Wednesday, November 29, 2017

तीन साल बाद भी खाली हाथ

टिप्पणी
शहर की सरकार को तीन साल पूरे हो गए हैं। बिलकुल चुपचाप। कुछ कहने को होता तो बाकायदा जलसा होता, जश्न भी मनता, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वैसे देखा जाए तो इन तीन सालों में उपलब्धियों का खजाना खाली ही है। नगर परिषद व सभापति के खाते में बीते तीन साल में एक भी ऐसी उपलब्धि नहीं है, जिसने शहरवासियों को सुकून पहुंचाया हो। शहर के हालात देखते हुए कई मौकों पर तो ऐसा लगा कि यहां सब कुछ रामभरोसे ही है। व्यवस्था देखने और संभालने वाला कोई नहीं है। अहं ऐसा हावी रहा कि तीन सालों में सभापति नगर परिषद के आला प्रशासनिक अधिकारियों से भी तालमेल नहीं बैठा सके, लिहाजा विकास कार्यों की फाइलें धूल फांकती रहीं। खास व बड़ी बात तो यह है कि सभापति कांग्रेसियों के लिए कांग्रेसी सभापति हैं तो भाजपाइयों के लिए भाजपा के। उनके दोनों हाथों में लड्डू हैं। उन पर कथित रूप से 'सर्वदलीय' सभापति का ठप्पा लगने से दोनों पार्टियां नगर परिषद में नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति ही भूल गई है। विरोध करना हो या समर्थन, दोनों की भूमिका पार्षद ही निभा रहे हैं। इस 'एकल' राज से सभापति भी खुश और पार्षदों की भी मौजां की मौजां है। एक विरोधी धड़ा उप सभापति का जरूर है, लेकिन सभापति के पास 'बहुमत' होने और पार्षदों की शतरंजी चालों के कारण उनका विरोध कभी प्रभावी नहीं बन पाया। इस सर्वदलीय सरकार के चक्कर में शहर के जो हालात हैं उसके लिए पक्ष व विपक्ष समान रूप से जिम्मेदार हैं। शहरहित व जनहित के नाम पर न तो विपक्ष की तरफ से कभी कोई बड़ा आंदोलन दिखाई दिया न पक्ष की तरफ से कोई विशेष काम। सभापति के खिलाफ गाहे-बगाहे विरोध के स्वर जरूर सुनाई दिए, लेकिन उनको हटाने की मुहिम भी समाचार पत्रों की सुर्खियों से आगे नहंीं बढ़ पाई। इसकी बड़ी वजह सभापति का विरोध हकीकत में कम बल्कि दिखावा ज्यादा था। सभी जानते हैं कि विरोध करने वालों के दम पर ही तो सभापति की कुर्सी टिकी है। खैर, कुर्सी के किस्सों के शोर में शहर हित व जनहित के मुद्दे हमेशा से ही गौण रहे हैं। बात बरसाती पानी की निकासी हो या कैटल फ्री शहर की, अतिक्रमण का मुद्दा हो या साफ सफाई की, मन मुताबिक सीवरेज कार्य हो या शहर में गुणवत्ताहीन निर्माण कार्य, बंद रोडलाइट हों या पार्कों का सौन्दर्यीकरण, अवैध पार्र्किंग का हो या गंदे पानी की निकासी, एक दो अपवाद छोड़कर सब मामलों में सभी चुप हैं, पक्ष भी और विपक्ष भी। शहर के जन प्रतिनिधियों को यह समस्याएं दिखाई क्यों नहीं देती हैं या वे देखने का प्रयास ही नहीं करते? क्या यह मुद्दे व्यक्तिगत हैं? क्या इनमें जनहित नहीं जुड़ा? क्या यह काम किसी दल विशेष के हैं? बहरहाल, मौजूदा परिषद के कार्यकाल का आधे से ज्यादा समय बीत चुका है, दो साल शेष हैं। तीन साल की कार्यप्रणाली व रंग-ढंग से लगता नहीं कि बाकी रहे कार्यकाल में शहर की तस्वीर बदलेगी। चुनावी साल होने के नाते सरकारी स्तर पर कोई काम हो जाए तो बात अलग है। मौजूदा बोर्ड के कामकाज से तो ऐसा लगता है सब के सब शहर के विकास को प्राथमिकता देने की बजाय समय गुजारने में लगे हैं। फिर भी सभापति व जन प्रतिनिधि शहर हित या जन हित को लेकर गंभीर हैं या होते हैं तो उनको काम करने के मौजूदा तौर तरीकों में आमूलचूल बदलाव करना होगा। इस बात को याद रखते हुए कि जो जनता सिर आंखों पर बिठाती है, मौका आने पर वह नजरों से गिरा भी देती है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 29 नवंबर 17 के अंक में प्रकाशित

