिभगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:।।
अर्थात आत्मघाती मनुष्य मृत्यु के बाद अज्ञान और अंधकार से परिपूर्ण, सूर्य के प्रकाश से हीन, असूर्य नामक लोक को गमन कहते हैं। एेसी मृत्यु सामान्य मौत न होकर अकाल मौत होती है। अकाल का अर्थ होता है असमय। प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा या प्रकृति की ओर से एक निश्चित आयु मिली हुई है। उक्त आयु के पूर्व ही यदि व्यक्ति हत्या, आत्महत्या, दुर्घटना या रोग के कारण मर जाता है तो उसे अकाल मौत कहते हैं। उक्त में से आत्महत्या सबसे बड़ा कारण होता है। शास्त्रों में आत्महत्या करना अपराध माना गया है। आत्महत्या करना निश्चित ही ईश्वर का अपमान है।
मेरी बात से इतर विचार रखने वाले कल भी थे आज भी होंगे लेकिन इस विषय पर भी बड़ा सा लिखने का मानस है। आज तो इतना ही ।

सावधान, सचेत व सतर्क रहने का मौसम

बस यूं.ही

करीब दो सप्ताह भर पहले तक सोशल मीडिया पर एक मैसेज हर दूसरे तीसरे दिन आता था। मैंने इस मैसेज पर मुआ कोरोना की सीरीज में लिखने की भी सोची लेकिन मामला फिर दिमाग से निकल गया। आज मेरे गांव में चोरी की दूसरी वारदात तथा झुंझुनूं में एक परिवार को बंधक बनाकर लूट करने की घटना ने सोचने पर मजबूर किया। इस मैसेज को फिर से तलाशा तो यह मिल गया। मैं इस मैसेज की सच्चाई का दावा नहीं करता लेकिन इसमें जो नसीहतें हैं, वो वाकई काम की हैं। कोरोना के बाद उपजे हालात में हमें न केवल कोरोना से खुद को बचाना है बल्कि अब और अधिक सतर्क, सावधान एवं सचेत रहने की जरूरत है। एेसा मान लीजिए अब चुनौती अकेले कोरोना की ही नहीं है बल्कि अपराधिक घटनाओं के प्रति सावचेत रहने व इनसे बचाव करने की भी है। कोरोना के चलते बेरोजगारी इस कदर बढ़ी है अब अपराधिक वारदातें बढऩे की भी आशंका प्रबल हो चली है। अब बात सोशल मीडिया पर वायरल मैसेज कर लेते हैं। उसकी एक-एक लाइन गंभीरता से पढि़ए, यह मैसेज पुलिस के नाम से है 'सावधान! बढ़ सकते हैं गुंडागर्दी, डकैती, चोरी, छिनाझपटी। लॉकडाउन खुलने के बाद एक महत्वपूर्ण संदेश...
कोरोना के कारण अधिकतर लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई है, इस कारण अपराध में उछाल आएगा। लूटपाट, छीना-झपटी व चोरी-चकारी में तेजी आएगी। शहरों या कस्बों में हम सभी को इस स्थिति से अवगत होना चाहिए। जब एक बार लॉकडाउन आंशिक रूप से या पूरी तरह से उठा लिया जाता है। अपने आप को अपने परिवार और अपने सामान को बचाने में सक्रिय रखें। जितने दिन भी, इन दिनों लॉक डाउन रहेगा, उन सभी दिनों में कमाई लगभग 'न' के बराबर होगी, इसलिए नौकरी छूटने या व्यापार पर कुप्रभाव के कारण, असामाजिक घटनाओं में अचानक उछाल आ सकता है। लोगों को बहुत सावधान रहना होगा। इसमें घर के लोग, बच्चे, स्कूल और कॉलेज जाने वाले लड़के / लड़कियां, कामकाजी महिला/पुरुष सभी शामिल हैं। इस दौरान हो सके तो महंगी घड़ियां न पहनें। महंगे चेन, चूड़ियां, ईयर रिंग्स न पहनें। अपने हैंड बैग्स के साथ सावधानी बरतें। पुरुष हाई एंड वॉच, महंगे कंगन और चेन पहनने से परहेज करें। अपने मोबाइल फोन का ज्यादा इस्तेमाल जनता (सार्वजनिक) में न करें। सार्वजनिक रूप से मोबाइल का उपयोग कम से कम करने की कोशिश करें। किसी भी अजनबी को वाहन में लिफ्ट न दें। आवश्यकता से अधिक धन लेकर भ्रमण पर न जाएं। अपने क्रेडिट और डेबिट कार्ड को सुरक्षित रखें। अपने बड़ों, पत्नी और बच्चों के कल्याण के बारे में जानने के लिए समय-समय पर घर पर फोन करते रहें। घर के बड़ों और लोगों को निर्देश दें कि दरवाजे की घंटी बजाते समय मुख्य दरवाजे से सुरक्षित दूरी बनाए रखें, यदि संभव हो तो ग्रिल गेट का प्रयोग करें। किसी पार्सल या पत्र प्राप्त करने के लिए ग्रिल के करीब न जाने दें। बच्चों को जितना हो सके समय पर घर जल्दी लौटने की हिदायत दें। घर तक पहुंचने के लिए किसी भी एकांत या छोटी शॉर्टकट वाली सड़कों का प्रयोग न करें, कोशिश यही करें कि अधिकतम मुख्य सड़कों का उपयोग करें। जब आप बाहर होते हैं तो अपने आसपास के संदिग्ध लोगों पर नजर रखें। हमेशा हाथ में एक आपातकालीन नंबर होना चाहिए। लोगों से सुरक्षित दूरी बनाए रखें। पब्लिक ज्यादातर मास्क पहनेगी अत: अपराधियों को पहचानना मुश्किल होगा। जो कैब सेवाओं का उपयोग करते हैं, कृपया अपनी यात्रा का विवरण अपने माता-पिता, भाई-बहन, रिश्तेदारों, दोस्तों या अभिभावकों के साथ साझा करें। सरकारी परिवहन प्रणाली की कोशिश करें और उसका उपयोग करें। भीड़ वाली बसों से बचें। अपने दैनिक सैर के लिए उजाले में लगभग सुबह छह बजे के आसपास जाएं, शाम को अधिकतम आठ बजे तक मुख्य सड़कों का उपयोग करें। खाली सड़कों से बचें। मॉल, समुद्र तट और पार्कों में ज्यादा समय न बिताएं। अगर बच्चों को ट्यूशन क्लासेस अटेंड करना है तो बड़ों को उन्हें लाने एवं छोड़ने की जिम्मेदारी दें। अपने वाहनों में कोई कीमती सामान न छोड़े। कम से कम तीन महीने या समग्र स्थिति में सुधार होने तक इसका पालन करना होगा। इस जानकारी को सभी रिश्तेदारों, मित्रों, घर के सदस्यों से साझा करे।'
यह मैसेज कथित पुलिस का बताया जा रहा है। भले ही यह पुलिस का हो न हो लेकिन इसकी नसीहतें गौर करने वाली हैं। बदले हालात में कुछ सावधानी तो बरतनी ही होगी। अपने आसपास के माहौल तथा गांव व गली मोहल्लों में आने वाले संदिग्ध लोगों पर नजर रखनी होगी। अकेली पुलिस पर निर्भरता छोडऩी होगी। जब झुंझुनूं जैसे शहर ही सुरक्षित नहीं है, जहां पुलिस व प्रशासन का लवाजमा बैठता है तो गांव -ढा़णी की सुरक्षा की कल्पना तो सहज ही की जा सकती है। गांव में फिर से ठीकरी पहरे को अपनाना होगा। कोरोना आया तब गांवों में जिस तरह युवाओं ने रास्ते बंद किए थे, उसी तर्ज पर अब सुरक्षा करनी होगी। पूछ-परख के बाद ही आवाजाही करनी दी जाए। सच में यह समय संकट का है। इसलिए सभी की सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि अपने आसपास के वातावरण को सुरक्षित रखें व भयमुक्त बनाएं। खुद भी सुरक्षित रहें तथा अपने परिवार, मोहल्ले या गांव को भी सुरक्षित रखने में योगदान देवें।

