Sunday, August 14, 2011

काश! वक्त रुक जाता...

बिलासपुर. दोनों तरफ भावनाओं का समन्दर उमड़ने को आतुर था। आंखें एक दूसरे को देखने के लिए बेचैन एवं उतावली थीं। इंतजार की घड़ियां बस खत्म होने को थीं। कुछ पल की देरी भी बहुत अखर रही थी। एक-एक पल एक युग जैसा बीत रहा था। मन में कई तरह के सवाल, शंकाएं और जिज्ञासाएं थीं।
लेकिन यह क्या...? जब मिलन हुआ तो दोनों को कुछ नहीं सूझा। गला रुंध गया और होंठ कुछ कह ना पाए। एक दूसरे को अपलक निहारती आंखों में बस आंसुओं की अविरल धारा थी। दोनों तरफ टप-टप गिरते मोतियों से आंसुओं ने रिश्तों की मजबूती और प्रगाढ़ता पर मुहर लगा दी थी। आंसुओं की इस मुलाकात में जुबान एकदम खामोश थी। बस आंखें ही आंखों की भाषा समझ रही थी। दोनों को दिलासा देने वाला कोई तीसरा भी नहीं था। दोनों एक-दूजे के आंसू पौंछ रहे थे। आखिरकार जब आंसुओं का सिलसिला कुछ थमा तो होठ कुछ कहने को हिलने लगे। बातें पहाड़ सी लम्बी थी, बिलकुल अंतहीन। उनका कोई छोर दिखाई नहीं दे रहा था। बातों से बातें निकलने लगी। फिर क्या था, बस रफ्ता-रफ्ता भावनाओं ने रफ्तार पकड़ी तो फिर दोनों खुलकर बतियाए। मन के एक कोने में वापस बिछुड़ने की टीस भी थी, जो न चाहते हुएभी दोनों के चेहरों से जाहिर हो रही थी। दोनों के जिगर में एक दर्द भी छिपा था। गुनाह का पछतावा भी कहीं न कहीं मन को कचोट रहा था।
कहने को अभी काफी कुछ था लेकिन वक्त की पाबंदी थी। समय कब पंख लगाकर उड़ गया पता ही नहीं चला। लम्बे समय से जिस दिन का बेसब्री से इंतजार था, वह इतनी जल्दी गुजर जाएगा, इसका अफसोस भी था। मन-मस्तिष्क में सवाल फिर कौंधने लगे। वक्त इतनी जल्दी कैसे बीत गया? अभी तो बहुत कुछ था कहने-सुनने को? काश! यह वक्त रुक जाता। वक्त को अपने हिसाब से मोड़ना एवं रोकना दोनों चाहते थे कि लेकिन ऐसा हकीकत में संभव नहीं था। मिलन से ज्यादा गमगीन माहौल तो बिछोह का था। आंखों में आंसुओं का सैलाब फिर दिखाई देने लगा, लेकिन आंसुओं की कीमत समझने वाला कोई नहीं था। क्योंकि यह मुलाकात अनूठी जरूर थी लेकिन शर्तों में बंधी थी। वह गुनाहों की कीमत वसूल रही थी। भाई बहन के अटूट रिश्ते एवं पवित्र प्रेम का यह नजारा शनिवार को सेंट्रल जेल में फलीभूत हुआ। दूरदराज के इलाकों से चलकर जेल में सजा काट रहे भाइयों की कलाई पर स्नेह का धागा बांधने आई बहनों का उत्साह देखते ही बनता था। अपनों से मिलने की खुशी में बहनें सफर की थकान को भूल चुकी थी।
अक्सर खामोश रहने वाला जेल का माहौल भाई-बहन के मिलन के चलते किसी मेले से कम नहीं था। अंतर महज इतना था कि इस मेले में प्यार, स्नेह, पछतावा, प्रायश्चित, संवेदनाओं, भावनाओं और आंसुओं के अलावा और कुछ नहीं था। इतना होने के बावजूद दोनों यह सोचने को मजबूर थे कि अगर गुनाह ना किया होता तो क्यों आज मुलाकात के लिए इतनी मशक्कत करनी पड़ती? क्यों वक्त की पाबंदी होती? क्यों जेल की दीवारों के बीच मिलन होता? आखिर यह बंधन ही तो है, जो सब पर भारी पड़ता है। रिश्तों का बंधन...प्यार का बंधन... जन्मों का बंधन...।

साभार : पत्रिका बिलासपुर के 14 अगस्त 11 के अंक में प्रकाशित।