Monday, October 28, 2013

समाज का सवाल, सियासत में उबाल


जनसम्पर्क व दौरे को लेकर बन रही हैं रणनीतियां
 दु र्ग जिले का पाटन विधानसभा क्षेत्र। चुनावी रंगत फिलहाल यहां परवान नहीं चढ़ी है। अलबत्ता शुरुआती दौर में प्रत्याशी मतदाताओं का मानस टटोलने में जरूर जुट गए हैं। ग्रामीण इलाकों में गुप्त बैठकों के माध्यम से मतदाताओं का रुझान पता किया जा रहा है। नामांकन भरने से लेकर जनसम्पर्क व कार्यकर्ता सम्मेलनों तक की रणनीति बनाई जा रही है। इसके लिए जिम्मेदारियां भी सौंपी जा रही हैं। फिलहाल पाटन क्षेत्र में कोई बड़ा मुद्दा नहीं है और न ही किसी तरह की कोई लहर। मतदाता अभी खामोश हैं, लेकिन समाजों में सियासी हलचलों का दौर शुरू हो चुका है। इन सियासी हलचलों के कारण कहीं नए समीकरण बन रहे हैं तो कहीं बिगड़ भी रहे हैं।
करीब 15 हजार मतदाता बढ़े
पाटन में इस बार गत चुनाव के मुकाबले पौने पन्द्रह हजार मतदाता ज्यादा हैं। पिछले चुनाव में यहां 155806 मतदाता थे, इस बार 170581 हो गए हैं। पिछले चुनाव में विजय बघेल को 59000 तो भूपेश बघेल को 51158 मत प्राप्त हुए थे। जीत का अंतर 7842 मतों का रहा था। तब करीब 79 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले थे।
निचोड़
कुर्मी एवं साहू समाज की बहुलता वाले इस विधानसभा क्षेत्र में फिलहाल तो टिकट वितरण का मामला गर्माया हुआ है। साहू समाज के पदाधिकारियों ने सांसद से मुलाकात कर अपनी नाराजगी जाहिर कर दी है। साहू समाज की नाराजगी दूर करने की दिशा में फिलहाल कोई प्रयास या आश्वासन सामने नहीं आया है। इसके अलावा सतनामी समाज के वोट भी यहां निर्णायक हैं। दोनों समाजों का रुख ही दोनों दावेदारों की जीत का मार्ग प्रशस्त करेगा। वैसे विजय बघेल के विधानसभा क्षेत्र बदलने की चर्चाओं ने उनके सामने मुसीबत खड़ी कर दी है। माना जा रहा है इस बार मुकाबला दिलचस्प होगा। वैसे क्षेत्र में विकास एवं सिंचाई से संबंधित मामले मतदान के नजदीक आते-आते जोर पकडऩे के पूरे आसार हैं। भ्रष्टाचार का मसला भी प्रभावी भूमिका निभा सकता है, क्योंकि अभी-अभी बनी पाटन-उतई रोड पूरी तरह उधड़ चुकी है। सड़क पर उड़ती धूल एवं बिखरे पत्थर भी इस बात के साक्षी हैं कि सड़क निर्माण में जमकर अनियमितता बरती गई है।

धोराभांठा गांव में गुप्त बैठक
भिलाई से करीब दस किसी दूरी पर आबाद धोराभांठा गांव में बुधवार दोपहर ग्रामीण अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त हैं। महिलाएं हैंडपम्प से पानी भर रही हैं तो पंक्चर की दुकान पर दो युवक अपने काम में तल्लीन हैं। कोई तालाब की तरफ नहाने जा रहा है तो कोई नहाकर लौट रहा है। गांव के चौक में संसदीय सचिव विजय बघेल का सड़क सीमेंटीकरण से संबंधित पत्थर लगा है, लेकिन सड़क की हालात खराब है। शिलान्यास पट्टिका पर 2010 का साल अंकित है। चौक से थोड़ा आगे बेहद ऊबड़-खाबड़ व तंग गली में एक घर के बाहर तीन महिलाएं हाथ में लाठी लिए हुए बंदरों के झुण्ड को भगाने में लगी हैं। किसी की कानोंकान तक खबर नहीं कि गांव में कहीं पर कोई बैठक भी हो रही है। गांव के मंदिर के पास एक मकान में करीब पांच दर्जन ग्रामीण अंदर एकत्रित हैं। अंदर तखत पर कांग्रेस के भूपेश बघेल बैठे हैं। उनकी बगल में तिलक लगाए एक वृद्ध बैठा है। बाकी सभी लोग दरी पर बैठे हैं। बारी-बारी से ग्रामीण सदस्यता अभियान और भाजपा की रणनीति के बारे में बताते हैं। बातचीत के इस दौर में कभी माहौल यकायक गंभीर होता है तो कभी ठहाके गंूजते हैं। बारी-बारी से बोलने का क्रम टूटता है और सब एक साथ बोलने लगते हैं। शोरगुल बढ़ता है। भूपेश बघेल सबको चुप कराते हुए चुनाव में जिम्मेदारी सौंपते हैं। कहते हैं एक-एक व्यक्ति दस-दस घरों के सम्पर्क में रहें और प्रचार करें। प्रचार के लिए वे तीन चार मामले गिनाते हैं। कहते हैं उनके कार्यकाल में दस साल पहले बनी सड़क आज भी ठीक है, जबकि हाल ही बनी सड़कें टूट रही हैं।
वे ग्रामीणों को केन्द्र सरकार की उपलब्धियां मतदाताओं के समक्ष गिनाने की बात कहते हैं। बघेल कहते हैं कि राज्य की मौजूदा सरकार ने बोनस के नाम पर किसानों का ठगा है। चुनावी साल में बोनस दिया, जबकि बाकी साल किसान इंतजार करते रहे। करीब घंटेभर के विचार-विमर्श के बाद बैठक समाप्ति की ओर है। मुट्ठीभर से कम नमकीन और दो-दो बिस्कुट रखी कागज की प्लेटें ग्रामीणों के बीच घुमाई जाती हैं। बघेल उठकर बाहर आते हैं। पीछे-पीछे ग्रामीण भी उठते हैं। अंदर से आवाज आती है, चाय बन रही है। बघेल अपनी गाड़ी में अगले गांव के लिए रवाना होते हैं।