ऑनलाइन बुकिंग के खतरे

बस यू हीं
बीते शुक्रवार को रात सवा दस बजे के करीब जोधपुर से बीकानेर के लिए ऑनलाइन तीन टिकट बुक करवाए। दरअसल, यह टिकट रविवार रात 11.15 बजे की बस के थे। सीट, रवानगी समय, पहुंच समय, किराया आदि सब अच्छी तरह से देख लिया गया लेकिन बुकिंग कौनसी तारीख में हो रही है यह ध्यान नहीं दिया। तमाम औपचारिकता पूरी कर ली गई। खाते से पैसे भी कट गए। आखिरकार मोबाइल पर मैसेज आया तो पहली ही लाइन देखकर चौंक गया। उस पर तिथि 24 नवम्बर लिखी थी। इसका मतलब था कि बस छूटने में मात्र एक घंटे से भी कम समय बचा था। तत्काल बस ऑपरेटर को फोन लगाया गया। बड़ी मुश्किल से उसका फोन लगा तो उसने तत्काल ऑनलाइन बुकिंग करने वाली कंपनी से बात करने का कहकर फोन काट दिया। प्राइवेट टूर ऑपरेटर्स की बसें बुक करवाने के लिए आजकल रेडबस नामक एजेंसी काम कर रही है। इंटरनेट पर कंपनी के नंबर सर्च करने के बाद कस्टूमर केयर पर फोन लगाया गया तो वहां फोन उठाने वाले ने सारी शिकायत सुनने के बाद मेल अपने उच्च अधिकारियों को फारवर्ड तो कर दिया, उसका सीसी मेरे पास भी आ गया लेकिन उसने किसी भी तरह की मदद करने से साफ इनकार कर दिया। तमाम तरह के निवेदन, आग्रह व बार-बार प्लीज-प्लीज का उस पर कोई असर नहीं हुआ। करीब दस मिनट तक उससे वार्तालाप हुआ लेकिन वह न तो टिकट को आगे की तिथि को करने को तैयार हो रहा था ना ही उसको रद्द कर रहा था। मतलब साफ था कि इन तीन व्यक्तियों का किराया नाहक में लग रहा था। आखिरकार जोधपुर स्थित अपने सहयोगियों की मदद ली गई और आखिरकार समस्या का समाधान हो गया। टिकट 24 नवम्बर की बजाय 26 नवम्बर को कर दिए गए थे। इस तरह जरा सी लापरवाही का खामियाजा करीब घंटे भर की मशक्कत करके भुगतना पड़ा। 
वैसे ऑनलाइन बुकिंग के फायदा तो हैं, इससे समय बचता है लेकिन इस तरह के अनुभव से ऑनलाइन बुकिेंग के प्रति गुस्सा भी आता है। कुछ इस तरह का अनुभव इसी साल मार्च में दिल्ली में हो चुका है। टैक्सी प्रदाता कंपनी उबर से एक कार प्रेस भवन से नजफगढ़ के लिए बुक करवाई। गूगल मैप में मेरे को कार की मौजूदा स्थिति बताई जा रही थी। मैं जहां खड़ा था, वहां से कुछ दूर पर ही वह कार आगे पीछे घूम रही थी। करीब पांच मिनट तक यह सब चलता रहा। इसके बाद चालक की कॉल आई, कहने लगा भाईसाहब आपका एड्रेस ट्रेस नहीं हो रहा है, इसलिए आपकी ट्रिप कैंसिल की जा रही है। इसके बाद मैंने उसी कंपनी की दूसरी टैक्सी बुक की, जो निर्धारित स्थान पर आ गई। किराया चूंकि इसमें पहले ही बता दिया जाता है, इसलिए मैं अवगत व आश्वस्त था। गंतव्य स्थान जो मैंने गूगल पर सर्च करके भरा वह नजफगढ़ का निहायत ही देहाती व अनदेखा इलाका निकला। कार वाले ने कहा भाईसाहब आपका स्थान आ गया है। मेरे पास उसका मुंह ताकने के अलावा कोई चारा न था। दुखी मन से मैंने उससे कहा भाई कम से कम कोई मार्केट या चहल-पहल वाली जगह तो छोड़ ताकि किसी तरह गंतव्य तक पहुंचा जाए। वह मुश्किल एक किलोमीटर ही और चला होगा कि निर्धारित राशि से ज्यादा का मैसेज मेरे मोबाइल पर आ चुका था। हैरानी तब हुई जब कैंसिल की गई कार का बतौर जुर्माना शुल्क भी इस बिल में जुड़ कर आया जबकि कार रद्द का फैसला उनका था। 
बहरहाल, ऑनलाइन के ये दो अनुभव बताते हैं कि इस बुकिंग में जितनी सुविधा है उतने खतरे भी हैं। जरा सी भूल हुई नहीं कि यह ऑनलाइन वाले अंगुली के बहाने आपका पोहंचा पकडऩे को तैयार बैठे हैं। इसीलिए जब भी ऑनलाइन बुकिंग करें तो थोड़ी सावधानी जरूर बरतें अन्यथा बैठे बिठाए आर्थिक नुकसान का फटका भुगतना पड़ सकता है। मानसिक परेशानी व समय की बर्बादी होगी सो अलग।

हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

बस यूं ही
'हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी. जिसको भी देखना हो. कई बार देखना' मशहूर शायर निदा फाजली की गजल का यह चर्चित शेर इन दिनों मौजूं हैं। इसको सीधे अर्थों में समझें तो दोहरे चरित्र वाले या दो तरह के जीवन वाले या फिर स्पष्ट रूप से कहें तो दोगला आदमी। दोगला वह जिसकी कथनी और करनी में अंतर होता है। सियासत में यह दोगलापन ज्यादा दिखाई देता है। आजकल इस दोगलेपन को नए तरीके से परिभाषित किया जाने लगा है। एक तो सार्वजनिक जीवन और दूसरा व्यक्तिगत जीवन। जाहिर सी बात है सार्वजनिक जीवन में सार्वजनिक बयान और व्यक्तिगत जीवन में व्यक्तिगत बयान। यह नई परिभाषा इसीलिए ईजाद की गई है क्योंकि सियासत में आजकल बेतुके बयान जारी करने का प्रचलन सा चल पड़ा है। बयान हिट तो सभी राजी और बयान विवादास्पद तो व्यक्तिगत बयान देकर पल्ला छाड़ लिया जाता है। यह व्यक्तिगत बयान की बात बेहद बचकानी लगती है। विडम्बना देखिए बंद कमरे में किसी के निहायत ही निजी पल पलक झपकते ही सार्वजनिक हो जाते हैं लेकिन सार्वजनिक रूप से दिया गया बयान व्यक्तिगत हो जाता है। एक बार मान भी लें कि नेता लोग दो तरह की जिंदगी जीते हैं लेकिन फिर उसमें विरोधाभास क्यों? सार्वजनिक व व्यक्तिगत बयानों का कोई मापदंड तो तय हो, अन्यथा नेता लोग उलूल जलूल बयान जारी करते रहेंगे और विरोध होने पर उसे व्यक्तिगत बता देंगे। इसलिए यह तय करना जरूरी हो जाता है कि बयान व्यक्तिगत है या सार्वजनिक। इतना ही नहीं है, हालात तो तब और भी अजीब हो जाते हैं जब बयान देने वाले कुछ नहीं कहे और उनकी पार्टी के लोग चलकर बचाव में बयान जारी करें दें। इस तरह की कलाकारी बयान जारी करने वाले को क्यों नहीं सूझती? कल को कोई नेता बंद कमरे में पैसे का लेनदेने शुरू कर दे और मामले का भंडाफोड़ हो जाए तो बचाव करने वाले क्या उसको भी व्यक्तिगत मामला ही करार देंगे?
बहरहाल, गुजरात में एक सामाजिक नेता की एक युवती के साथ की सीडी तो सार्वजनिक करार दे जाती है और चुनावी मुद्दा बन जाती है, वहीं राजस्थान में एक पार्टी प्रदेशाध्यक्ष का अतिक्रमण करने की छूट देने तथा खुद के आंख मूंद लेने का बयान व्यक्तिगत बन जाता है, एेसा क्यों होता है?