याद आया गांव

बस यूं.ही

'गौरी तेरा गांव बड़ा प्यारा, मैं तो गया मारा आके यहां रे...' चितचोर फिल्म के इस गीत वाले गांव का तो मुझे पता नहीं कैसा होगा लेकिन मुझे मेरा गांव बड़ा प्यारा लगता है। बहुत से गांव देखे। तीन चार राज्यों में भी घूमा लेकिन गांव जैसा सुकून कहीं नहीं मिलता। शहर के बंद कमरों में एसी व कूलर की हवा में कट रही जिंदगी से लाख गुना वो नीम की छांव भली थी। भरी दुपहरी में नीम के पेड़ के नीचे चारपाई पर डालकर सोने के आनंद की अनुभूति तो बस पूछिए ही मत। बचपन से लेकर जवां होने तक का सफर गांव की गलियों में ही बीता। चौबीस साल गांव में बिताने के बाद शहर की ओर रुख किया था। भला कोई खुशी-खुशी गांव छोड़ता है? शायद नहीं। आरिफ शफीक का यह शेर वाकई काफी कुछ कह जाता है।
'जो मेरे गांव के खेतों में भूख उगने लगी, मेरे किसानों ने शहरों में नौकरी कर ली ।' सच में भूख मतलब पेट के लिए गांव छोडऩा मजबूरी है। मेरी ही नहीं उन तमाम लोगों की भी जिनका गांव में जीविकोपार्जन का कोई साधन नहीं है या फिर मेहनत के अनुपात में प्रतिफल नहीं मिलता है। बीस साल से पत्रकारिता के चलते गांव से दूर हूं लेकिन गांव से जुड़ाव लगातार रहा। हर माह गांव जाने की आदत रही है। मुझे याद है पत्रकारिता के शुरुआती समय में.हर माह गांव जाने की इस आदत से झुंझलाकर मेरे तत्कालीन संपादक ने यहां तक कह दिया था 'यार शेखावत, अखबार छापने की एक मशीन आपके गांव में भी लगवा देते हैं। इससे हर माह आने-जाने का झंझट की खत्म हो जाएगा।' और मैं उनकी बात सुनकर मुस्कुरा दिया करता था। वक्त गुजरा, जिम्मेदारियां बढ़ी। राजस्थान से दूसरे प्रदेश भी गया लेकिन कभी तीन माह से ज्यादा गांव से दूर नहीं रहा। 2014 के बाद तो परिजनों को साथ ले आया वरना इससे पहले अधिकतर बार होली-दिवाली गांव में ही मनाई। आज गांव का अचानक ख्याल आया। याद आया कि गांव गए हुए तो छह माह हो गए। काम की आपाधापी एवं भागदौड़ में गांव याद ही नहीं रहा। पिछले साल 11 दिसम्बर को गांव से श्रीगंगानगर लौटा था। बीस दिन ही बीते होंगे कि जोधपुर तबादला हो गया। जोधपुर में नया काम था, लिहाजा व्यस्तता ज्यादा रही। इतनी कि पिताजी एवं बच्चे श्रीगंगागनर से जोधपुर अकेले ही आए। इसके बाद मार्च में अचानक कोरोना के चलते लॉकडाउन लग गया और मेरा गांव तो क्या आफिस जाना भी दुभर हो गया। जीवन में एेसा पहली बार हुआ जो छह माह से गांव से दूर हूं। व्यस्तता का अंदाजा इसी से लगा लीजिए कि पिछले छह माह में मात्र दो ही अवकाश लिए हैं। खैर, मेरा गांव से प्रेम कोई दिखावा नहीं है। सच्चाई तो यह है कि मैं हमेशा गांव आने की वजह तलाशता रहता हूं। बस थोड़ा सा बहाना चाहिए। किसी शायर ने तो यहां तक कह दिया कि 'सुना है उसने खरीद लिया है करोड़ों का घर शहर में, मगर आंगन दिखाने आज भी वो बच्चों को गांव लाता है । ' पर हकीकत यह है कि शहर में अपना कोई घर नहीं है। और जो है वह किराये का है, लिहाजा गांव का आंगन ही अपना है। बच्चों का है। मेरा गांव ही मेरा देश है। मेरा गांव सदा आबाद रहे। जय जननी जय जन्म भूमि ..।