विजय बघेल का आवास
गुरुवार यही कोई सुबह के 11.30 बजे हैं। संसदीय सचिव विजय बघेल के आवास के बाहर एक पोस्टर लगा है, जिस पर लिखा है 'कृपया, यहां पर वाहन खड़े न करें।' इसी स्लोगन के ठीक सामने दुपहिया व चौपहिया वाहन खड़े हैं। आवास के अंदर भी नसीहत भरे दो पोस्टर चस्पा किए हुए हैं। एक पर लिखा 'कृपया कार्यालय में अपने मोबाइल बंद रखें।' जबकि दूसरे पर 'कृपया जूतों चप्पलों को बाहर रखें।' लिखा हुआ है। कार्यालय के अंदर कुर्सियां खाली हैं। आवास के बाहर संसदीय सचिव के गार्ड के इर्द-गिर्द पांच युवक आपस में कानाफूसी में जुटे हैं। आवास के ठीक सामने बनाई गई खटाल की साफ-सफाई भी चल रही है।
अचानक विजय बघेल बाहर आते हैं और आवास के सामने खड़े एक प्रचार रथ के पास जाकर रुक जाते हैं। आसपास बैठे सभी लोग भी बघेल के अगल-बगल में खड़े हो जाते हैं। प्रचार रथ के पास कुर्सी डालकर बैठे युवक-युवती खड़े होते हैं। प्रचार रथ से पर्दा उठता है तो एक बड़ा स्पीकर दिखाई देता है। युवती माइक लेती है। अचानक संगीत चलता है, इसी के साथ 'ईश्वर ही सत्य है' 'सत्य ही शिव है' 'शिव की सुंदर है।' 'सत्यम शिवम सुंदरम'  बोल गूंजते हैं। थोड़ी देर सुनने के बाद बघेल उसे रुकने का इशारा करता है। युवक दौड़ता हुआ आता है, और कहता है सर आपका गीत 'दुख के सब साथी..' भी हमारे पास है। बघेल उसको बुक करने के लिए हामी भरते हैं। इसी बीच दो युवक और आते हैं.. कहते हैं सर, हमारा डेमो भी देख लो। बघेल कहते हैं, आपने देर कर दी, सब फाइनल कर दिया। बघेल लौटते हैं। कुछ परेशान से हैं। समर्थक वजह पूछते हैं तो कहते हैं, अरे भाई, क्या बताऊं, तबीयत खराब है। देखो ना.. बघेल हाथ आगे बढ़ाते हैं। फिर कहते हैं तबीयत के चक्कर में सुबह से नहाया ही नहीं हूं। धीरे-धीरे चहलकदमी करते हुए अंदर जाते हैं। दो-चार समर्थक भी उनके पीछे-पीछे हैं। बघेल का मोबाइल बजता है और वे बतियाते हुए अंदर प्रवेश कर जाते हैं। बाहर खड़े युवकों में फिर चर्चा शुरू हो जाती है। प्रचार रथ वाला भी अपना साजो-सामान समेट कर चल पड़ता है।

 साभार- पत्रिका छत्तीसढ़ में 26 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित


मतदाता मौन और समर्थकों में सरगर्मी

 
वर्तमान पर अतीत हावी : बीस साल से आमने सामने

दु र्ग जिले का भिलाईनगर विधानसभा क्षेत्र। जिला मुख्यालय से एकदम सटा हुआ, लेकिन सूरत एवं सीरत दोनों ही अलग। तभी तो चुनाव की सरगर्मी का असर खुर्सीपार को छोड़कर शेष हिस्सों में कम ही दिखाई दे रहा है। इसका प्रमुख कारण समूचे क्षेत्र में नौकरीपेशा आदमी होना है। यहां पर चुनाव के प्रति वैसा जुनून भी नजर नहीं आता, जैसा दूसरे विधानसभा क्षेत्रों में आता है। फिलहाल यहां मतदाता मौन हैं, लेकिन प्रत्याशियों के समर्थकों में सरगर्मी शुरू हो चुकी है। दोनों ही प्रत्याशियों के साथ एक संयोग भी जुड़ा है। दोनों के वर्तमान पर अतीत हावी है। इस बात की गवाही दोनों प्रत्याशियों के बंगलों के बाहर टंगे बोर्ड देते हैं। एक पर लिखा है पूर्व विधानसभा अध्यक्ष तो दूसरे पर पूर्व मंत्री छत्तीसगढ़ शासन। फिलहाल पूरे प्रदेश की नजर भिलाईनगर विधानसभा पर टिकी है। यहां मुकाबला रोचक एवं दिलचस्प होने के कयास लगाए जा रहे हैं।
बीस साल से ही प्रतिद्वं द्वी
भिलाईनगर विधानसभा समूचे प्रदेश में इकलौता ऐसा क्षेत्र है, जहां के लगभग सभी मतदाता भिलाई स्टील प्लांट के कर्मचारी या सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं। थोड़ा सा हिस्सा खुर्सीपार का है, जिसमें बीएसपी से संबंधित लोग नहीं रहते हैं। यही कारण है कि इस सीट पर स्थानीय या राज्यस्तरीय मुद्दे उतना महत्त्व नहीं रखते, जितना बाकी सीटों के लिए रखते हैं। खुर्सीपार में चाय की दुकानों पर जरूर चुनावी चर्चाएं हैं, लेकिन सेक्टर एरिया के मतदाताओं में ऐसा कोई माहौल नहीं है। दोनों ही दलों ने अपने पुराने नेताओं पर विश्वास जताया है। दोनों नेता 20 साल से लगातार एक दूसरे के सामने चुनाव लड़ते आ रहे हैं।
1.65 लाख मतदाता
भाजपा प्रत्याशी प्रेमप्रकाश पाण्डे का यह छठा चुनाव है, जबकि कांग्रेस के बदरुद्दीन कुरैशी पांचवीं बार भाग्य आजमा रहे हैं। पाण्डे अब तक तीन बार चुनाव जीत चुके हैं, जबकि कुरैशी ने दो विजयश्री हासिल की है। भिलाईनगर विधानसभा में पिछले चुनाव में 162778 मतदाता थे, जो इस बार बढ़कर 165549 हो गए हैं। पिछली बार यहां के 62.93 मतदाताओं ने वोट डाले थे। पिछले चुनाव में कुरैशी को 52848 तथा पाण्डे को 43985 मत प्राप्त हुए थे।
लगातार दो बार कोई नहीं जीता
भिलाईनगर विधानसभा के साथ एक संयोग यह भी जुड़ा है कि 1993 के बाद से यहां कोई भी विधायक लगातार दूसरी बार नहीं जीता है। 1993 में जहां भाजपा के प्रेमप्रकाश पाण्डे ने बदरुद्दीन कुरैशी को हराया वहीं, 1998 के चुनाव में कुरैशी ने जीत दर्जकर हिसाब चुकता कर दिया। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद पहली बार 2003 में हुए चुनाव में पाण्डे ने कुरैशी को हराकर जीत दर्ज की तो इससे अगले चुनाव 2008 में कुरैशी ने पाण्डे को फिर हरा दिया। इस बार दोनों प्रत्याशी फिर आमने-सामने हैं।
निष्कर्ष
बाकी दलों ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। विशेषकर छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच ने भी यहां कोई प्रत्याशी अभी तक घोषित नहीं किया है। बीएसपी में कार्यरत अधिकतर स्थानीय लोगों ने पिछले चुनाव में मंच को वोट डाले थे। हाल ही बीएसपी यूनियन चुनाव में बाजी सीटू के हाथ लगी, लेकिन मंच समर्थित यूनियन ने दूसरा स्थान हासिल किया था। ऐसे में मंच की प्रभावी भूमिका रहेगी। मंच के प्रत्याशी न उतारने पर बीएसपी के स्थानीय वोटरों का झुकाव हार जीत के परिणाम तय करेगा।
बदरुद्दीन कुरैशी का बंगला
मंगलवार सुबह सुबह 11.20 बजे। कांग्रेस प्रत्याशी बदरुद्दीन कुरैशी के बंगले के बाहर करीब आधा दर्जन दुपहिया वाहन खड़े हैं। बंगले के ठीक सामने सड़क पर पटाखों के जले हुए कागज हवा के साथ उड़ रहे हैं। अंदर कार्यालय में चार लोग बैठे हैं। सभी अखबार पढऩे में तल्लीन। इसी कार्यालय के बगल में एक छोटा सा एक और कमरा। उसी में कुरैशी धीर-गंभीर मुद्रा में बैठे हैं। टेबल पर एक फूलों की माला रखी है, जबकि एक गुलदस्ता बगल में रखा हुआ है। उनका चश्मा टेबल पर रखा है। दोनों कुहनिया टेबल पर टिकाए कुरैशी के चेहरे पर आने वाले उतार-चढ़ाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहे हैं। टिकट मिलने की बधाई देने वाले बीच-बीच में आ जा रहे हैं। कोई चरण स्पर्श कर रहा है तो कोई हाथ मिला रहा है। आने वालों को मिठाई खिलाई जा रही है। बांटने वाला एक ही व्यक्ति, लेकिन मिठाई के प्रकार दो। किसी को लड्डू तो किसी को काजू कतली। इसी बीच दो समर्थक आते हैं, टिकट मिलने की कहानी पूछते हैं। कुरैशी खामोशी तोड़ते हैं। कुछ कहने पर जोर से ठहाका लगाते हैं, फिर कहते हैं, आप को तो पता ही है, टिकट कैसे मिलता है। बड़ा मुश्किल काम हो गया है। बिना रुके कुरैशी फिर कहते हैं, अरे यह तो इन दिनों दिल्ली आना-जाना कम कर दिया वरना, इतनी दिक्कत नहीं आती। अचानक कुरैशी उठते हैं और कार्यालय में आ जाते हैं।
प्रेमप्रकाश का बंगला
मंगलवार दोपहर 12.05 बजे भाजपा प्रत्याशी प्रेमप्रकाश पाण्डेय के घर करीब तीन दर्जन समर्थक मौजूद हैं। सभी अलग-अलग झुण्ड बनाकर बातचीत में तल्लीन। कोई मोबाइल पर बतिया रहा है तो कोई मोबाइल से खेल रहा है। करीब आधा घंटे के इंतजार के बाद यकायक सब खामोश हो जाते हैं। लुंगी पहने तथा शर्ट की आस्तीन के बटन बंद करते हुए पाण्डेय समर्थकों के बीच आते हैं। जब तक पाण्डेय बैठे नहीं सभी खड़े रहते हैं। उनके बैठते ही सब बारी-बारी से चरण स्पर्श करते हैं। उम्रदराज हो चाहे युवा, सभी यही करते हैं। इधर पाण्डेय हाथों को बांधे चरण स्पर्श करने वालों को बड़े ही सोचने वाले अंदाज में देखते हैं। एक खाली कुर्सी पाण्डेय की बगल में रखी है, जिस पर उनका छोटा तौलिया रखा है। सब खामोश हैं। एक समर्थक फोन लाकर पाण्डेय को देता है। थोड़ी देर फोन पर हूं..., हां..., करने के बाद फोन वापस समर्थक को थमा दिया जाता है। अचानक एक पार्षद का नाम पुकारते हैं। वह खड़ा हो जाता है। इसके बाद पाण्डेय एक दूसरा नाम पुकारते हैं, वह व्यक्ति भी हाथ जोड़े ही पाण्डेय की तरफ मुखातिब होता है। आंखों ही आंखों में इशारा होता है। चार-पांच पार्षद/पार्षद पति चुपचाप उठते हैं एक कमरे में चले जाते हैं। पाण्डेय अपनी कुर्सी से उठते हैं। थोड़ी ऊंची आवाज में कहते हैं, अरे चाय लाओ और वह भी उस कमरे में प्रवेश कर जाते हैं। बाहर बैठे लोगों में फिर चर्चा छिड़ जाती है।

साभार- पत्रिका छत्तीसढ़ में 24 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित


फिर आम आदमी सुरक्षित कहां?