व्यवस्था की थोथ में धंसते टायर

श्रीगंगानगर. इस फोटो को आप गौर से देखेंगे तो हो सकता है आप ज्यादा से ज्यादा यह सोच पाए कि यह कोई स्कूल का वाहन है तथा गाड़ी में कोई गडबड़ी है, इस कारण बच्चों को नीचे उतार कर गाड़ी को ठीक किया जा रहा है। लेकिन आपका यह सोचना गलत है। यह फोटो जिला अस्पताल के सामने स्थित श्रीराम अन्न क्षेत्र मंदिर की बगल वाली गली का है। यहां अभी हाल में ही पेयजल लाइन व सीवरेज डाली गई है। लेकिन, पाइप डालने के बाद खाई को ठीक से नहीं पाटा गया। इस कारण कोई भी वाहन गुजरता है तो टायर धंस जाते हैं। बुधवार दोपहर ढाई बजे स्कूल का यह वाहन गुजरा तो चालक की तरफ की दोनों टायर नीचे थोथ में बैठ गए। गाड़ी एक तरफ टेढ़ी हुई तो बच्चों में हडंकप मच गया और वो चिल्लाने लगे। आखिरकार चालक ने सभी बच्चों को नीचे उतारा और काफी मशक्कत के बाद गाड़ी को निकाला। गनीमत रही कि बड़ा हादसा नहीं हुआ।
मनमर्जी का काम
लगातार शिकायतों के बावजूद सीवरेज व पाइप लाइन बिछाने वाले कंपनी के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। आमजन को होने वाली तकलीफों को दरकिनार कर कंपनी मनमर्जी से काम कर रही है। यूआईटी की बगल वाली सड़क पर दिनभर वाहनों की रेलमपेल रहती है। इसके बावजूद यह मार्ग तकरीबन छह बार बंद हो चुका है। सड़क को तोड़ा जा चुका है। खाई पाटने के बाद सड़क को समतल तक नहीं किया गया। सूखी धूल दिनभर उड़ती है लेकिन पानी का छिड़काव नियमित नहीं है। जहां प्रभावशाली लोग है, वहां कंपनी का काम करने का तरीका दूसरा है। यह भेदभावपूर्ण व्यवहार भी आमजन की तकलीफ बढ़ा रहा है।
ऐसा इसलिए हुआ
दरअसल, जहां स्कूल वाहन फंसा वह कोई अति व्यस्त रास्ता नहीं है। लेकिन उधर से गुजरना गाड़ी चालक की मजबूरी थी। क्योंकि मोतीराम के ढाबे के पास जेसीबी से खुदाई के दौरान पेयजल लाइन टूट गई। इसे ठीक तो कर दिया लेकिन खाई को पाटा नहीं गया। इस कारण पूरे दिन यह रास्ता बाधित रहा। रास्ता बाधित होने के कारण चालक ने बगल की गली से गाड़ी निकालने का प्रयास किया लेकिन थोथ के कारण टायर धंस गए।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 23 नवंबर 17 के अंक में प्रकाशित 

इक बंजारा गाए-10


🔺वापसी के मायने
राजनीतिक दलों में नेताओं का आना-जाना लगा ही रहता है। सब अपनी सहुलियत व अवसर के हिसाब से पाला बदलते हैं। अदला-बदली का यह इतिहास पुराना है। अब श्रीगंगानगर में भी एक नेताजी की अपनी पार्टी में वापसी हुई है। अब इनकी वापसी से जहां कई खुश हैं, वहीं कइयों के माथे पर बल अभी से पडऩे लगे हैं। घर वापसी करने वाले नेताजी की भूमिका क्या रहेगी, यह तो अभी समय बताएगा लेकिन राजनीतिक जानकारों ने अभी से अपने-अपने हिसाब से कयास लगाने शुरू कर दिए हैं। वैसे श्रीगंगानगर के साथ एक सच यह भी जुड़ा है जिसने भी दल बदला है, उसको एक बार तो फायदा जरूर हुआ है लेकिन बाद में सफलता उनसे इस कदर रूठी कि फिर कभी भाग्य उदय हुआ ही नहीं। इस फेहरिस्त में कई नाम हैं।
🔺पानी पर सियासत
सियासत करने वालों को बस मौका चाहिए। अब श्रीगंगानगर जिले में पानी ऐसा विषय है जिस पर लंबे समय से सियासत होती रही है, इसके बावजूद यह समस्या आज भी यथावत है। विशेषकर चुनावी मौसम में यह सियासत चरम पर पहुंच जाती हैं। विडम्बना देखिए कि मामला किसानों से जुड़ा है लेकिन उनके रहनुमा अलग-अलग बन रहे हैं। मतलब उनकी मांग टुकड़ों में बंटी हुई है। वैसे कहा गया है कि एकजुटता में ही शक्ति है, लेकिन सियासी फेर में किसान चकररघिन्नी बने हुए हैं। किसान भी इस लालच में सभी के साथ हो रहा है कि उसकी समस्या का समाधान होना चाहिए भले ही वह किसी भी तरह से हो। देखने की बात यह है कि समाधान का श्रेय कौनसा सियासी दल लेता है और जनता किसका समर्थन करती है।
🔺आम और खास
श्रीगंगानगर में सीवरेज खुदाई के काम ने लोगों को किस कदर परेशानी में डाल रखा है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है लेकिन सीवरेज खुदाई वाली कंपनी इस काम में भेदभाव जरूर कर रही है। विशेषकर जहां वीआईपी लोगों का मोहल्ला है, वहां काम न केवल तुरत-फुरत होता है बल्कि रास्ते समतल करने का काम भी प्राथमिकता से होता है। मॉडल टाउन कॉलोनी में आम और खास के भेद को आसानी से देखा जा सकता है। विशेषकर चिकित्सकों वाली गली में सीवरेज कंपनी का विशेष ध्यान है जबकि जहां आम आदमी हैं, वहां के लोग आज भी ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर चलने तथा धूल फांकने को मजबूर हैं। अब यह तो सीवरेज कंपनी भी जानती है कि आम लोगों की कहीं पहुंच नहीं होती है, लिहाजा मनमर्जी खुलेआम चलाई जा रही है।
🔺फिर भी मुक्ति नहीं
जयपुर में हाल में ही एक विदेशी पर्यटक की सांड के सींग मारने से मौत के बाद प्रशासनिक अमला हरकत में आया हुआ है। श्रीगंगानगर में भी प्रशासनिक अमला इसी तरह हरकत में आया था। हालांकि मौत किसी विदेशी की तो नहीं हुई लेकिन वह श्रीगंगानगर के वरिष्ठ नागरिक जरूर थे। उस मौत के बाद प्रशासन ने कार्रवाई के नाम पर हाथ-पैर जरूर मारे लेकिन धीरे-धीरे बात आई गई हो गई। आवारा मवेशी फिर उसी अंदाज में सड़कों पर स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं। यह तो गनीमत है कि इन दिनों कोई हादसा नहीं हुआ है। वरना फिर वही आग लगने पर कुआं खोदने के अंदाज में कार्रवाई होती। अगर इस समस्या का स्थायी समाधान हो जाए तो मौत न तो जयपुर में हो और न ही श्रीगंगानगर में। देखने की बात है कि वह दिन कब आएगा।

राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 23 नवंबर 17 के अंक में प्रकाशित 

काश यह सब पहले हो जाता


आज सुबह से ही घर व कॉलोनी में स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों का आना जाना लगा है। इसकी प्रमुख वजह मेरे अलावा कॉलोनी में एक अन्य व्यक्ति के डेंगू होना।जहां जहां डेंगू रोगी चिन्हित होते हैं वहां.वहां स्वास्थ्य विभाग वह सब करता है जो उसको समय समय पर करते रहना चाहिए। लेकिन तब ऐसा नहीं होता। पहले बीमारी फैलने का भरपूर इंतजार किया जाता है। और जब फैल जाए तब इस तरह से प्रदर्शित किया जाता गोया इनसे ज्यादा संवेदनशील तो कोई है ही नहीं। खैर, कल रोग की पहचान होते के साथ ही फोन आ गया था और मुझसे पूरा पता पूछा गया। आज दोपहर करीब एक बजे दो युवक आए। कहने लगे दवा का छिड़काव करना है। दरअसल यह लिक्विड था जिसकी बूंदें पानी की टंकी, गमले व फ्रीज की पीछे लगी ट्रे आदि में डाली गई। मेरा नाम पता नोट किया , हस्ताक्षर करवाए। इसके बाद यही क्रम पूरी कॉलोनी में दोहराया गया। साफ पानी एकत्रित न होने देने की नसीहत देकर यह चले गए।
शाम होने से ठीक पहले दिन जने और कहने लगे स्प्रे करना है। एक जने ने मशीन निकाली और हर कमरे, स्टोर। बाथरूम आदि के कोने कोने में स्प्रे किया। इसके बाद कॉलोनी के कई घरों में यह क्रम दोहराया गया। तीसरे चरण के तहत सबसे आखिर में फोगिंग मशीन चलाकर पूरे मोहल्ले में घुमाई गई। मशीन घर के आगे से गुजरी ही थी कि बड़ी संख्या में मच्छरों का झुण्ड मेरे सिर पर मंडराने लगा। मैंने आवाज लगाकर फोगिंग वाले को बुलाया और मच्छर दिखाए तो कहने लगा यह लाइट वाले हैं। मैंने कहा लाइट के हैं तो लाइट के पास जाए. इधर क्यों आए हैं? और क्या यह काटते नहीं? सामने वाला थोडा सा सकुचाया कहने लगा फोगिंग से मच्छर मरते नहीं है भागते हैं। उसका जवाब सुनकर मेरे पास हंसने के अलावा कोई चारा न था। खैर , दिन भर की कवायद देखकर मैं सोच में डूबा था। सोचने लगा ऐसी नौबत आती ही क्यों है?