मुआ कोरोना- 50

बस यूं.ही

जीवन में पचास का बड़ा महत्व होता है। तभी तो पचास का जश्न भी जोरदार मनता है। भले ही जन्म के पचास साल हों या शादी के। क्रिकेट में भी पचास का खासा महत्व है। अर्ध्दशतक होते ही बल्लेबाज के चेहरे पर सुकून भरी खुशी देखी जाती है। चूंकि मैं भी लंबे समय से क्रिकेट का मुरीद रहा हूं। स्कूल से लेकर कॉलेज तक और उसके बाद भी काफी क्रिकेट खेला है। इसीलिए पचास रन होने की बड़ी खुशी होती है। टीम का स्कोर ही जब पचास पहुंचता तो खूब तालियां बजाते थे। बाद में ऐसी उपलब्धि व्यक्तिगत खाते में दर्ज होती है उस खुशी का तो कहना ही क्या। खैर, आज क्रिकेट की तरह लेखन में भी फिफ्टी हो गई है। कोरोना पर आज पचासवीं कड़ी लिखते हुए बेहद खुशी का एहसास हो रहा है। एेसी खुशी, जिससे शब्दों में बयां करना मुश्किल हो रहा है। सोचा नहीं था, 21 अप्रेल को कोरोना से आए बदलावों को शब्द देते-देते इतना लंबा लिख जाऊंगा। वैसे तो रोज ही लिखने का काम है लेकिन एक विषय पर इतना लंबा पहली बार ही लिखा है। इससे पहले 2014 में जगन्नाथ पुरी यात्रा पर संस्मरण लिखा था। वैसे कोरोना पर लिखते समय सबसे पहले ही कह दिया था कि कोरोना पर सकारात्मक लिखने का प्रयास रहेगा। गंभीर बातें भी हास्य, व्यंग्य, गीत, कहावतों, मुहावरों व चुटकुलों के माध्यम से निसंदेह लच्छेदार बन पड़ी। आज एक जून को जब लगभग सारा देश खुल चुका है, लॉकडाउन की अधिकतर पाबंदियों में ढील दे दी गई है लेकिन कोरोना संक्रमितों का आंकड़ा दो लाख को छूने को आतुर है। रोज का आंकड़ा देखे तो ग्राफ ऊपर ही चढ़ रहा है। यह बढ़ती गिनती निसंदेह धड़कनें भी बढ़ाती हैं। वैसे आंकड़ों का खेल होता भी बड़ा रोचक है, पत्रकारिता में कहा जाता है कि आंकड़ों से कई तरह की खबरें बनाई जा सकती हैं। मैं दावा करता हूं नैराश्य व घबराहट बढ़ाने वाले आंकडों को अगर दूसरी तरीके से पेश किया जाए तो वो डराएंगे नहीं बल्कि उम्मीद जगाएंगे। वो ही गिलास को आधा खाली व आधा भरा बताने वाली बात है। खाली बताना नकारात्मकता की निशानी है जबकि आधा भरा कहना सकारात्मक है। एक जून तक कोरोना से कुल संक्रमित, कुल मौतें तथा ठीक हुए लोगों के आंकड़ों को गिलास आधा भरा आधा खाली वाले अंदाज में देखेंगे तो यकीनन मन में भावना भी वैसी ही आएगी। यकायक कोई आपको बताए कि एक जून तक भारत में कोरोना संक्रमित एक लाख 90 हजार से ज्यादा हैं तो यह सुनकर आप जरूर चिंतित हो जाएंगे और इनमें से अगर 92 हजार ठीक होने वालों मरीजों की संख्या घटा दी जाए तो यह एक आंकड़ा एक लाख से भी नीचे आए। पर विडम्बना यही है कि संक्रमितों का बढ़ता आंकड़ा न केवल प्राथमिकता पाता है बल्कि यह कुल योग में ठीक हुए संक्रमितों को भी शामिल बताता है। हां दूसरी या तीसरी लाइन में जरूर कहा जाता है कि इनमें इतने संक्रमित ठीक हो चुके हैं। इसी बात को उलट दिया जाए तो सोचिए जो नकारात्मक माहौल बना है, उसको कम करने में कितने मदद मिलेगी। जब संक्रमित ठीक होकर अपने घर ही जा चुके हैं तो टोटल योग में उनको शामिल करना बेमानी है, बेतुका है। पहले तो आज इतने ठीक हुए और अब तक इतने ठीक हो चुके हैं। आज इतने संक्रमित और इतने लोगों की मौत हो गई। इस तरह अब इतने लोग उपचाराधीन हैं। इस तरह कहने या बताने से आंकड़ा डराएगा नहीं। और सभी को यह बात समझने की जरूरत है कि लॉकडाउन में छूट का मतलब यह नहीं है कि कोरोना कहीं चला गया या इसका असर कम हो गया। ऐसा कतई नहीं है, ऐसा सोचना भारी भूल है। हम सब ने दो ढाई माह में जो नई आदतें डाली हैं, उनको अब जीवन में उतरना है तथा नियमित रखना है।
अब थोड़ी सी बात फिल्मों की। कोरोना काल में फिल्मों का निर्माण जरूर बंद है लेकिन जेहन में फिल्में, उनकी गीत और उनके डॉयलॉग घूमते रहते हैं। कोरोना पर न जाने कितने ही गाने फिल्मी गीतों की तर्ज पर बनकर बाजार में आ गए। अब तो चर्चित फिल्मों के डॉयलॉग्स को भी कोरोना से जोड़ा जा रहा है। बताया जा रहा है कि यह फिल्में अगर आज बनती तो इस फिल्म का डॉयलॉग यह होता। नागौर से आए एक परिचित के मैसेज से तो यही परिलक्षित होता है। गौर फरमाइए-
'शोले- ये मास्क मुझे दे दे, ठाकुर। दीवार- मेरे पास मास्क है, सेनिटाइजर है, इन्श्योरेंस है, बैंक बेलेन्स है। क्या है तुम्हारे पास ? मेरे पास कोरोना वेक्सीन हैं। दीवार - मैं आज भी लोगों से हाथ नहीं मिलाता। दबंग- कोविड से डर नही लगता साहब, लॉकडाउन से लगता है। कुछ कुछ होता है - फेफड़ों में कुछ कुछ होता है अंजलि, तुम नही समझोगी। बाजीराव मस्तानी-अगर आपने हमसे हमारा सेनिटाइजर मांगा होता तो हम खुशी खुशी दे देते, मगर आपने तो मास्क ना पहनकर हमारा गुरूर ही तोड़ दिया। डोन- कोरोना की वेक्सीन तो ग्यारह मुल्कों की पुलिस ढूंढ रही है, पर वेक्सीन को ढूंढना ही नही, नामुमकिन है (भगवान ना करे)। देवदास -कौन कमबख्त है जो बर्दाश्त करने के लिये पीता है ? हम तो इसलिए पीते हैं कि देश की इकोनोमी ऊपर उठा सके, लॉकडाउन को बर्दाश्त कर सकें। जिंदगी ना मिलेगी दोबारा - अगर साबुन से हाथ धो रहे हो तो जिंदा हो तुम। अगर चेहरे पे मास्क लगाकर घूम रहे हो तो जिंदा हो तुम। अगर सोशल डिस्टेंसिंग फॉलो कर रहे हो तो जिंदा हो तुम। अगर बारबार चेहरे पे हाथ नहीं लगा रहे तो जिंदा हो तुम। अगर घर में झाडू, पोछा, बर्तन कर रहे हो तो जिंदा हो तुम। दामिनी- तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख, हमेशा अगले लॉकडाउन की तारीख ही मिलती रही है मिलोर्ड पर लोकडाउन की आखिरी तारीख नही मिली। मैंने प्यार किया - क्वोरन्टाइन का एक उसूल है मैडम - नो मीटिंग, नो गोइंग आउट। ओम शांति ओम -अगर कोरोना के नए केस आने बंद नही हुए तो समझ लो कि लॉकडाउन अभी बाकी है मेरे दोस्त। मुगल-ए-आजम - सोशल डिस्टेंसिंग तुम्हें मरने नहीं देगा और लॉकडाउन तुम्हें जीने नही देगा। पाकीजा - आपके पांव देखे, बहुत हसीन हैं। इन्हें घर पर ही रखिएगा वरना कोरोना हो जाएगा। दीवार -जाओ,पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ जिसने बिना मास्क के पब्लिक में छींक दिया था। शहंशाह -रिश्ते में तो हम सारे वायरस के बाप लगते हैं, नाम है कोरोना।' यकीनन यह सब फुरसत का काम है। इन डॉयलॉग्स को पढ़कर मुझे बचपन में एक कॉमिक्स में पढ़ा एक लंबा सा डायलॉग याद गया। इस डायलॉग में अमिभाभ की फिल्मों के नाम छिपे हैं। सुनिए, ' क्यों बे, लावारिस जेडी मिस्टर नटवरलाल को तूने ही फाइल चुराने भेजा था। साले देश का नमक खाकर तू भी मेरे तरह नमक हलाल नहीं बन सका। जानता नहीं हमारा अंधा कानून बहुत लंबे हाथ वाला है। अब तेरे पास यही आखिरी रास्ता बचा है, जल्दी से इस जंजीर को पहन ले और गिरफ्तार होकर अदालत चल। ज्यादा शक्ति दिखाने की कोशिश की तो मार-मार के खून-पसीना एक कर दूंगा।' इतना लिखने के बाद अब थकावट ने घेर लिया है। शाम भी ढल चुकी है। आप यह पोस्ट पढि़ए तब तक मैं चारपाई पर थोड़ा सुस्ता लेता हूं।
क्रमश :