बस यूं ही

 
आज दोपहर को झुंझुनू के पुराने परिचित को फोन लगा लिया। हाल-चाल जानने के बाद मैंने 'कहा कल तो झुंझुनू में राहुल गांधी आए थे।' जवाब आया 'हां, भाईसाहब, बहुत ही तगड़ी व्यवस्था थी। बाहर दीवार के पास खड़े होने वाले को भी पास जारी किए गए थे। दिल्ली से आए सुरक्षाकर्मियों ने तो हवाई पट्टी के आस-पास के कुछ घरों को भी खाली करवा लिया।' वह एक सांस में यह सब बोल गया। थोड़ा रुकते ही फिर बोला 'कलक्टर-एसपी तक को नहीं जाने दिया, बहुत की तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था थी। ' मैंने इतना सुनने के बाद पूछा और क्या खास रहा तो वो बोला भाईसाहब खास तो कुछ नहीं है। मैंने कहां चूरू में राहुल के कार्यक्रम की खबर तो यहां छत्तीसगढ़ में भी लगी है। मेरा इतना कहना ही था कि वह फट ही पड़ा बोला 'भाईसाहब आज के सभी अखबारों में राहुल की एक जैसी ही खबर है। सभी ने यही लिखा है दादी को मार दिया, पिता को मार दिया मेरे को भी मार देंगे।' मैंने उत्सुकतावश पूछा 'तो क्या हो गया?' वह बोला 'हुआ तो कुछ नहीं लेकिन यह भी कोई खबर है क्या..' 'कैसे?' मैंने फिर पूछा तो बोला 'इसमें खबर तो यह थी कि इतनी तगड़ी और जेड प्लस की सुरक्षा वाला भी खुद को देश में सुरक्षित नहीं मान रहा है। खुद के मार दिए जाने की आशंका जता रहा है। ऐसे में आदमी की बिसात ही कहां है? वह सुरक्षित कहां है?' थोड़ा रुकते हुए मजाकिया लहजे में वह फिर बोला 'आदमी के पास जेड प्लस तो दूर जेड माइनस भी सुरक्षा ही नहीं है भाईसाहब।' मुझे उसकी बातों में दम नजर आया। वाकई जब देश का इतना बड़ा आदमी खुद को सुरक्षित नहीं मान रहा है तो फिर आम आदमी किसके भरोसे खुद को सुरक्षित माने? कौन उसको सुरक्षा का दिलासा दिलाएगा? मेरे भी जेहन में विचारों का द्वंद्व चलने लगा। सोचते-सोचते यही सोचना लगा कि देशवासी भावुक है। भावुकता से भरी कहानी सुनकर वे भावना में बह जाते हैं। हिस्से में सिवाय आंखें गीली करने के कुछ नहीं आता है। सचमुच हम बेहद इमोशनल हैं और प्रोफेशेनल लोग हमारा दोहन कर लेते हैं। कभी विकास के नाम पर...। कभी सपनों के नाम पर तो कभी किसी कहानी के नाम पर। हमारे दोहन के इस अंतहीन सिलसिले का क्रम कब रुकेगा राम ही जाने...। क्योंकि देश भगवान भरोसे ही है और हम सब भी।