सेनाओं का शक्ति प्रदर्शन

पता नहीं राजस्थान में कितनी सेनाएं बनेंगी। पहले एक सेना बनी। फिर उससे अलग होकर दूसरी बनी। अब श्रीगंगानगर में भी एक सेना बनी है। इसका नाम पहली व दूसरी से अलग है। फिलहाल तीनों ही सेनाएं अलग-अलग तरीकों से पदमावती फिल्म को लेकर जबरदस्त व्यस्त हैं। विशेषकर दो सेनाओं में तो मुकाबला सा चल रहा है। किस सेना के पास कितना सामान है और उसके कितने समर्थक हैं, यह बताने व जताने की होड़ सी लगी है। बैनर के नीचे जय-जयकार करने वाले कहां कम हैं और कहां ज्यादा है। यह सब दिखाने के भरपूर प्रयास हो रहे हैं।
दरअसल, इन सेनाओं के पास मुद्दा कोई भी रहा हो लेकिन इसके मूल में खुद को इक्कीस साबित करने की प्रतिस्पर्धा ज्यादा रही है। याद होगा पिछले दिनों एक गैंगस्टर एनकाउंटर में भी इन सेनाओं ने अलग-अलग बंद का आह्वान किया था। पर हासिल क्या हुआ? सिवाय अपने-अपने नाम चमकाने के।
अब पदमावती को लेकर भी बंद का आह्वान किया गया है। एक सेना ने तीस नवम्बर को बंद का एेलान किया है तो दूसरी ने एक दिसम्बर को। मुद्दा एक ही है लेकिन बंद दो दिन होगा। बंद कैसा होगा यह अलग बात है लेकिन दो दिन का बंद मतलब साफ है, शक्ति प्रदर्शन करना। आखिर समाज व सरकार को दिखाना भी तो है कि बड़ा कौन है। समाज का ज्यादा हितैषी कौन है। यहां मूल लड़ाई संख्या बल की है। अब इन संगठनों के मुखियाओं को कौन समझाए कि जोर जबरदस्ती करके आप फिल्म वालों को जरूर डरा सकते हो लेकिन जनता के दिलों में एेसे प्रदर्शनों या बंद से जगह नहीं बनने वाली। फिल्मों को लेकर प्रदर्शन पहले भी हुए हैं। क्या किसी सेना ने किसी फिल्म को बैन करवाया? क्या किसी फिल्म पर रोक लगी? इसीलिए भावनाओं में बहकर इन संगठनों से जुडऩे वाले पहले तो खुद से ही सवाल करे कि एक ही मसले पर यह सेनाएं अलग-अलग क्यों लड़ रही हैं। अलग-अलग दिन बंद का आह्वान क्यों कर रही हैं। एक तरफ तो यह जागरुकता व एकजुटता का नारा देते हैं दूसरी तरफ खुद अपनी अपनी ढपली अलग-अलग तरीके से बजा रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं, पदमावती हम सब के लिए गौरव व आत्म सम्मान का विषय है। लेकिन यह तो जरूरी नहीं है कि किसी बैनर के नीचे जाकर ही हिंसात्मक तरीके से विरोध जताया जाए। लोकतंत्र में विरोध के तरीके बहुत हैं। कितना अच्छा होता है आप सिर्फ बंद का आह्वान करते और बाकी जनता पर छोड़ देते। जनता की सहानुभूति अगर आपके साथ है तो यकीनन वह बंद में दिखाई भी देगी। लेकिन जोर जबरिया बंद से सहानुभूति मिलने से रही। क्योंकि आग रूपी भावनाओं में फिलहाल बयान रूपी घी डाला जा रहा है। तय मानिए भावनाओं में जितना ज्यादा उबाल होगा तो अनिष्ट की आशंका भी उतनी ही रहेगी। भगवान न करे फिर भी अगर कोई अनिष्ट हुआ तो तय मानिए मुकदमे भी होंगे। कोई बड़ी बात नहीं मुकदमों में फंसे लोगों के लिए मौके की नजाकत भांपते हुए सरकार की ओर से फिर कोई पासा भी फेंक दिया जाए।
बहरहाल, केन्द्र व राज्य सरकार की भूमिका इस मामले में वेट एंड वाच वाली है। हां इतना जरूर है कि गुजरात व यूपी में चुनाव है, लिहाजा केन्द्र की तरफ से वहां के लिए कोई घोषणा हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। फिलहाल जो केन्द्र या राज्य के मंत्री फिल्म के विरोध करने वालों के समर्थन में बयान जारी कर रहे हैं वो केवल और केवल कागजी बयान हैं। अगर वाकई उनके बयानों में दर्द है तो फिर वो सरकार पर दवाब क्यों नहीं बनाते। सरकार न माने तो अपने पद से इस्तीफा क्यों नहीं देते। यह महज घडि़याली आंसू हैं। खैर, यह कमबख्त राजनीति है ना। सबको परेशान करती है। लड़वाती भी यही है और समझौता भी यही करवाती है, क्योंकि राजनीति में इन सब के अलग-अलग मायने हैं। आगे-आगे देखिए इस सियासत के रंग।
*किसको फिक्र है कि "कबीले"का क्या होगा..!
*सब लड़ते इस पर हैं कि "सरदार" कौन होगा..!!

Thursday, November 16, 2017

लंबी खामोशी का परिणाम है यह

बस यूं ही
संजय लीला भंसाली की अगले माह प्रदर्शित होने वाली फिल्म पदमावती पर जबरदस्त बवाल मचा है। वैसे तो फिल्म शूटिंग के समय से ही चर्चा में रही है। कभी फिल्म यूनिट से मारपीट करने तथा निर्माता को चांटा मारने को लेकर तो कभी फिल्म के लिए कथित रूप से पैसे लेने के आरोपों को लेकर। इन तमाम चर्चाओं व बाधाओं के बीच फिल्म अब बनकर तैयार है। पहले इसका पोस्टर जारी हुआ। फिर ट्रेलर। इसके बाद इसका एक गीत भी आया। इन सब पर मिश्रित प्रतिक्रिया रही। फिलहाल, इस फिल्म पर पर रोक के लिए कोर्ट में लगाई गई याचिका भी निरस्त हो गई है।
खैर, राजस्थान के तमाम पूर्व राजघराने इस फिल्म के विरोध में सामने आ गए हैं। कुछ सामाजिक संगठन तो शुरू से ही इसका विरोध करते आए हैं। इसके अलावा राज्य व केन्द्र के भाजपा नेता भी इस फिल्म पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर चुके हैं। नेता प्रतिपक्ष का भी फिल्म को लेकर बयान आया है। इन सब के बीच फिल्म बनाने वाले संजय लीला भंसाली का वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसमें वह फिल्म को लेकर अपनी सफाई देते दिखाई दे रहे हैं।
बहरहाल, देश में आजादी के बाद से ही फिल्मों में एक जाति विशेष के खिलाफ जो चरित्र-चित्रण होता रहा है, यह उसी की पराकाष्ठा है। हर दूसरी फिल्म का खलनायक कौन और क्यों? इस पर कभी सवाल नहीं उठाए गए। तभी तो फिल्मकारों ने एक जाति विशेष को खलनायक व दुष्ट बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कभी किसी संगठन या पूर्व राजघराने ने इन फिल्मकारों से पूछा कि आपको खलनायक के लिए सिर्फ एक जाति के पात्र ही क्यों मिलते हैं? पदमावती पर प्रतिक्रिया देने वाले नेताओं ने कभी एेसी फिल्मों पर सवाल उठाए, जिनमें जाति विशेष को टारगेट किया गया? तो अब पदमावती में एेसा क्या हो गया? आजादी के बाद से फिल्मों में एक जाति विशेष को गरियाने का सुनियोजित षडयंत्र चलता रहा और कोई बोला तक नहीं, क्यों? आजादी के बाद से देश में संस्कृति से जो खिलवाड़ हुआ। जो सांस्कृतिक प्रदूषण फैला है, उस पर सबने चुप्पी क्यों साध ली? इतिहास से छेड़छाड़ लगातार होती रही है और अब भी हो रही है। हर कोई एेरा गैरा नत्थू खैरा कपोल कल्पित पात्र गढ़कर इतिहास में परिवर्तन करने पर आमादा है। तब यह सामाजिक संगठन खामोश क्यों रहते हैं? सोशल मीडिया पर रोज नए इतिहासकार पैदा हो रहे हैं और वे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश कर अपने हिसाब से इतिहास को परिभाषित कर रहे हैं, उनके खिलाफ तो कोई कुछ नहीं कहता, क्यों?
दरअसल, आजादी के बाद जातिवाद ज्यादा भड़का है तो इसके पीछे राजनीति तो रही है। हमारे सिनेमा ने भी इसको भुनाया है। यह सत्तर साल की खामोशी और चुपचाप सहने का ही परिणाम है कि आज हर कोई इतिहास को अपने हिसाब से परिभाषित करने की हिमाकत कर बैठता है। आजादी से पूर्व दबी कुचली जातियों का पूर्वाग्रह एक जाति विशेष के कल्पना पर आधारित चरित्र चित्रण को देखकर और अधिक प्रबल हुआ। पूर्वाग्रह प्रबल होने में सबको अपने-अपने हित नजर आए। फिल्मकारों को दर्शक मिले तो नेताओं को थोक में वोट बैंक हासिल हुआ। अब भी अगर राजनीतिक दल अपनी-अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं तो यकीन मानिए इसमें भी उनके हित छिपे हैं। इसमें भी सियासत है। भावनाएं जितनी उबाल पर होंगी सियासत को अपना सिक्का जमाने में आसानी होगी। आगे-आगे देखिए होता है क्या?

