Tuesday, October 2, 2012

बस एक दिन याद आता हूं मैं...

बापू बोले


गौर से देखिए मेरी प्रतिमा को। याद कीजिए भिलाई के जलेबी चौक पर कितने जोश-खरोश एवं मान-सम्मान के साथ मुझे प्रतिष्ठापित किया गया था। मेरी याद को चिरस्थायी रखने के लिए पता नहीं क्या-क्या संकल्प भी आप लोगों ने उस दिन लिया था। मैं खुश था आप लोगों का उत्साह एवं जोश देखकर। लेकिन मेरा यह सोचना गलत था। कुछ ही समय में आप लोग सब कुछ भूल गए। कड़वी हकीकत यह है कि आप लोगों को जरूरत के समय ही मेरी याद आती है। अक्सर चुनाव में कई नेता तो मेरे नाम के सहारे ही चुनावी नैया पार लगाने की कवायद में जुट जाते हैं। उस वक्त पार्टी, आदर्श, सिद्धांत आदि गौण हो जाते हैं। चुनाव की बात छोड़ भी दूं तो आप लोगों को साल में दो बार ही मेरी याद आती है। शहीद दिवस 30 जनवरी को तथा दो अक्टूबर को मेरी जयंती पर। कई जगह तो लोग उक्त दोनों तिथियां भी भूल जाते हैं। भूलना एक अलग बात है लेकिन दुखद विषय यह है कि मेरा राजनीतिकरण कर दिया गया है। एक दल के लोग अवसर विशेष पर गाजे-बाजे के साथ आते हैं लेकिन बाकी दल के लोग पता नहीं क्यों एवं क्या सोच कर मेरी प्रतिमा पर श्रद्धा के दो फूल चढ़ाने में भी शर्म-शंका करते हैं। खैर, ऐसे हालात के लिए दोष आपका नहीं समय का है। मौजूदा दौर में मानवीय मूल्य गौण हो गए हैं। व्यक्तिगत सोच के चलते लोग स्वार्थी हो गए हैं। अपने घर-परिवार वालों से भी ठीक से पेश नहीं आते हैं। फिर मैं क्या लगता हूं उनका। मेरा कौनसा खून का रिश्ता है उनसे। यह तो उनकी मर्जी पर निर्भर करता है कि चाहें तो याद करें चाहें तो नहीं। अब दुर्ग में भी मेरी प्रतिमा साल भर से उपेक्षित पड़ी थी। ऐसा भी नहीं कि मैं किसी कोने में लगा था। बिलकुल हिन्दी भवन के सामने मेरी प्रतिमा लगी है। साल भर मेरी प्रतिमा यहां अपनी बदहाली पर आंसू बहाती र। मेरी प्रतिमा पर लगा चश्मा और एक चरण पादुका कब गायब हुई किसी को खबर तक नहीं हुई। दो अक्टूबर आया तो मेरी याद आई। किसी ने देखा तो सोचा बड़ा मुफीद मौका है क्यों न भुना लिया जाए। बस ठान ली साफ-सफाई करने की। अचानक मेरे प्रति प्रेम उमड़ पड़ा। मैं मन ही मन अपने सपूतों की समझदारी पर मुस्कुरा रहा था। जयंती से एक दिन पहले ही उनको अपने कर्तव्य का बोध हो गया था। आखिरकार मेरी प्रतिमा की सफाई हुई। लम्बे समय से प्रतिमा पर जमी धूल को हटाया गया। इतना ही नहीं मुझे नया चश्मा भी पहनाया गया और चरण पादुका भी। मंगलवार को भी जयंती के उपलक्ष्य में कई आयोजन-प्रयोजन होंगे। वैसे भी चुनावी समय नजदीक है, ऐसे में दूसरे दल के लोग भी आकर श्रद्धा-सुमन चढ़ा जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। देखा जाए तो साल भर अपनी बदहाली पर आंसू बहाने वाली मेरी प्रतिमा ही इकलौती नहीं है। शहर में और भी कई महापुरुषों की प्रतिमाएं चौक-चौराहों पर लगी हैं, जिनकी याद भी अवसर विशेष पर ही आती है। मैं आपसे ज्यादा नहीं मांगता, आप मेरी जयंती पर यह संकल्प लें कि न केवल मेरी प्रतिमा बल्कि दुर्ग-भिलाई में जितने भी महापुरुषों की प्रतिमाएं लगी हैं, उनकी सार-संभाल एवं नियमित सफाई का जिम्मा उठाएं। अगर आप लोग ऐसा कर पाए तो निसंदेह यह मेरे साथ बाकी महापुरुषों के लिए बहुत बड़ी श्रद्धांजलि होगी।

साभार : पत्रिका भिलाइ के 02 अक्टूबर 12 के अंक में प्रकाशित।