वो मेरे से बड़ी हो गई


बस यूं ही

 
सरकारी दस्तावेजों में गलती की बानगी का आलम उनसे पूछिए जो इनसे बावस्ता हैं। बात चाहे मतदाता परिचय पत्र की हो या फिर राशन कार्ड की, सब जगह रापांरौळ (गड़बड़ी) ही है। पता नहीं कब पति को पिता बना दे या पिता का पुत्र। इतना ही नहीं लिंग परिवर्तन तक कर दिया जाता है। महिलाओं को पुरुष तो पुरुषों को महिला तक बना दिया जाता है। गलत फोटो चस्पा तक कर दी जाती हैं। पत्रकारिता के पेशे में होने के कारण इस प्रकार की विसंगतियों से वास्ता कई बार पड़ा है। मतदाता परिचय पत्र में नाम को लेकर संशोधन करवाने के लिए मैंने स्वयं ने दो तीन बार प्रयास किए लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। अब आदमी का हाल क्या होगा बताने की शायद जरूरत ही नहीं है। हालिया मामला राशनकार्ड से जुड़ा है। अभी गांव गया तो पापाजी ने बताया कि नए राशनकार्ड बनकर आ गए हैं। उत्सुकतावश जब राशनकार्ड देखे (घर में सभी के राशनकार्ड अलग अलग हैं) तो वे पहले के मुकाबले साइज में कुछ छोटे नजर आए। कार्ड के ऊपर लिखा था एपीएल उपभोक्ताओं के लिए। नीले रंग में राजस्थान के नक्शे के साथ कार्ड का कवर पेज एक नजर देखने में आकर्षक नजर आया। अंदर देखा तो सारी इंट्री कम्प्यूटरीकृत थी। मतलब पैन या बालपैन का कहीं उपयोग नहीं हुआ था। सारा का सारा काम कप्यूटर के माध्यम से सम्पादित किया गया था। राशनकार्ड में लिखी गई जानकारी कितनी सही एवं सटीक है, इसको गंभीरता के साथ नहीं देख पाया।
दूसरे दिन दिल्ली से भाईसाहब आए तो मैंने उनको बताया कि नए राशनकार्ड बन गए हैँ। इसके बाद फिर कार्ड को देखने लगा। तीसरे पेज पर एक कॉलम था. आयकरदाता- उसके आगे नहीं लिखा गया था। मैं चौंका क्योंकि दो साल तो आयकर के पैसे कट रहे हैं फिर भी आयकरदाता नहीं हूं। खैर, इसके बाद मेरे को डबल गैस सिलेण्डर धारक उपभोक्ता बताया गया वह भी बगड़ की गैस एजेंसी का। हकीकत तो यह है कि मैं डबल गैस सिलेण्डर धारक उपभोक्ता ही हूं लेकिन जिस एजेंसी का हवाला दिया गया है, वहां का नहीं हूं। मैंने छत्तीसगढ़ आने के बाद बिलासपुर से गैस कनेक्शन लिया और तबादला होने के बाद उसको भिलाई स्थानांतरित करवा लिया। अब राशनकार्ड बनाने वालों को पता नहीं क्या आगे की सूझ गई, जो उन्होंने गैस एजेंसी का नाम बगड़ डाल दिया। मेरे लिए तो यह दोनों जानकारी ही चौंकाने के लिए पर्याप्त थी लेकिन आखिर में परिवार के सदस्यों के नाम देखकर तो मैं एक तरह से उछल ही पड़ा। चूंकि राशनकार्ड मैंने गैस कनेक्शन के उद्देश्य से ही पहले से ही अलग बनवा लिया था, इस कारण उसमें मेरा, धर्मपत्नी एवं बच्चों के नाम हैं। पुराने राशनकार्ड में भी उम्र को लेकर कुछ विरोधाभास था लेकिन नए वाले में तो जबरदस्त विरोधाभास नजर आया है। हकीकत में मेरी उम्र 37 हो गई है लेकिन राशनकार्ड बनाने वालों ने इसे 26 ही लिखा। इतना ही नहीं बड़े बच्चे योगराज की उम्र आठ व छोटे एकलव्य की छह साल है लेकिन राशनकार्ड में दोनों की उम्र छह साल लिखी हुई है। मतलब दोनों जुड़वा हो गए। अति तो धर्मपत्नी की उम्र के साथ कर दी गई। राशनकार्ड में उसकी आयु 29 साल दिखा रखी है। इस हिसाब से वह मेरे से तीन साल बड़ी हो गई। यह सब देखकर मेरे पास राशनकार्ड बनाने वालों के सामान्य ज्ञान को दाद देने के अलावा कोई चारा नहीं था। वैसे अखबार से जुड़े होने के कारण इस प्रकार की गलतियां अखरना लाजिमी भी है। भिलाई लौटने के बाद जब यही बात धर्मपत्नी से साझा की और मजाक में कहा कि अब तो तुम मेरे से बड़ी हो गई हो गई हो? यह बात बिलकुल प्रमाणिक और सरकारी दस्तावेज में दर्ज है। मेरे इस मजाक को उसने बड़ी ही साफगोई के साथ शांत कर दिया, बोली, पत्नी हमेशा पति से छोटी हो यह जरूरी तो नहीं होता, अभिषेक एवं एश्वर्या का उदाहरण ही ले लो। अब भला मैं क्या बोलता। हां मन ही मन में इतना जरूर सोच रहा था कि कहीं राशनकार्ड बनाने वाला भी धर्मपत्नी जैसी सोच व मानसिकता वाला तो नहीं था?

यह प्राइवेट बस वाले...