इक बंजारा गाए-9

राहत की सांस
पुलिस व आबकारी से अब तक परहेज करती आई स्थानीय एसीबी टीम के चेहरे पर इन दिनों कुछ राहत की सांस देखी जा सकती है। इसकी प्रमुख दो वजह हैं। एक यह तो यह है कि सूरतगढ़ में आबकारी अधिकारी पर कार्रवाई करने के साथ ही परहेज का सिलसिला अब टूट गया है। टीम ने सूरतगढ़ में आबकारी निरीक्षक को पकड़ कर यह सिद्ध किया है कि यह काम सिर्फ बीकानेर की टीम ही नहीं वरन वह भी कर सकती है। दूसरी खुशी की वजह थोड़ी अलग है। दरअसल, बीकानेर की एसीबी टीम लगातार श्रीगंगानगर में पुलिस व आबकारी पर कार्रवाई कर रही थी तो स्थानीय टीम की भूमिका को लेकर चर्चा जोरों पर चल पड़ी थी। बीकानेर जिले में भी एक कार्रवाई हुई थी, जिसे चूरू टीम ने अंजाम दिया बताया। ऐसे में चर्चा बीकानेर की टीम की भी होने लगी। साथ में यह संदेश भी चला गया कि बीकानेर की टीम जब श्रीगंगानगर में आकर कार्रवाई कर सकती है तो बीकानेर में चूरू की क्यों नहीं कर सकती। बहरहाल, श्रीगंगानगर की टीम इस दोहरी खुशी में फूले नहीं समा रही है।
वाह जी वाह
कहावत है कि सांप निकलने पर लाठी पीटने से कोई फायदा नहीं होता है, लेकिन हास्यापस्द स्थिति तो तब होती है तब सांप है या नहीं, वह निकल गया या आएगा यह पता होने से पहले ही लाठी पीट दी जाए तो? खैर, श्रीगंगानगर जिला मुख्यालय पर एक वाकया ऐसा ही हुआ है। सरकार के कामों के प्रचार-प्रसार वाले विभाग के मुखिया ने एक प्रेस विज्ञप्ति पर आंख मूंदकर इतना विश्वास किया कि पुराना समाचार ही अखबार के कार्यालयों में प्रेषित कर दिया। यह समाचार किसी पुरस्कार से संबंधित था और इसमें आवेदन करना था, लेकिन इसमें वस्तुस्थिति यह थी कि आवेदन की अंतिम तिथि निकल चुकी फिर भी समाचार बना दिया गया। अधिकारी के मामला जब संज्ञान में आया तो हालत काटो तो खून नहीं वाली हो गई। अधिकारी ने अपनी झेंप यह कहते हुए मिटाने की कोशिश की कि विज्ञप्ति महिला अधिकारियों से संबंधित थी, लिहाजा पुष्टि करना उचित नहीं समझा।
प्रदर्शनों से परहेज
एक राजनीतिक दल के प्रदर्शनों में इन दिनों यकायक कमी सी आई है। भले ही चुनाव में एक साल बचा हो लेकिन अभी तक प्रदर्शनों से परहेज ही किया जा रहा है। वैसे बताया जा रहा है कि इस संगठन के चुनाव होने हैं। अब पुराने पदाधिकारी प्रदर्शनों से इसीलिए बच रहे हैं कि अब उनको तो जिम्मेदारी मिलनी नहीं है, जबकि नया कौन बनेगा यह अभी तय नहीं है, इसलिए प्रदर्शन का काम धीमी गति से चल रहा है। वैसे अंदरखाने की बात यह है कि प्रदर्शनों के लिए सबसे बड़ा संकट आर्थिक है। प्रदर्शनों पर होने वाला खर्चा कौन वहन करे, यही सबसे बड़ा धर्मसंकट है। पुराने वाला दुबारा बनेगा नहीं तथा नये वाला तय नहीं है। वैसे राजनीतिक गलियारों में चर्चा यह भी है कि जिस दिन संगठन के चुनाव हो जाएंगे, उसके बाद प्रदर्शन भी ज्यादा होने लग जाएंगे। अब तो आने वाला समय ही बताएगा कि चर्चा कितनी सही साबित होती है।
टिकट की तैयारी 
टिकट किसको मिलेगी, किसकी कटेगी अभी तक यह तय नहीं है लेकिन चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। संभावित उम्मीदवारों ने भी मेल मिलाप शुरू कर दिया है। खास बात तो यह है कि एक-एक विधानसभा से एक ही दल के कई नाम सामने आ रहे हैं। खास बात यह है कि सभी अपने समर्थकों को यह भी कह रहे हैं कि उनकी टिकट पक्की है। इधर नेताओं के समर्थक चक्करघिन्नी हैं कि वह किसकी बात पर कितना यकीन करें। हालांकि मतदाता रूपी समर्थक जरूरत से ज्यादा समझदार भी हैं। श्रीगंगानगर जिले के एक दो विधानसभा ऐसे हैं जहां उम्मीदवारों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है। अब इस तरह के माहौल में चटखारे लेने वालों की संख्या भी कम नहीं है। विशेषकर दूसरे दल वाले कितने विधायक कह-कह कर भी मजे ले रहे हैं। चुनावी समय नजदीक आने के साथ-साथ यह काम और गति पकड़ेगा और रोचक होगा इतना तो तय ही मानिए।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 09 नवंबर 17 को प्रकाशित