मुआ कोरोना-49

बस यूं ही

आपको याद होगा जब साल 2020 लगा था तब भी चुटकुले बने थे। कहा गया था, असली टी-20 तो अब शुरू हुआ है। वाकई कोरोना के आने से लगने लगा है, असली टी-20 तो यही है। इसके आगे तो सब कुछ फेल हो गया। खेल के मैदान सूने पड़े हैं। बल्लेबाजों का बल्ला खामोश हैं। गेंदबाजों की गेंद भी कोई कमाल नहीं दिखा पा रही है। टीवी तो पुराने मैच दिखा कर ही दर्शकों का मन बहला रहा हैं। अखबारों के खेल पेज भी समाचारों के अभाव में सिमट कर छोटे हो गए हैं। खेल ही नहीं तो कैसे समाचार। कोरोना से पहले शायद ही एेसा कोई दिन जाता हो जब खेल नहीं खेला जाता रहा हो। कोरोना ने तो सारी खेल गतिविधियां ही चौपट कर दी। ऐसे मे माना जा सकता है कि यह साल ना केवल क्रिकेट वाले टी-20 पर भारी है बल्कि एकदिवसीय एवं टेस्ट मैच भी इसके आगे पानी भरते नजर आ रहे हैं। कितना अजब-गजब मर्ज है यह। केवल नाम से ही समूचे संसार में हड़कंप मचा है। भले ही काफी लोग इसके संक्रमण से बच हुए हैं लेकिन एेसा कोई भी नहीं है, जो इसकी वजह से प्रभावित न हो। सिनेमाघरों में सन्नाटा पसरा है। फिल्म बनना तक बंद हो गया है। टीवी पर भी धारावाहिकों का अकाल पड़ गया है। पुराने धारावाहिकों का प्रसारण फिर से शुरू हो गया है। नए बन ही नहीं रहे हैं तो दिखाए क्या? इसीलिए पुराने धारावाहिकों का नंबर लग गया। किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि डिब्बे में बंद इन धारावाहिकों के दिन इस तरह से फिरेंगे। पार्कों में लोगों का घूमना बंद हो गया। पार्क एवं सिनेमा घर ही तो एेसी जगह हैं , जहां आदमी सुकून के दो पल खोजने जाता है। विशेषकर युवाओं के लिए तो यह दोनों जगह किसी स्वर्ग से कम नहीं होती है। हाथ में हाथ थामे युगल अब न तो पार्कों में टहलते दिखाई देते हैं और न सिनेमाघरों में। सामान्य दिनों में सर्वाधिक गुलजार रहने वाले इन दोनों ही स्थानों पर अजीब सी खामोशी पसरी है। अब बात कोरोनाकाल की कुछ अनूठी घटनाओं की भी कर लेते हैं। लोग कोरोना के नाम से इतना डरते हैं कि जिस गली में कोई कोरोना संक्रमित मिल जाता है, वहां कर्फ्यू तक लगा दिया जाता है। आवाजाही बिलकुल रोक दी जाती है। एहतियातन इतनी सुरक्षा कमोबेश हर जगह बरती जा रही है लेकिन चंडीगढ़ की एक घटना ने चिकित्सा जगत को हैरान कर रखा है। यह घटना उनके लिए किसी अजूबे से कम नहीं है। एक मां 18 माह की कोरोना संक्रमित बेटी के साथ 20 दिन एक बेड पर रही और संक्रमण से बच गई। इतने दिन पास रहकर भी संक्रमण से बचे रहने पर रिसर्च तक करने की बातें हो रही हैं। इसी तरह पटना में एक 14 साल की बच्ची में कोरोना का ऐसा वायरस घुस गया है, जो निकलने का नाम ही नहीं ले रहा है। न खांसी, न बुखार और ना ही कोरोना के कोई लक्षण। इसके बाद भी लगातार 6 बार जांच रिपोर्ट पॉजिटिव गई। इससे डाक्टर भी घबराए हुए हैं। इस बच्ची का पूरा परिवार कोरोना संक्रमित था और वह ठीक हो चुका है लेकिन वह अकेली अस्पताल में भर्ती है। इसमें 24 अप्रैल को संक्रमण की पुष्टि हुई। 30 दिन में छह बार उसकी जांच कराई गई, लेकिन हर बार वह पॉजिटिव पाई गई। डॉक्टर इस मामले को भी शोध का विषय मान रहे हैं। इधर, मेरठ में कोरोना का नाम तो एक बदमाश के लिए ढाल ही बन गया। हुआ यूं कि चोरी करने घुसे एक बदमाश को लोगों ने दबोच लिया। सूचना पर पुलिस मौके पर आई और बदमाश को थाने ले जाने की तैयारी करने लगी तो बदमाश चिल्लाया कि उसे कोरोना है और हाथ लगाया तो सभी को संक्रमण हो जाएगा। इतना सुनते ही पुलिस के पसीने छूट गए। उसने न तो आरोपी को पकड़ा और न ही उसको गाड़ी में बैठने का इशारा किया गया। इसी बीच आरोपी पुलिस के सामने ही नौ दो ग्यारह हो गया। मध्य प्रदेश के बैतूल में एक युवक को अपनी गर्लफ्रेंड से मिलना भारी पड़ गया। युवक अपनी गर्लफ्रेंड से मिलकर चुपके से गांव लौटा था लेकिन गांवों को किसी तरह पता चला गया कि उसकी गर्लफ्रेंड कोरोना पॉजिटिव है। फिर प्रशासन ने युवक को क्वारंटीन कर दिया। यह देखिए, यह मामला तो और भी रोचक है। कोरोना ने भले ही सभी को भयभीत कर रखा हो लेकिन छत्तीसगढ़ की राजधानी में जन्मे जुड़वा भाई बहिन का नाम कोरोना व कोविड रखा गया है। उधर पटना में तो कमाल की बात सुनी। वहां कोरोना संक्रमित को इलाज के लिए भर्ती किया गया। भर्ती के दौरान उसका सेंपल लिया गया। इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई लेकिन जो सेंपल लिया था उसकी रिपोर्ट नेगेटिव आ गई। यह मामला भी अच्छी खासी चर्चा का विषय बना। मध्य प्रदेश के सागर में युवक ने टिकटॉक एप पर वीडियो बनाकर मास्क का मजाक उड़ाया। अब उसकी रिपोर्ट भी कोरोना पॉजिटिव आई है। फिलहाल सोशल मीडिया पर वायरल इन दो पोस्टों की चर्चा भी कम नहीं है। भरतपुर की बताई जा रही इस पोस्ट में मास्क की जगह रुमाल बांधें एक व्यक्ति की चालान रसीद काट दी गई जबकि केन्द्र एवं राज्य सरकार का नियम है कि सार्वजनिक स्थान पर मुंंह ढका होना चाहिए, भले ही वह मास्क से हो, रुमाल से हो या गमछे से। एक चर्चा और बक्सर में क्वारेंटीन युवक है, जिसकी खुराक ने शेफ को परेशानी में डाल रखा है। बताया गया है कि यह युवक दस जनों का खाना अकेले खा जाता है। मतलब चालीस रोटी एवं दस प्लेट चावल रोज खा जाता है। बताया जा रहा है कि चिंता के कारण भी व्यक्ति ओवर इंटिंग मतलब अधिक खाने लग जाता है। स्ट्रेस में कोर्टिसोल हार्मोन अधिक रिलीज होने लगता है जो इंसान को अधिक खाने के लिए उकसाता है। तो अब आप यह सोचना तो छोड़ ही दो कि डर आदमी की भूख-प्यास गायब कर देता है। बक्सर के युवा ने इस धारणा को तोड़ दिया है।
क्रमश:

उठाव धीमा, जिम्मेदार कौन?

