Sunday, December 16, 2012

आंखें


आंखें करती
हैं बातें,
आंखों से
चुपचाप।
आंखों का
यह बोलना
भी आंखों
को ही सुनाई
देता है।
आंखों की
भी अलग
ही दुनिया
है, अजीब
सी और,
भाषा भी।
इस भाषा
को आखें
ही समझती
हैं, सुनती हैं
और जवाब
देती हैं।
अंखियां लड़ती
भी हैं,
बिना किसी
शोरगुल के।
कोई हो-हल्ला
भी नहीं
करती हैं।
आदमी की
तरह लड़कर,
अलग भी
नहीं होती,
हैं आखें।
अंखियां घर
भी बसा
लेती हैं,
एक दूजे
के पास।
कितने ही
किस्से जुड़े
हैं आखों
के साथ।
और मुहावरों
की तो
बहुत लम्बी
सूची है।
आंख लगना,
आंख मिलना,
आंखें दिखाना,
आखें लड़ाना,
आंखें चुराना,
आंख मूंदना,
आंख मारना,
आंख फेरना,
आंख झुकाना,
आंख का तारा,
आंख की किरकिरी,
और भी
न जाने
क्या क्या
जुड़ा है
आंखों से।
आखें सागर है,
नदिया है,
झील है,
तभी तो
प्यास भी
बुझाती हैं,
आखें।
आंखें भी
कई तरह
की होती हैं।
उनींदी आखें,
सपनीली आखें,
नीली आखें,
काली आखें,
भूरी आंखें।
आखें कटार
भी हैं
और तलवार
भी।
अजूबा है,
इन आंखों
का संसार,
अनूठा है,
निराला है,
बिलकुल रोचक,
कितना कुछ
करवाती हैं
आखें।
बिना बोले
चुपचाप,
एकदम चुपचाप।

मन

मन, तो
मन है।
इसकी
थाह भला
कौन
ले पाया।
कितने ही
अर्थ जुड़े

हैं मन से।
और हां,
नाम भी
कई हैं
मन के।
और रूप
भी तो हैं कई।
कभी मन
मीत बन
जाता है
तो कभी
मन मौजी।
और कभी कभी
मन मयूरा
भी हो जाता है।
मन किसी
को चाहने भी
लगता है।
मन ही मन।
कोई आस
अधूरी रह
जाती है
तो मन
मसोस
दिया
जाता है।
और कोई
चाह पूरी
होती है तो,
वह मन
की मुराद
बन जाती है।
मन तो
रमता जोगी
है, एक पल
में ही
कितनी
सीमाएं लांघ
जाता है।
पलक झपकते
ही दुनिया
की सैर
कर आता है
कभी
आसमान में
उड़ता है।
चांद-तारों की
बात करता है।
मन तो मन है।

दिन


दिन,
आज भी
उसी अंदाज में
निकला,
और
ढल गया।
रोज ही तो
ऐसा होता है।

बस लोगों का
नजरिया,
अलग है।
किसी ने
सुबह को सर्द
तो किसी ने
सुहानी कहा।
और धूप
उसको भी
कहीं गुनगुनी तो
कहीं चटख
नाम से
पुकारा गया।
दिन ढला
उसे भी
सुहानी शाम,
सिंदूरी शाम,
नाम दे
दिया, गया
दिन,
रोज ही
तो ऐसे
निकलता है,
वह कहां
बदलता है,
मौसम
बदलता है
आदमी
बदलता है
लेकिन दिन तो
दिन ही
रहता है
सदा,
वह बदलता
नहीं
बस नजरिया
बदल जाता है।
और हां,
तारीख बदलती है
माह बदलता है
साल बदल जाते हैं
लेकिन दिन तो
दिन ही
रहता है
हां हमने दिन
का नामकरण
कर दिया है
हर साल
उसको
उसी नाम से
पुकारते हैं
लेकिन
दिन तो दिन ही
रहता है,
बदलता नहीं।

आदमी

शेरो शायरी का शौक तो बचपन से ही रहा है। आज कविता लिखने की सोची। संयोग देखिए शुरुआत आदमी से हुई। अति व्यस्तता के बीच कल्पना के घोड़े दौड़ाना वैसे बड़ा मुश्किल काम है। फिर भी तुकबंदी के सहारे कुछ तो लिखने में सफल हो गया। कभी फुर्सत मिली तो और लिखूंगा। फिलहाल तो इतना ही...



 आदमी



आदमी,
आज का आदमी,
अपनों से कट गया है,
जाति में बंट गया है,
भूल सब रिश्ते-नाते,
खुद में सिमट गया
है
आदमी,
आज का आदमी।
दर्प से चूर हुआ है,
फिर भी मजबूर हुआ है,
भरी भीड़ में देखो,
अपनों से दूर हुआ है।
आदमी
आज का आदमी।