बस यूं ही

 
बचपन में देखी फिल्म शोले का गीत 'स्टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो एक दो तीन हो जाती है... कोई हसीना जब रुठ जाती है तो...' वैसे तो कई बार सुना है लेकिन गीत की इस लाइन की गंभीरता उस दिन समझ में आई जब वास्तव में गाड़ी छूट गई। गाड़ी छूटने के बाद हुई दिक्कतों का उल्लेख तो कर ही चुका हूं लेकिन गाड़ी छूटने का वाकया भी बड़ा रोचक है। आठ अक्टूबर को दोपहर बाद 3.25 बजे दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से गोंडवाना एक्सप्रेस में मेरा कन्फर्म टिकट था। करीब इसी समय पर एक बार पहले राजधानी एक्सप्रेस से भिलाई जा चुका हूं, इसलिए इस बात से आश्वस्त था कि सुबह जल्दी चलकर आराम से स्टेशन पहुंच जाऊंगा। तैयार होकर सुबह गांव से बस पकड़कर नजदीकी बस स्टैण्ड बगड़ पहुंचा तब साढ़े सात बज चुके थे। पौने आठ बजे के करीब एक प्राइवेट बस आई, जिस पर राजस्थान राज्य पथ परिहवन निगम से अनुबंधित लिखा हुआ। उस पर लिखा था झुंझुनू से हरिद्वार वाया दिल्ली। अनुबंधित तथा दिल्ली व हरिद्वार लिखा देखकर मैं बस में यह सोचकर बैठ गया कि लम्बी दूरी की बस है, समय पर दिल्ली पहुंचा ही देगी। तसल्ली के लिए बस में बैठते वक्त परिचालक से पूछा तो उसने दोपहर डेढ़-दो बजे के बीच दिल्ली पहुंचने की बात कही। बस चल पड़ी। थोड़ी देर बाद परिचालक मेरे पास आया और किराया मांगा। मैंने किराया दिया तो बोला भाईसाहब बस हजरत निजामुद्दीन नहीं जाकर केवल धोलाकुआं तक जाएगी। मैं कुछ बोलता इससे पहले ही वह फिर बोला, धोलाकुआं से हजरत निजामुद्दीन के लिए काफी बसें हैं। आप उनमें चले जाना। खैर, उसकी बातों को सुनकर मैं चुप ही रहा। बस की रफ्तार एवं छोटे-छोटे गांव में उसके ठहराव को देखकर मन में आशंका घर कर चुकी थी लेकिन फिर भी मन ही मन खुद को दिलासा देता रहा कि अभी तो काफी समय बाकी बचा है। बगड़ से बस चिड़ावा पहुंची थी कि पीछे से हरियाणा रोडवेज की बस आई और तेजी के साथ निकल गई। यह वही बस थी, जिसमें पिछली बार दिल्ली गया था और निर्धारित समय से पहले ही पहुंच गया था। चूंकि किराया दे चुका था इसलिए चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया। परिचालक भी उस वक्त पता नहीं कहां गायब हो गया था। आखिरकार साढ़े आठ बजे के करीब बस चिड़ावा से रवाना हुई। सिंघाना जाने के बाद फिर बस रोक दी गई। लम्बे-लम्बे ठहराव देखकर यकीन मानिए बहुत बुरा लग रहा था लेकिन कोई जोर भी नहीं चल रहा था। सिंघाना से नारनौल के बीच में भी उसने कई बार रोका। नारनौल पहुंचते-पहुंचते साढ़े दस बज चुके थे। नारनौल से बगड़ की दूरी करीब 70 किमी के लगभग है लेकिन वहां पहुंचने में उसने पौने तीन घंटे लगा दिए थे। नारनौल से रेवाड़ी की दूरी भी 60 किमी के करीब है लेकिन सड़क उपेक्षाकृत खराब है, लिहाजा बस उतनी रफ्तार से नहीं चल रही थी, जितनी चलनी चाहिए। और कम से कम ऐसे हालात में मेरे को तो लगती भी कैसे। इंतजार करते-करते अंतत: 12 बजे बस जैसे-तैसे रेवाड़ी बस स्टैण्ड पहुंची। करीब पन्द्रह मिनट बाद परिचालक आया और बोला, धारूहेड़ा, मानेसर व बिलासपुर की सवारी बस में ना बैठें। केवल दिल्ली और गुडग़ांव के यात्री बैठे रहें। इस घोषणा के बाद दो चार सवारी जो उक्त स्थानों की थी वे उतर गई। बस में कोल्डड्रींक बेचने वाले एक लड़के ने बताया कि रास्ते में बहुत बड़ा जाम लगा हुआ है कल शाम से ही..इस कारण बसें वाया पटौदी होकर दिल्ली जा रही हैं। उसकी बात सुनकर धड़कन और तेज हो गई। इसी दौरान परिचालक आया और बोला सभी लोग अपनी टिकट दिखाकर बाकी का पैसा वापस ले लें। बस दिल्ली नहीं जाएगी। रेवाड़ी तक का किराया काटकर उसने पैसे वापस किए तो गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। साढ़े बारह का समय हो गया था। दिल्ली के लिए कोई बस है क्या इस वक्त?, तो परिचालक ने बगल में खड़ी एक प्राइवेट बस की तरफ इशारा करते हुए कहा, इसमें बैठ जाओ, यह दिल्ली जाएगी। उस बस के परिचालक के पास गया तो उसने कहा कि वह तो गुडग़ांव के इफको चौक तक ही जाएगी।