टिप्पणी

कोरोना महामारी के वैश्विक संकट तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच धरतीपुत्र ने अपनी 'मेहनत के मोती' जैसे-तैसे सहेज तो लिए लेकिन उसके सामने अब नया संकट खड़ा हो गया है। श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले में बेमौसम आई बरसात से किसानों की 'खून-पसीने की कमाई' बर्बाद हो रही है। दोनों जिलों की मंडियों में रखा लाखों मीट्रिक टन बरसात में भीग गया। गेहूं भीगा क्यों? इसको लेकर कोई भी जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं है। हालात ये है कि बोरियों में रखा गेहूं भीग कर 'घूघरी' बन चुका है। फिर भी जिम्मेदार नुकसान को ही नकार रहे हैं। वो खुले में पड़े गेहूं के लिए किसान व व्यापारी को ही जिम्मेदार मानते हैं। देखा जाए तो मंडियों में खरीद कार्य में बदइंतजामी व आधी अधूरी तैयारियों के कारण इस तरह के हालात पैदा होते हैं। सवाल यह भी है कि किसान की जिन्स मंडी में खुले में पड़ी है तो उसके लिए जिम्मेदार कौन है? जब पता होता है कि जिन्स की आवक शुरू होने को है तो तैयारियां भी उसी स्तर पर होनी चाहिए। व्यवस्था भी ऐसी हो कि जितनी खरीद हो उतना उठाव भी। किसानों को बारी-बारी से भी बुलाया जा सकता है। फिर अगर किसान बड़ी संख्या में आ रहे हैं तो अतिरिक्त व्यवस्था करनी चाहिए ताकि उनकी जिन्स की न केवल तुलाई हो बल्कि उसको बोरियों में भरकर उठाव भी उसी दिन हो जाए। उठाव के साधन कम हैं तो अतिरिक्त साधन जुटाने चाहिए। देखा गया है कि किसान अपनी जिन्स मंडी तक ले आया और बदइंतजामी के चलते उसकी तुलाई नहीं हुई और बारिश आ गई, तो उसकी मार किसान पर ही पड़ती है, जबकि होना यह चाहिए कि मंडी में जिन्स आने के बाद उसकी सुरक्षा की गारंटी तो मिले। भले ही बारिश आए न आए। भले उठाव हो या न हो। तुलाई हो न हो। और जब मौसम को लेकर अलर्ट था तो व्यवस्था क्यों नहीं की गई। वैसे इस मामले में बड़ी समस्या धीमे उठाव की भी है। हर साल यह समस्या आती है। इसका स्थायी हल खोजना चाहिए। उठाव समय पर हो तो नुकसान कम होगा। वैसे भी नुकसान तो नुकसान है, वो चाहे किसानों का हो, व्यापारियों का हो सरकार का लेकिन नुकसान की ज्यादा भरपाई किसान ही क्यों करें, जो दोषी है उससे क्षतिपूर्ति की जाए। जिंसें खराब होने की वजह खोजी जाएगी तो यकीनन समस्याओं के लिए जिम्मेदार भी सामने आएंगे। ये जिम्मेदार मंडी समिति, खरीद एजेंसियां, स्थानीय प्रशासन या उठाव में अनावश्यक अड़ंगा लगाने वाले हो सकते हैं। या इसके अलावा भी कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी हो सकता है।
उम्मीद की जानी चाहिए इस नुकसान को सबक के रूप में लेते हुए भविष्य में व्यवस्थाएं चाक चौबंद होंगी ताकि किसी भी स्तर पर न तो कोई समस्या हो और न कोई नुकसान।

--------------------------------------------------------------------------------------------

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगागनर-हनुमानगढ़ संस्करण में 01 जून 20 के अंक में लगी है।

मुआ कोरोना- 48

बस यूं.ही
ताना मारने या तंज कसने का इतिहास पुराना है। हालांकि कई बार मजाक भी बड़ी लड़ाई की वजह बन जाता है। मां भी कहा करती थी, राड़ की जड़ हांसी, और रोग की जड़ खांसी। राड़ मतलब लड़ाई की वजह हंसी ही होती है और रोग की जड़ खांसी। अक्सर आपने परिचितों एवं दोस्तों के बीच सुना होगा कि मजाक इतना करो जितना सहन हो। या मजाक सहन नहीं होता तो मजाक मत किया करो। खैर, बात ताने की थी। वाकई ताना जो है ना वो अंदर तक मार करता है। ताने का घाव तलवार से भी घातक माना गया है। याद होगा द्रोपदी के एक ताने की वजह से तो महाभारत जैसा युद्ध हो गया था। इतना सब है फिर भी ताने जीवन के अभिन्न अंग हैं। हर काल खंड में तानों का जिक्र कहीं न कहीं आया ही है। ऐसे में कोरोनाकाल भला तानों से अछूता कैसे रहता। 2020 का नया ताना आया है 'अरे जितने लोग तेरी शादी में आए हैं ना उतने तो हमारी शादी में वेटर आए थे।' यही तो है ताना। एक तरह से दुखती रग पर हाथ धरना और अगले को कुछ उल्टा सीधा बोलने पर मजबूर करना।
देखिए अब यह नसीहत भी तो जले पर नमक छिड़कने के जैसी ही है। 'रिश्तेदार के यहां किसी शादी में यदि आपको निमंत्रण नहीं आता है तो समझ जाएं कि टॉप 50 रिश्तेदारों में आपका नंबर नहीं है। इसलिए भ्रम से बाहर आएं और अपना व्यवहार व आदतें सुधारें। बहरहाल, अब गुणग्राहकों के सुझाव भी आने लगे हैं। वो विषय भी सुझाने लगे हैं। चूंकि कोरोना से अछूता कुछ भी नही बचा है, इसलिए जितना भी लिखो, जिस भी विषय पर लिखो कम है। कोरोना ने सभी को मार दी है। कोई इस चोट को चुपचाप सहला रहा है तो कोई चिल्लाकर अपने पीड़ा कम करने की जुगत में है। कहने का सार यही है कि मार सब पर पड़ी है। इसलिए छोडऩे या शामिल करने की बात कोई मायने नहीं रखती। वो कल ही एक परिचित कह रहा था कि जब तक आपके घर में राशन है और अकाउंट में पैसे हैं, कोरोना का डर आपको तब तक ही लग रहा.है। जिस दिन राशन और बैंक बैलेंस खत्म हो जाएगा उस दिन कोरोना का डर भी खत्म हो जाएगा। वाकई यह गहरी बात है। डर खत्म होने का आशय है कि आदमी भूख के आगे सबको भूल जाएगा। वैसे भी भूख से बड़ी कोई बीमार नहीं होती। पूर्व की पोस्ट में भुखमरी एवं भूखे आदमी के गद्दार बनने की बात लिख चुका हूं। खैर, अब लॉकडाउन की पाबंदियां लगभग खत्म हो चुकी हैं। जो काम झटके से बंद हुए थे वो धीरे-धीरे खुल रहे हैं। करीब दो माह के बाद अब तो भक्त भी भगवान के दर्शन कर सकेंगे। हां यह बात जरूर है कि सरकार ने इतना लंबा लॉकडाउन करके हम सबको आत्मनिर्भर बना दिया है। अब कोरोना से अपने को ही बचाव करना है या लडऩा है। कल ही तो बीकानेर से एक परिचित ने मैसेज भेजा था कि केंद्र सरकार (पीएम) ने अपना जिम्मा राज्य सरकार (सीएम) पर छोड़ दिया। राज्य सरकार (सीएम) ने जिला कलक्टर (डीएम) पर, जिला कलक्टर (डीएम) ने नगर प्रशासन पर, नगर प्रशासन ने दुकानदारों पर, दुकानदारों ने लोगों पर और लोगों ने खुद को राम भरोसे छोड़ दिया। और इस तरह कोरोना से मुकाबला करने के लिए भारत आत्मनिर्भर हो गया है। आत्मनिर्भरता का मतलब यही तो है कि अपना बचाव खुद करो। मुझे तो लॉकडाउन लगा उससे ज्यादा चुनौतीपूर्ण माहौल अब लग रहा है जब लॉकडाउन हट रहा है। और यह लॉकडाउन एेसा है कि सहा नही जाता है। यही दोहरा संकट शायद सरकार के साथ होगा, इसलिए गेंद जनता के पाले में फेंक दी। अब यह तो जनता पर निर्भर है कि वो उस गेंद से खेले, देखे या गेंद को घर के किसी कोने में सजा कर रख दे। इसीलिए अब किसी भी अव्यवस्था पर, किसी भी लापरवाही पर, किसी भी मौत पर या संक्रमण फैलने पर सरकार को गरियाना छोडऩा होगा, क्योंकि सरकार कुछ कर ही नहीं रही। संक्रमित वही होगा, जो लापरवाही बरतेगा या तय गाइडलाइन की पालना नहीं करेगा। इसलिए गुनाह की भागीदार अब सिर्फ जनता होगी।
क्रमश:

मुआ कोरोना- 47

बस यूं.ही

दिमाग का दही हो गया। यह डॉयलॉग यकीनन आपने बोला होगा, सुना होगा या कहीं पढ़ा तो जरूर होगा। दिमाग का दही होने का मतलब है, सोचने व समझने की क्षमता का जवाब देना। आज मेरी भी हालत कमोबेश एेसी ही थी। सुबह से लेकर शाम तक इतना व्यस्त रहा कि कोरोना पर लिखने के लिए ठीक से वक्त ही नहीं निकाल पाया। सचमुच आज दिमाग का दही ही नहीं उससे कहीं ज्यादा हो गया। रायता या छाछ भी कह सकते हैं। रायता व छाछ से तुलना इसीलिए कि यह दही को मथने के बाद ही तैयार होते हैं, मतलब बनते हैं। और जब दिमाग का दही बनता है तथा दही मथा जा सकता है तो लाजिमी है वह रायता या छाछ भी बन सकता है। खैर, दही व दिमाग की इस चर्चा के बीच सुबह सबसे पहले तो हिन्दी पत्रकारिता दिवस की बधाई के संदेश आने लगे थे। इस बार पता नहीं क्यों, बधाई कुछ ज्यादा ही दी जा रही थी। झुंझुनूं के एक दल विशेष के कल ही बने व्हाटस एप ग्र्रुप में तो मुझे भी जोड़ा गया था। वैसे यह पत्रकारों का ग्रुप बनाया गया था। मैंने जोड़ने की वजह भी पूछी लेकिन कोई जवाब नहीं आया। बाद में ग्रुप में बातें पढी तो जाना कि यह पार्टी विशेष के प्रेस नोट जारी करने के लिए ग्रुप बनाया गया है। इसमें तीन आदमी पार्टी प्रेस नोट जारी करेंगे। एक दो पत्रकारों ने बहस भी की, एक दो लेफ्ट भी हुए। बाद में एडमिन के समझ आया होगा कि इस तरह तो रायता बिखर जाएगा तो उन्होंने ग्रुप की सेटिंग बदल कर 'ओनली एडमिन्स सेंड मैसेज' कर दी। वैसे जब से कोरोना आया है तब से एडिमन एक तरह से तानाशाह हो गए हैं, या फिर बेहद.डरपोक। मतलब वो जो कहें वो ही सहें। बाकी सब उनकी पोस्ट पढऩे व समझने को मजबूर। कोई इन एडमिन से पूछे कि भाई यह ग्रुप बनाया ही किसलिए था? किसी को कुछ कहना था तो इनबॉक्स में ही कह सकते थे ? इस तरह ग्रुप बनाकर अपनी मनमानी करना कहां का न्याय है भला। पता नहीं किस बात से डरते हैं ये एडमिन। और अगर डरते ही हैं तो इस तरह के ग्रुप बनाते ही काहे हैं। मेरी बताऊं तो मुझे बड़ी कोफ्त होती है एेसे ग्रुप व उनके एडमिन से। ग्रुप बनाकर सेटिंग बदलकर बिना मतलब की पंचायती करते हैं। खैर, बात झुंझुनूं वाले ग्रुप व हिन्दी पत्रकारिता दिवस की हो रही थी। वहां भी ग्रुप की रात को सेटिंग बदली गई और चार जनों को एडमिन बना दिया गया। अब चारों ने ही सुबह-सुबह ही पत्रकारों के बीच सहानुभूति बटोरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चारों ने ही हिन्दी पत्रकारिता दिवस के बहाने खुद का चेहरा चमकाया। पता नहीं इन चेहरा चमकाऊ नेताओं ने यह फोटो शॉप खुद ने सीख लिया, कोई एप डाउनलोड कर लिया या भाड़़े-अनुबंध पर कोई बंदा रख लिया। वैसे आजकल खुद की बड़ी सी फोटो लगाकर फेसबुक पर बधाई व शुभकामना देने की होड़ सी लगी हुई है। अखबार आदि में तो प्रचार आदि के लिए जेब ढीली करनी पडती है, यहां फ्री का प्रचार है, लिहाजा कोई दिन खाली जाता ही नहीं है। त्योहार, पर्व व राष्ट्रीय पर्व के अलावा रोज किसी की पुण्यतिथि, जन्मतिथि या अवसर विशेष आ ही जाता है। फ्री में चेहरा चमकाने वाले एेसे ही अवसरों की ताक में तो रहते हैं। झुंझुनूं जिले में पार्टी का ग्रुप बनाने वाले एडमिन को यह तो सोचना चाहिए था कि वो पत्रकारिता दिवस की बधाई तो दे रहे हैं लेकिन कोई पलट के धन्यवाद कैसे ज्ञापित करेगा। सच बताऊं यह बिना मतलब की नेतागिरी मेरे को कभी नहीं जमती। लिहाजा, मैं सुबह ही उस ग्रुप से लेफ्ट हो गया। जोडऩे वाले ने पूछ कर नहीं जोड़ा था, इसलिए वह मेरे लेफ्ट होने का कारण भी किस मुंह से पूछता। मुझे उन तमाम व्हाट्सएप ग्रुप के एडमिन से आपत्ति है, जो बिना पूछे जोड़ लेते हैं और फिर बिना किसी की सुने सेटिंग बदलकर खुद को फन्ने खां समझने लग जाते हैं। वैसे इस बहाने सभी को सलाह भी दूंगा कि इस तरह के डेढ स्याणों के पिछलग्गू बनते ही क्यों हैं ? खैर, दिन भर में और काम आते रहे और मैं कोरोना पर लिखने के लिए वक्त नहीं निकाल पाया। चूंकि यह नियमित कॉलम हैं आज दिन में टाइम नहीं मिला तो अब रात का समय चुना, वैसे लिखने का मूड नहीं था लेकिन बीकानेर से एक परिचित का मैसेज आया। बस उसी से लगा कि कुछ लिखना चाहिए, क्योंकि मैसेज कल प्रासंगिक नहीं रहेगा। मैसेज भी हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर ही था। गौर फरमाइएगा , 'अखबार की भी अग्नि परीक्षा' यह शीर्षक था, आगे लिखा था 'कितनी अग्नि परीक्षा, मैं अख़बार हूं हर सुबह सबकी आंख खुलने से पहले दे देता हूं, दरवाज़े पर दस्तक। बेसब्री से रहता था मेरा इंतज़ार। पर न जाने क्या हुआ ऐसा लगा जैसे मुझ पर भी लग गया कोरोना-ग्रहण। मेरे चाहने वालों ने मुझ से मुंह ही मोड़ लिया। मैं भी समझ गया वो डरते हैं, मुझे छूने से उन्हें भी न हो जाए कोरोना। मेरी अग्निपरीक्षा हुई प्रयोगशालाओं में। समझाया बहुतेरे वैज्ञानिकों ने मीडिया ने कि कागज़़ पर नहीं ठहरता कोरोना वायरस, दस मिनट से ज़्यादा। प्रिटिंग प्रेस में भी सेनेटाइज़ हुआ। लेकिन सीता की तरह अग्निपरीक्षा के बाद भी लोकदृष्टि में रहा संदेह के घेरे में। अब कुछ घरों में हुई मेरी वापसी। पर कहीं मुझ पर गर्म प्रेस फेरी जा रही तो कहीं हाथ धोए जा रहे मुझे पढऩे के बाद। शायद, ज़रूरी हो उनकी सुरक्षा के लिए। लेकिन सोचता हूं कितनी बार होगी आखिऱ, मेरी अग्निपरीक्षा।' जिसने भी लिखा उसको दिल से शुक्रिया। आज की पोस्ट में इतना ही।
क्रमश:

मुआ कोरोना- 46

बस यूं ही
पिछली पोस्ट का समापन बीवी और कोरोना पर बने एक चुटकुले से हुआ था, इसलिए सोचा आज की पोस्ट क्यों न पति-पत्नी के मजाक और चुटकुलों पर ही केन्द्रित रखी जाए। कोरोना काल में हर विषय पर चुटकुले बने हैं तो भला पति-पत्नी कैसे अछूते रहते। सामान्य दिनों में ही पति-पत्नी पर चुटकुले बनते रहते हैं, तो कोरोना काल में बनने ही थे। हां यह बात जरूर दीगर है कि महिला समर्थक जहां कोरोना में महिलाओं की भूमिका की सराहना कर रहे हैं तो पुरुष समर्थक पुरुषों की वाहवाही करने में जुटे हैं। जाहिर सी बात है एेसा करने वालों में उनकी जमात का बहुमत भी होगा। मतलब महिला की प्रशंसक महिलाएं ज्यादा होंगी तो पुरुषों के पुरुष होंगे। आपसी विश्वास, प्यार, चुहलबाजी, नोकझोंक पर टिका पति-पत्नी का रिश्ता अनूठा है, अजूबा है। निराला है। हां कई बार यह रिश्ता अहम, वहम व भावनाओं का अतिरेक लांघ जाता है तो जरूर घातक बन जाता है, वरना इस जैसा कोई दूसरा है भी क्या भला? अन्य पुरुषों की तो कह नहीं सकता है लेकिन मैं अपनी शादी के करीब सोलह साल बाद लगातार 70 दिन पत्नी के साथ बिताने के बाद यह पोस्ट लिख रहा हूं। 70 दिन मतलब बिना आफिस गए लगातार घर पर ही। मतलब जो काम सोलह साल में चाहकर भी नहीं कर सका वो कोरोना ने करवा दिया। गांवों में सैनिकों को दो माह की छुट्टी आते जरूर देखा है लेकिन वो भी दिन में गांव में घूमकर, दोस्तों के बीच बैठकर, या कहीं चौपाल में गप्पबाजी करके टाइम पास करते हैं। लगातार तो वो भी घर पर नहीं रहते। इसलिए यह एक तरह की उपलब्धि ही है। कुछ रोज पूर्व पति-पत्नी का एक कार्टून देखा था। ऊपर हैडलाइन थी प्रधानमंत्री ने दिया आत्मनिर्भरता पर जोर। फ्रेम में पति अखबार पढ़ रहा होता है और पत्नी हाथ में थाली लिए पति के सामने से गुजरती हुए कहती है, 'मैं तो अपनी चार रोटियां सेक लाई, तुम्हारी तुम जानो, आत्मनिर्भर बनो।' इसी तरह चुटकुला है कि 'लॉकडाउन में पत्नी से रुठकर पति बाहर निकलने लगा तो पत्नी बड़े प्यार से बोली, अजी रुठ कर अब कहां जाइएगा, जहां जाइएगा लट्ठ खाइएगा।' हद तो तब हो गई जब कोरोना को पुल्लिंग और कोरोनटाइन का स्त्रीलिंग बना दिया गया।
यह चुटकुला है और मेरा नहीं है। सोशल मीडिया पर वायरल है, इसलिए दिल पर न लेवें।
तो देखें कोरोना कैसे मेल मतलब पुल्लिंग बनता है। ' अभी-अभी एक दोस्त ने हिन्दी में कोरोनटाइन का मतलब समझाया, जैसे ठाकुर की ठकुराइन, पंडित की पंडिताइन होती है। वैसे ही कोरोना की कोरोनटाइन होती है। तभी तो कोरोना, कोरोनटाइन से डरता और कुछ नहीं कर पाता है।' पति-पत्नी के इस चुटकुले ने भी लोगों को काफी गुदगुदाया। इसका तो टिक टॉक जैसे अन्य एप पर वीडियो तक आ गया। देखें, ' बॉस- मैंने तुम्हे कॉल किया था... तुम्हारी पत्नी ने बताया कि तुम खाना बना रहे हो, तो तुमने वापस फोन क्यों नहीं किया मुझे? कर्मचारी- सर किया था, फोन आपकी पत्नी ने उठाया था और बताया कि आप बर्तन धो रहे हैं।' पत्नी-पति से इतर परिवार से जुड़ा जुमला भी है। देखिए, 'कोरोना ने सबसे ज्यादा धर्मसंकट में ससुर एवं जेठ को रखा है। घर पर ही रहना है और खांस भी नहीं सकते।' यहां देखिए, यहां तो पति को बेहद बहादुर बता दिया गया है, 'इतिहास में लिखा जाएगा कि भारतीय पुरुष घर बैठकर अकेले दो-दो वायरस से लड़ा था, एक तो कोरोना दूसरा सुनो ना।' चुटकुलों की यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। जितना गोता लगाओ हंसते जाओ। कोरोनाकाल में तनाव भगाने का एक बड़ा माध्यम यह चुटकुले भी तो हैं। मेरे एक मित्र ने व्हाट्सएप पर स्टेटस तक लगा दिया। वो तो मैंने उसको समझाया कि यह मजाक नहीं है, कोरोना काल में रोटियां हाथ से बनानी पड़ जाएंगी। तब कहीं जाकर उसने वो स्टेटस हटाया। लिखा था ' प्राचीन काल में बीवियां इन दिनों मायके जाया करती थी।' खैर सर्वाधिक हंसी तो मुझे इस चुटकुले पर आ रही है। कोरोना-कोरोना- पॉजिटिव-पॉजिटिव के शोर में आदमी के भीतर तक एक अजीब सा डर बैठा दिया है। उसको हर जगह खतरा नजर आने लगा है। यहां तक कि पॉजिटिव शब्द सुनते ही खतरे की आशंका में कान खड़े हो जाते हैं। इस तरह के मनोभावों पर भी चुटकुले बन रहे हैं। बानगी देखिए। 'कोरोना काल में पॉजिटिव रिपोर्ट - सुबह 6 बजे पड़ोसी ने बाइक की चाबी मांगी और कहा.. मुझे लैब से रिपोर्ट लानी है। मैंने कहा..
ठीक है भाई.. ले जा। थोड़ी देर बाद पड़ोसी रिपोर्ट ले कर वापस आया। चाबी दी, मुझे गले लगाया और बहुत बहुत धन्यवाद कहकर अपने घर चला गया। जैसे ही वह अपने घर गया, गेट पर ही खडे होकर अपनी पत्नी से कहने लगा.. रिपोर्ट पॉजिटिव आई है! जब यह बात मेरे कान में पड़ी तो मैं तो गिरते-गिरते बचा.. घबराकर मैने अपने हाथ सेनिटाइजऱ से साफ़ किए, फिर बाइक को दो बार सर्फ से धोया। फिर याद आया उसने तो मुझे गले भी लगाया था। मैंने मन ही मन में सोचा.. मारा गया तू बेटा, तुझे भी अब कोरोना होगा फिर मैं साबुन से रगड़-रगड़ कर नहाया और बाथरूम में ही दु:खी होकर एक कोने में बैठ गया। थोडी देर बाद मैंने पड़ोसी को फोन करके बोला: भाई, अगर आपकी रिपोर्ट पॉजिटिव थी, तो कम से कम मुझे तो बख्श देते? मैं तो बच जाता। मेरी बात सुनकर पड़ोसी जोर-जोर से हंसने लगा और कहने लगा.. वो रिपोर्ट ? वो रिपोर्ट तो आपकी भाभीजी की प्रेग्नेंसी की रिपोर्ट थी, जो पोजटिव आई है!' इस चुटकुले का निष्कर्ष यही निकला कि हर चीज कोरोना थोड़े ही होती है। पॉजिटिव शब्द से याद आया। कल एक परिचित ने संदेश भेजा था। लिखा था सदी का सबसे मनहूस शब्द ' पॉजिटिव '। खैर जो भी है। वैसे पोस्ट तो आप पढ़ ही चुके होंंगे। थोड़ा हंसे हैं तो थोड़ा और हंस लीजिए तब तक मैं कोई नया विषय खोज कर लाता हूं।

