Friday, November 18, 2011

सड़क निर्माण में गुणवत्ता का हो ख्याल

टिप्पणी

माननीय हाईकोर्ट की फटकार के बाद शहर में बन रही सड़कों में गुणवत्ता की अनदेखी की जा रही है। यह बात निगम के अधिकारी ही कह रहे हैं। इतना ही नहीं स्वयं महापौर भी गुणवत्ता की बात को लेकर विरोध जता चुकी हैं। इन सबके बावजूद सड़कें बनने का काम बदस्तूर जारी है। दिन तो दिन रात में भी सड़कें बन रही हैं। आलम देखिए कि निगम की ओर से सड़क बनाने में प्रयुक्त सामग्री का सैम्पल जांच के लिए भिजवाया गया है। निगम अधिकारियों का कहना है कि अगर जांच रिपोर्ट में अगर गड़बडी पाई गई तो संबंधित कंपनी को नोटिस जारी किया जाएगा। मतलब साफ है जब तक रिपोर्ट नहीं आती तब तक कंपनी सड़क बनाने का काम निर्बाध गति से जारी रखेगी। ऐसे में कई तरह के सवाल उठना लाजिमी है। मसलन, अगर जांच रिपोर्ट में गड़बड़ी पाई गई तो सैंपल लेने के बाद से लेकर जांच रिपोर्ट आने के बीच में जिन सड़कों का निर्माण किया जा रहा है, उनका क्या होगा। गुणवत्ता को लेकर जब विरोध हो रहा है तो क्यों न पहले ही गुणवत्ता के मापदण्ड तय कर दिए जाते। आखिरकार सड़क निर्माण के लिए कोई तो पैमाना तो तय होगा ही। सड़कें निर्धारित पैमाने के अनुसार बन रही हैं या नहीं, क्या यह देखने की फुर्सत भी निगम अधिकारियों को नहीं है। जांच रिपोर्ट आने के इंतजार में हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाना  एक तरह से छूट देने के समान ही है।
इस मामले का दूसरा पहलू यह भी है कि निगम के ऊपर निर्धारित समय सीमा में सड़कें पूरी करवाने का न्यायालय का डंडा है, लिहाजा उसका भी एकसूत्री कार्यक्रम आनन-फानन में सड़कें तैयार करवाना ही है। निगम की जल्दबाजी को देखते हुए सड़कें संभवतः निर्धारित समय-सीमा बन जाएंगी लेकिन सबसे अहम सवाल यह है कि वे कितना चलेंगी।
बहरहाल, सड़कें आमजन के लिए ही हैं। अगर उनका निर्माण तय मापदण्डों से नहीं हो रहा है तो लोगों को विरोध करना चाहिए। जनप्रतिनिधियों को भी अपने क्षेत्रों में बनने वाली सड़कों पर नजर रखनी चाहिए। सिर्फ न्यायालय के आदेश के बाद आनन-फानन में सडक़ें बनवानें से आमजन को राहत मिलने वाली नहीं है। यह एक तरह से रस्म अदायगी ही है। ऐसा न हो कि जब तक सभी सड़कें बनकर तैयार हों, तब तब उनके टूटने का दौर भी शुरू हो जाए। सड़कें जल्दी बने यह सब चाहते हैं लेकिन गुणवत्ता की कीमत पर तो कतई नहीं है।


साभार : बिलासपुर पत्रिका के 18 नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।

...तो यह हालात नहीं होते

टिप्पणी

माननीय हाईकोर्ट ने जनहित से जुड़े एक मामले में गुरुवार को पुलिस अधीक्षक एवं जिला परिवहन अधिकारी को फटकार लगाई तथा कहा कि उनके विभाग का ध्यान जनहित पर न होकर सिर्फ वसूली पर है। दोनों अधिकारियों को शहर की बदहाल यातायात व्यवस्था के मामले में हाईकोर्ट ने तलब किया गया था। देखा जाए तो लोकसेवकों को फटकार का यह नया मामला नहीं है। इससे पहले बिलासपुर की बदहाल सड़कों पर भी न्यायालय ने कड़ी आपत्ति जताई थी। उसके बाद निगम अधिकारियों को शहर में सड़कों को दुरुस्त करने की समय सीमा तय कर  शपथ पत्र देना पड़ा। बदहाल यातायात व्यवस्था को दुरुस्त करने के मामले में भी हाईकोर्ट ने समय सीमा बताने एवं शपथ पत्र पेश करने के आदेश दिए हैं।
उक्त दोनों मामलों से इतना तो तय है कि लोकसेवक अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन ठीक प्रकार से नहीं कर रहे हैं। इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि जो काम इनको करना चाहिए थे, समय रहते उन पर ध्यान नहीं दिया गया। मजबूरन लोगों को न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। इन सबके पीछे जनप्रतिनिधियों की भूमिका भी कम जिम्मेदार नहीं है। शहर में टूटी सड़कों से संबंधित मामला ही देख लीजिए। 'बयानवीर' जनप्रतिनिधि दनादन आश्वासन का लॉलीपॉप ही देते रहे, लेकिन राहत का रास्ता न्यायालय की शरण में जाने के बाद ही नजर आया। इसी तरह शहर की यातायात व्यवस्था को बदहाल करने वाले कारणों में जनप्रतिनिधि भी शामिल हैं। उनके किसी 'अपने' या  'नजदीकी' ने बेजा कब्जा कर रास्ता रोकने या नियम विरुद्ध कोई काम किया तो उनको संरक्षण देने का काम भी यही लोग करते हैं। अंततः लोकसेवकों एवं जनप्रतिनिधियों के इस गठजोड़ की परणिति बदहाल यातायात व्यवस्था व अधूरे कामों के रूप में ही सामने आती है।
बहरहाल 'बेलगाम' लोकसेवक एवं 'बयानवीर' जनप्रतिनिधि अपना काम ईमानदारी से करते, अपनी जिम्मेदारी समझते तो ऐसे हालात ही नहीं बनते। आमजन की समस्याओं से मुंह मोड़ने वाले इन दोनों वर्गों से पूछा जाना चाहिए कि वे किस मुंह से खुद को जनप्रतिनिधि एवं लोकसेवक कहलाना पसंद करते हैं। आलम देखिए जनप्रतिनिधि हैं, लेकिन प्रतिनिधिनित्व किसका और किसके लिए कर रहे हैं, किसी से कुछ छिपा नहीं है। इसी तरह  लोकसेवक हैं  लेकिन सेवक किसके हैं और किसकी सेवा में जुटे हैं, सब जगजाहिर है।  विडम्बना देखिए दोनों वर्गों के पद के आगे जन/लोक जुड़ा है। इसके बावजूद दोनों वर्ग जन की बजाय आपस में एक दूसरे के इर्द-गिर्द ही दिखाई देते हैं।  आजादी के छह दशक बाद भी आमजन को मूलभूत सुविधाएं मयस्सर नहीं होना बेहद शर्मनाक है।

साभार : बिलासपुर पत्रिका के 18  नवम्बर 11 के अंक में प्रकाशित।