उस वक्त तय नहीं कर पा रहा था कि आखिर क्या किया जाए। बड़े ही विकट एवं विचित्र हालात बन गए थे। लगभग बदहवाशी की हालत में दिल्ली भाईसाहब को फोन लगाकर उनको बताया् फिर गांव में पापाजी को सारा वृतांत फोन पर ही सुनाया। भिलाई कार्यालय में भी फोन लगाकर घटनाक्रम से अवगत करा दिया। बस स्टैण्ड पर मेरे अलावा चार पांच युवक और खड़े थे, सभी को दिल्ली जाना था। मैंने टैक्सी से चलने का प्रस्ताव रखा तो एक बार तो सभी तैयार हो गए। इसी बीच एक बोला, टैक्सी वाला तो 25 सौ रुपए लेगा। मैंने कहा कि सभी के हिस्से पांच-पांच सौ आएंगे। इतना सुनते ही सब के सब चुप। मेरे पास भी जेब में उस वक्त तीन सौ रुपए ही थे। एटीएम से पैसे निकालवाने का विकल्प थी नहीं था क्योंकि कार्ड भिलाई में ही छोड़ दिए थे। आते वक्त पापाजी पांच सौ रुपए दे रहे थे लेकिन वो भी मैंने जानबूझकर नहीं लिए। पापाजी को कहा कि रास्ते में जो खर्चा होगा उतने तो जेब में हैं, काम चल जाएगा। पापाजी ने बार-बार कहा कि ले लो लेकिन मैंने नहीं लिए, हालांकि मैं पांच सौ रुपए रख भी लेता तो मेरे पास आठ सौ रुपए का ही जुगाड़ हो पाता। वैसे भी 25 सौ और आठ सौ में दूर दूर तक कोई समानता भी नहीं थी। हम सभी एक दूसरे का मुंह ताक ही रहे थे कि एक बुजुर्ग व्यक्ति ने चुप्पी तोड़ते हुए मेरे से कहा कि आपकी ट्रेन कितने बजे की है। मैंने साढे तीन बजे का समय बताया तो वह बोला, हमारी टे्रेन तो साढ़े पांच बजे की है, हम तो आराम से घूम फिर के पहुंच जाएंगे। बुजुर्ग की बाद सुनते ही सारे युवक वहां से खिसक लिए। मैं अकेला ही रह गया। इसी बीच अचानक एक बस आई, उस पर लोग टूट पड़े। भारी बैग को लेकर मैं भी किसी तरह बस में सवार हुआ। लेकिन उसके रंग-ढंग देखकर समझते देर नहीं लगी यह तो लोकल बस है और घूम-फिर कर दिल्ली जाएगी। ऐसे में बस से उतर जाना ही उचित समझा। दिमाग ने सोचना लगभग बंद कर दिया था। फैसला ही नहीं कर पा रहा था कि आखिर क्या किया जाए। स्टैण्ड से बाहर मुख्य सड़क पर इस उम्मीद से आया कि शायद कोई कार या जीप दिल्ली के लिए मिल जाए लेकिन वहां पर भी निराशा ही हाथ लगी। आखिरकार मन ही मन में फैसला कर लिया कि अब दिल्ली नहीं जाऊंगा। अब सामने दो दिक्कतें थी। दिल्ली-भिलाई के बीच वाले टिकट को निरस्त करवाना तथा दूसरा फिर से किसी ट्रेन में कन्फर्म टिकट की व्यवस्था। भिलाई कार्यालय के एक साथी से लगातार सम्पर्क में था। वह सभी रेलों की जानकारी बता रहा था। आखिरकार जयपुर-नागपुर में जाने का फाइनल कर दिया गया। इसके बाद एक रिक्शे वाले के पास गया और स्टेशन चलने को कहा तो वह बोला भाईसाहब ट्रेन पकडऩी है तो कोई ऑटो पकड़ लो। दस रुपए लेगा जल्दी पहुंचा देगा। मैंने कहा कि ट्रेन नहीं पकडऩी टिकट रद्द करवानी है। इसके बाद स्टेशन पहुंचा, वहां लाइन में लगने के बाद टिकट रद्द करवाया। ट्रेन रवाना होने के चार घंटे के अंतराल में टिकट रद्द करवाने पर कुल किराये का पचास फीसदी कट जाता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। टिकट रद्द करवाकर ऑटो पकड़कर वापस स्टैण्ड आया। थोड़े से इंतजार के बाद ही बस आ गई थी लेकिन उसमें काफी भीड़ थी। नारनौल तक खड़ा आया। नारनौल में जगह मिली तो कुछ आराम आया। करीब बारह घंटे की बेमतलब की यात्रा के बाद शाम सात बजे घर पहुंचा। यकीन मानिए इन बाहर घंटे में इतनी मानसिक वेदना झेली कि कुछ भी याद नहीं रहा। पानी सुबह घर से पीकर निकला था। वापसी में सिंघाना आकर बोतल खरीदकर पानी पीया। खाना तो जैसा मां ने दिया था वैसा का वैसा रह गया। ऐसे हालात में बजाय किसी को दोष देने के मैं खुद को ही कोस रहा था कि क्यूं प्राइवेट बस में सवार हुआ। अगर पांच मिनट इंतजार करने के बाद हरियाणा रोडवेज की वह बस पकड़ लेता तो शायद यह सब होता ही नहीं। वाकई स्टेशन से गाड़ी जब छूट जाती है तो बड़ी पीड़ा होती है। अब यकीन तो आपको भी हो गया होगा। भगवान बचाए इन प्राइवेट बस वालों से।