क्रमश: 

मुआ कोरोना- 45

बस यूं ही

आज सुबह से व्यस्तता थी, लिहाजा नियमित किस्त लिखने में कुछ विलम्ब हुआ। इस देरी के लिए, इस इंतजार को खुशी में बदलने के लिए सबसे पहले तो दो जोक सुन लेते हैं, क्योंकि आज की पोस्ट में बात कुछ गंभीर लिखने का इरादा है।
देखिए, 'कोरोना का तो पता नहीं, पर जिस हिसाब से पिछले दो माह से फोन में चिपका हुआ हूं, अंधा होने के नहीं तो मोतियाबिंद होने के पूरे चांसेस हैं।' दूसरा है। 'मैंने एक बात नोटिस की है जब से ये चाइनीज बीमारी आई है, भारतीय बीमारियों की तो कोई इज्जत ही नहीं रही.!' यह बात भले ही मजाक में कही गई हो लेकिन सच यही है। अन्य बीमारियां गायब हो गई या कोरोना से डरा दी गई या डर गई यह अलग विषय है लेकिन लोग बीमार कम हो रहे हैं। कोरोना का डर ही सब पर भारी पड़ रहा है। वैसे अब लोग इस कोरोना का नाम सुन-सुनकर इरिटेट होने लगे हैं। मतलब चिड़चिडे हो गए हैं। झुंझुलाहट बढ रही है। सहनशीलता कम हो रही है। बात-बात पर गुस्सा आने लगा हैं। दूसरों की क्या कहूं मेरा खुद का रक्तचाप बढ़ गया है। खैर, एेसे ही आज सोचने लगा कि यह कोरोना-कोरोना का शोर इतना क्यों है? हर आदमी की जुबान पर यह कोरोना ही क्यों है? माना यह वायरस नया है। इसकी दवाई नहीं बनी, लेकिन मेरा सवाल तो यह है कि जिन बीमारियों की दवा बन चुकी है, क्या उनसे कोई मौत नहीं होती? क्या दवा बनना ही किसी बीमारी के खात्मे का आधार है? हां दवा बनने से घबराए मन को कुछ आराम मिल जाता है। एक दिलासा है, जो स्वत: मिल जाता है। बाकी दवा बनने के बावजूद न कभी बीमारी खत्म हुई और न उससे हताहत होने वाले मरीज। कोरोना की दवा भी देर-सवेर बन जाएगी। बहुत से देशों के वैज्ञानिक इसकी दवा खोजने में जुटे हैं। यकीनन वो एक दिन इसका कोई न कोई तोड़ निकाल लेंगे। लेकिन दवा खोजना इस बात की गारंटी नहीं है कि कोरोना दुनिया से विदा हो जाएगा, इसलिए यह मान कर चलिए, कोरोना रहेगा। लोग संक्रमित भी होंगे और हताहत भी। हां दवा आने से इसके संक्रमण की रफ्तार या इससे होने वाली मौतों का ग्राफ कम होने की उम्मीद जरूर की जा सकती है। आज आपको कोरोना से भी ज्यादा चकित करने वाले आंकड़ों से रुबरू करवाता हूं। 12 मार्च को भारत में कोरोना से पहली मौत हुई थी। 28 मई को यह पोस्ट लिखने तक मृतकों की संख्या 4531 हो गई। मतलब यह है कि करीब 76 दिन में यह 4531 मौतें हुई हैं। अगर इस आंकड़े का प्रतिदिन का औसत निकाला जाए तो यह करीब 59-60 के करीब आता है। हो सकता है यह आंकड़ा कल को बढ़ भी जाए लेकिन वर्तमान की हालत यही है। आपको पता है कि भारत में अन्य बीमारियों व हादसों से साल में करीब एक करोड़ लोगों की मृत्यु होती है। प्रतिदिन का आंकड़ा भी हजारों में आता है। सन 2017 के 'द लांसेट' के आंकड़ों की बात करें तो भारत में हर दिन टीबी एवं प्रेग्नेंसी के दौरान एक हजार से ज्यादा मौतें होती हैं। मलेरिया का उन्मूलन तो कभी का हो चुका है, उसकी तो दवा भी है लेकिन हमारे देश में मलेरिया से भी प्रतिदिन पांच सौ के करीब जान चली जाती हैं। एक करोड़ में सोलह प्रतिशत मौतें तो अकेले दिल की बीमारियों से हो जाती हैं। दूसरे नंबर पर सांस की बीमारी हैं। इसके बाद स्ट्रोक, कैंसर, डायरिया, प्रसव के पहले और बाद में, टीबी, सांस नली में इंफेक्शन व बुखार से भी लाखों में मौतें होती हैं। सड़क हादसों में हर साल पौने तीन लाख मौतें हो रही हैं। यह आंकड़ें तो तीन साल पहले के हैं, निसंदेह इन तीन सालों में वाहनों की संख्या भी बढ़ी है और सड़कों की दशा भी सुधरी है। एेसे में हादसों की संख्या बजाय कम होने के बढ़ी ही है। इन आंकड़ों को बताने का मकसद यही है कि कोरोना इतना खतरनाक नहीं है, जितना कि इसका डर है। माना इसकी दवा नहीं है लेकिन सावधानी, सुरक्षा व सतर्कता से इससे बचाव किया जा सकता है। यह बचाव करना होगा। आ बैल मुझे मार वाली कहावत चरितार्थ करोगे तो फिर भगवान ही मालिक है। और यह कहावत अन्य बीमारियों पर भी सटीक बैठती हैं। किसी भी बीमारी से पीडि़त व्यक्ति के लिए क्या अकेली दवा खाना ही पर्याप्त होता है? उसको कुछ परहेज भी करने होते हैं। जीवन-शैली व खान-पान में बदलाव करना होता है। यह सब भी तो लोग कर ही रहे हैं और जी रहे हैं तो कोरोना के मामले में इतने डरने की जरूरत क्यों? डरे नहीं लेकिन सावधान रहें। लापरवाही किसी भी सूरत में न बरतें। चिकित्सकों की गाइडलाइन के हिसाब से चलिए। कुछ खुद की भी गाइडलाइन बनाइए। यह मान के चलें कि अन्य बीमारियों की तरह कोरोना भी यहीं रहने वाला है अपने साथ। अपने आस-पास। बस अपने को सतर्क रहना होगा। ठीक इस चुटकुले की तरह, ' कोरोना भी बीवी की तरह है। पहले लगता था कंट्रोल हो जाएगी। फिर पता चलता है इसी के साथ जीने के आदत डालनी होगी।' मजाक अपनी जगह है लेकिन जीवन का फलसफा भी यही है। वाकई हमकों कोरोना के साथ जीने की आदत डालनी ही होगी।
क्रमश