इक बंजारा गाए -8

सोशियल इंजीनियरिंग
चुनाव नजदीक आते ही राजनीतिक दलों के साथ-साथ चुनावी मैदान में कूदने वालों को सोशियल इंजीनियरिंग का सहारा लेना ही पड़ता है। इस बहाने समाज के नेताओं से संपर्क करने या उनको किसी कार्यक्रम में बुलाकर यह दिखाने का प्रयास किया जाता है कि इस नेता का समर्थन तो उसी के साथ ही है। अभी श्रीगंगानगर में एक कार्यक्रम में समाज के बड़े नेता को बुलाने के भी अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं। सबसे बड़ी हैरानी तो यह है कि बुलाने वाले दूसरे समाज के हैं और नेताजी दूसरे के। अब भले ही नेताजी के समाज से चुनाव की तैयारी करने वालों की पेशानी पर बल पड़ें लेकिन नेताजी के दौरे ने समाज की राजनीति में हलचल जरूर शुरू कर दी है। वैसे बताते चलें कि इन नेताजी के समाज का श्रीगंगानगर में अच्छा खासा वोट बैंक है। देखने की बात यह है कि नेताजी का दौरा कितना कारगर होता है तथा कितने वोट दिलाने में सफल होता है। खैर, नेताजी को बुलाने वाले महाशय को टिकट मिलती है या नहीं, फिलहाल तो यह भी दूर की बात है।
चुनावी जुनून
अक्सर चौक चौराहों या नुक्कड़ पर राजनीति की चर्चा सुनने को मिल ही जाएगी। लोग भले ही राजनीतिज्ञों को कितना ही कोसें लेकिन बात जब खुद की आती है तो लड्डू फूटने लगते हैं क्योंकि राजनीति का चस्का ही ऐसा है। समर्थकों की भूमिका भी इसमें बड़ा स्थान रखती है। वे समर्थक ही होते हैं जो सपना दिखाते हैं, उम्मीद जगाते हैं। श्रीगंगानगर में भी एक महाशय ऐसे हैं जिन पर चुनाव लडऩे का जुनून सवार है। वैसे तो वे सतारूढ़ दल से हैं और टिकट मिलेगी या नहीं यह भी तय नहीं है लेकिन तैयारी देखकर लग रहा है कि उन्होंने मानस पूरा बना लिया है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, इन महाशय की सक्रियता बढ़ती जा रही है। छोटे से छोटे कार्यक्रम में इनकी सहभागिता देखी जा सकती है। महाशय का कहना है कि इस बहाने जमीनी स्तर पर सभी से मिलना हो जाता है। फिलहाल समाचार पत्रों में भी महाशय छाए हुए हैं। इनका मीडिया मैनेजमेंट भी गजब का है। बताते चले यह वही महाशय हैं जिन्होंने एक बड़े होटल में पिछले दिनों प्रेस वार्ता कर कैम्पर बांटे थे।
शक्ति प्रदर्शन
त्योहार तो हर साल ही आते हैं और स्नेह मिलन भी कमोबेश हर वर्ष ही होते हैं लेकिन चुनाव के आसपास आने वाले त्योहारों की रंगत की कुछ और नजर आती है। चुनावी साल के चक्कर में स्नेह मिलनों में न केवल भीड़ बढ़ती है बल्कि इस बहाने एकजुटता के साथ शक्ति प्रदर्शन भी किया जाता है। चुनावों के दौरान समाजों का कितना भला होता है यह बात दीगर है लेकिन इस बहाने राजनीतिक दलों या चुनाव लडऩे वालों की नजर तो पड़ ही जाती है। वैसे इन शक्ति प्रदर्शनों के भी अलग-अलग मायने हैं। कोई समाज के सहारे सियासत की सीढ़ी चढऩे के लिए यह सब करता है तो कोई राजनीतिक दलों में अपनी पहुंच बनाता है। एक बात और है समाजों से दूरी बनाकर रखने वाले नेता भी चुनावी मौसम को देखकर नजदीकियां बढ़ाने लगते हैं। समाजों के द़ुख-दर्द भी इनको याद आने लगते हैं। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि नेता लोग समाजों को हर साल ही साथ लेकर चलें तो इस तरह नजदीकियां बढ़ाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
अपनों की खातिर
श्रीगंगानगर की एसीबी टीम बाकी सब पर तो कार्रवाई करती है लेकिन पुलिस व आबकारी के मामले में पता नहीं क्यों इसके हाथ कांप जाते हैं। घमूड़वाली, घड़साना के बाद अब रायसिंहनगर में ऐसी ही कार्रवाई हुई है, जिसे बीकानेर की टीम ने अंजाम दिया है। कार्रवाई न करने के वैसे तो कोई भी कारण हो सकते हैं। लगातार तीन मामले और वे भी आबकारी या पुलिस से संबंधित तो सवाल उठना लाजिमी है। वैसे कार्रवाई न करने के मोटे तौर पर तीन-चार कारण ही गिनाए जाते हैं। या तो शिकायतकर्ताओं के पास श्रीगंगानगर टीम का सपंर्क या पता ठिकाना नहीं है। या श्रीगंगानगर टीम उनकी शिकायतों पर गौर नहीं करती है। या फिर श्रीगंगानगर टीम अपने ही लोगों का मामला समझ कर रियायत करती है। खैर, यह आरोप तब तक चस्पा रहेंगे जब तक एसीबी कोई पुलिस या आबकारी का मामला पकड़ नहीं लेती। आबकारी व पुलिस पर लगातार होती कार्रवाई यह भी साबित करती है कि प्रिंट रेट से ज्यादा कीमत तथा देर रात बिकने के पीछे भी दोनों विभागों की शह का ही कमाल है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 2 नवम्बर 17 के अंक में प्रकाशित