वो 45 घंटे


बस यूं ही

 
बेहद ही थकाऊ व उबाऊ और अब तक की सबसे लम्बी यात्रा के बाद आखिरकार रविवार अलसुबह करीब पांच बजे मैं भिलाई पहुंचा। गांव (केहरपुरा कलां, राजस्थान) से भिलाई (छत्तीसगढ़) तक पहुंचने में वैसे तो 28 से 30 घंटे तक का समय लगता है लेकिन इस बार सारे रिकार्ड ध्वस्त हो गए। आठ अक्टूबर को भिलाई वापसी का कार्यक्रम (ट्रेन छूट जाने के कारण ) ऐसा गड़बड़ाया कि पटरी पर बड़ी मुश्किल से आया। किसी न किसी तरीके से और जितनी जल्दी हो सके भिलाई पहुंचना जरूरी था। तत्काल दिल्ली से भिलाई तक के बीच चलने वाली तमाम ट्रेन की जानकारी जुटाई गई मगर सभी में वेटिंग दिखाई दे रहा था। जयपुर से भिलाई के बीच चलने वाले रेलों की हालात भी कमोबेश ऐसी ही थी। वैकल्पिक हल के रूप में तय किया गया कि अगर कोई सीधी ट्रेन नहीं है तो क्यों न टुकड़ों में जाया जाए। बस यहीं से निर्धारित समय से ज्यादा समय खर्च होने की बुनियाद रख दी गई थी। जयपुर से नागपुर के बीच चलने वाली एक ट्रेन में उम्मीद की कुछ किरण दिखाई दी। लिहाजा, इसी ट्रेन की टिकट 8 अक्टूबर को ही बुक करा दी गई। आरएसी में 42 नम्बर मिला था। संतोष इस बात का था कि चलो बैठने का स्थान तो पक्का है। मन में विश्वास भी था कि आरएसी टिकट कन्फर्म हो जाएगी। कन्फर्म को लेकर उत्सुकता इतनी ज्यादा थी कि करीब चार दर्जन मैसेज 139 पर कर-करके अपडेट जानता रहा। 11 अक्टूबर को सुबह आठ बजे घर से रवाना होते वक्त भी मैसेज किया लेकिन उसमें 18 नम्बर पर आरएसी दिखा रहा था। जयपुर के लिए सीधी बस पकडऩे के लिए झुंझुनू बस डिपो जाने की बजाय बगड़ तिराहे पर ही उतर गया। पांच मिनट बाद ही राजस्थान रोडवेज की बस आई लेकिन भीड़ इतनी कि तिल रखने की भी जगह नहीं थी। बस की हालत देखकर मैं पीछे हट गया। गनीमत रही कि पीछे-पीछे एक प्राइवेट बस भी थी। भीड़ तो उसमें भी थी लेकिन खड़े होने लायक जगह थी। मैं उसमें सवार हो गया। झुंझुनू आने के बाद सभी यात्रियों को एक दूसरी बस में बैठने के लिए कहा गया। बस की सभी सीटें भरी हुई थीं, इतना जरूर था कि बस स्लीपर थी इस कारण इन पर भी यात्रियों की बैठाया गया था। सिंगल स्लीपर में दो तो डबल में चार यात्री बैठे थे। हिम्मत करके मैं भी डबल वाले स्लीपर में चढ़ गया, वह भी सबसे आखिर में। सीकर आते-आते बस लगभग खाली हो चुकी थी। ऊपर बैठे कई यात्री अब नीचे की सीटों पर आ गए थे। सीकर से निकलते ही अचानक तेज बारिश का दौर शुरू हो गया। हर तरफ पानी ही पानी। बस के अंदर भी काफी पानी हो गया था। कई जगह से पानी टपकने लगा था। रही सही कसर एक शीशे ने पूरी कर दी। शीशे को पेचकस से बंद करने के प्रयास में परिचालक से पूरा शीशा ही टूट गया। अब तो बारिश की बौछारें तेज हवा के साथ बस के अंदर तक आने लगी थी। पर्दे को शीशे की जगह लगाने का प्रयास किया लेकिन वह भी गीला होकर उडऩे लगा। तेज हवा और फुहारों से शरीर में सिहरन होने लगी थी। खुली खिड़की की जद में मैं ही जो आ रहा था। आखिकार दोपहर के करीब दो बजे बस जयपुर पहुंची। यहां बारिश कुछ हल्की थी। बूंदाबांदी के बीच तत्काल रिक्शे से जयपुर रेलवे स्टेशन पहुंचा। तब तक बारिश कुछ तेज हो गई थी। भीगते हुए ही स्टेशन परिसर में प्रवेश किया। ढाई बज चुके थे। टिकट कन्फर्म को लेकर अभी भी ऊहोपाह की स्थिति थी। दो तीन बार दो मैसेज का जवाब नहीं आया। एक दो बार फेलियर का मैसेज भी आया। आखिरकार साढ़े तीन बजे चार्ट बना और टिकट कन्फर्म का मैसेज आया तो यकीन मानिए एक तरह का बोझ सा हट गया था। ट्रेन तो दो घंटे पहले ही प्लेटफार्म पर पहुंच गई थी और मैं भी। लेकिन चार बजे के करीब जब आरक्षण चार्ट ट्रेन पर लगाया गया तो शायद ही कोई यात्री होगा जिसका टिकट कन्फर्म ना हो। इसकी प्रमुख वजह यह थी कि यह ट्रेन अभी नई नई ही चली है। ऐसा लगा कि यात्रियों को इसके बारे में जानकारी कम है। आखिरकार निर्धारित समय शाम 4.30 बजे यह ट्रेन जयपुर से रवाना हुई। इसका रुट कुछ अलग था। यह वाया सवाइमाधोपुर होकर कोटा जाने की बजाय अजमेर, भीलवाड़ा, चित्तोड़ होते हुए कोटा आई। दिन भर मध्यप्रदेश में दौडऩे के बाद दूसरे दिन शाम सात बजे यह ट्रेन नागपुर पहुंची। नागपुर से भिलाई का आरक्षण पहले ही करवा लिया था। भिलाई के लिए ट्रेन रात 11.35 पर थी। ऐसे में मेरे पास चार घंटे से ज्यादा समय था। पूछताछ की शायद कोई बस मिल जाए तो और भी जल्दी भिलाई पहुंच जाऊं। जल्दी पहुंचने की उत्सुकता इतनी थी कि ट्रेन का तत्काल में लिया टिकट भी रद्द करवाना तय कर लिया था। ऑटो लेकर नागपुर के बस स्टैण्ड तक हो आया लेकिन वहां उस वक्त ऐसी कोई बस ना थी जो ट्रेन से पहले भिलाई छोड़ दे। आखिकार वापस स्टेशन आ गया। यहां जूते निकाल कर आराम से बैठ गया। थोड़ी ही देर में पास में एक सज्जन आकर बैठ गए। अपने मोबाइल में कुछ टाइप करने में व्यस्त थे। अचानक मेरे से पूछ बैठे भाईसाहब घड़ी में एएम और पीएम का क्या मतलब होता है। मैं उनके सवाल पर थोड़ा सा हंसा और फिर उनको बताया। इसके बाद तो बातों सिलसिला ही चल पड़ा। वो सज्जन मूलत: जमशेदपुर (टाटानगर, झारखण्ड) के रहने वाले थे। अपने शहर जा रहे थे। बताया कि नागपुर के एक होटल में मास्टर सेफ हैं और अब यहां से इस्तीफा दे दिया है, झारखण्ड से लौटने के बाद रायपुर के किसी होटल में पदभार ग्रहण करना है।
बातचीत के इस दौर में दो घंटे बीत गए। अचानक हावड़ा-हटिया जाने वाली ट्रेन आई तो वो बोले इसी में निकल जाता हूं। जब तक दस सवा दस हो गए थे। स्टेशन पर भीड़ बढऩे लगी थी। श्रीमती के बीच में दो तीन फोन आ गए, वह बोली, आप रात को नागपुर में रुक जाओ, तूफान आने वाला है। मैं उसकी सलाह पर थोड़ा मुस्कुराया और उससे कहा कि अब इससे ज्यादा परेशानी और क्या होगी, जो होगा देखा जाएगा। खैर, निर्धारित समय से थोड़ा विलम्ब से ट्रेन स्टेशन पर आई। आखिरकार सुबह साढ़े चार बजे के करीब मैं दुर्ग रेलवे स्टेशन उतरा। घर पहुंचते-पहुंचते पांच बज चुके थे। समय की गणना करने लगा तो दो दिन और लगभग दो रात तो सफर में ही बीत गए थे। एक नया रिकार्ड बन गया था, 45 घंटे तक लगातार यात्रा करने का। यकीनन यात्रा बेहद तकलीफदेह एवं थकाने वाली रही लेकिन अपने साथ कई तरह के अनुभव छोड़ गई।