रसोई व चौबारे का वो साक्षात्कार


बस यूं ही
यह बात आज से करीब साढ़े तेरह साल पहले की है। उस वक्त मैंने जो लिखी थी उस खबर की कटिंग तो नहीं है लेकिन यह राजस्थान के तमाम सिटी संस्करणों में खेल पेज पर प्रकाशित हुई थी। वह साल 2004 का था। माह संभवत: अप्रेल या मई का रहा होगा। भारतीय क्रिकेट टीम तबपाकिस्तान में जोरदार प्रदर्शन कर लौटी थी। टीम के प्रदर्शन के साथ एक और खिलाड़ी था जिसके खेल की प्रशंसा कमोबेश सभी जगह थी। छरहरे बदन का बेहद शर्मीला सा वह बांका जवान था आशीष नेहरा।
खैर, उस वक्त मैं अलवर में कार्यरत था। अलवर जिले में तिजारा के पास एक छोटा सा कस्बा है किशनगढ़बास। इस कस्बे में आशीष नेहरा की चचेरी बहन का ससुराल है। नेहरा के जीजाजी का इस कस्बे में स्कूल भी है। स्कूल का वार्षिकोत्सव था, लिहाजा आशीष नेहरा को बतौर अतिथि आमंत्रित किया गया था। किशनगढ़बास संवाददाता ने जब समाचार भेजा तो उसको पढ़कर मैंने मानस बना लिया कि नेहरा का साक्षात्कार करना ही है। मैं अपना प्रस्ताव लेकर संपादक जी के पास गया तो उन्होंने स्वीकृति दे दी। अगले दिन मैं और फोटोग्राफर बाइक पर किशनगढ़बास के लिए रवाना हो गए। सबसे पहले हम स्थानीय संवाददाता के पास पहुंचे और उनको साथ लेकर स्कूल की तरफ चल पड़े। स्कूल से लेकर कस्बे की सीमा तक प्रशंसकों की भीड़ एकत्रित होने शुरू हो गई थी। सब नेहरा को करीब से देखने को लालायित थे। हम एक चक्कर लगाकर नेहरा की बहन के घर आ गए। थोड़ी देर बाद सूचना मिली कि नेहरा आने वाले हैं तो हम फिर कस्बे की सीमा पर पहुंच गए। तब तक भीड़ और बढ़ गई थी। जोरदार स्वागत हुआ था नेहरा का। आलम यह था कि स्वागत करने के बाद प्रशंसक नेहरा के काफिले के साथ हो लिए। जब तक नेहरा घर पहुंचते तब तक तो जबरदस्त मजमा लग चुका था। चूंकि नेहरा के जीजाजी के कस्बे में सभी से संपर्क अच्छे थे, लिहाजा उन्होंने किसी को मना भी नहीं किया। पूरा घर भर गया था प्रशंसकों। कोई हाथ मिलाने को उत्सुक था तो कोई फोटो खिंचवाने को। इतनी भीड़ को काबू करना या समझाना बड़ा मुश्किल काम था। नेहरा जहां भी जाते प्रशंसक उनके पीछे-पीछे। बात करने का कोई मौका या माहौल मिल नहीं पा रहा था। आखिरकार रसोईघर में नेहरा पहुंचे और पीछे-पीछे हम भी घुस गए। रसोईघर को अंदर से बंद कर बात करना शुरू किया तो तय हुआ कि बातचीत ऊपर चौबारे मंे की जाएगी।
रसोई से चुपचाप निकल कर हम चौबारे में पहुंचे। वहां डबल बैड पर हम नेहरा के आजूबाजू बैठ गए। सवाल क्रिकेट से संबंधित किए तो नेहरा ने असमर्थता जताते हुए कहा कि बीसीसीआई से संबंधित मजबूरियां के कारण कुछ नहीं बोल सकते। एेसे में हमारे पास हल्की-फुल्की पारिवारिक बातें तथा पाकिस्तान दौरे की प्रमुख यादें ही अंतिम विकल्प थी। नेहरा के साथ उनके ताऊजी भी आए थे। बड़ी बड़ी मूंछे थी उनकी। कहने लगे छोरे को इस मुकाम तक पहुंचाने में बहुत मेहनत की है, हम लोगों ने। बातचीत में उन्होंने बताया कि उनके पूर्वज झुंझुनूं जिले में पिलानी के आसपास के रहने वाले थे। वहां से पलायन करके हरियाणा आए और वहां से दिल्ली के पास आकर रहने लगे। बहरहाल, नेहरा के संन्यास लेने के बाद से ही मेरे जेहन में किशनगढ़बास का वह वाकया घूम रहा था। नेहरा को वैसे हंसमुख व मिलनसार माना जाता है लेकिन क्रिकेट के मैदान पर उनके चेहरे से गंभीरता झलकती थी। कल जब उन्होंने भारतीय पारी की शुरुआत की और अंतिम ओवर डाला तो माहौल जरूर भावपूर्ण हुआ। 64 नंबर की टी शर्ट पहने यह खब्बू गेंदबाज जब हाथ को ऊपर उठाकर हल्की मुस्कुराहट से अभिवादन स्वीकार रहा था तो चेहरे के पीछे छिपे राज न चाहते हुए भी बयां हो रहे थे। इतना लंबा कैरियर किसी को किसी को ही मिलता है। लगातार ऑपरेशन ने इस खिलाड़ी के नियमित खेल में व्यवधान डाला अन्यथा आंकड़े कुछ और ही नजर आते।

दर्शक बनती पुलिस

टिप्पणी
कानून की पालना करना तथा व्यवस्था बनाए रखना पुलिस की जिम्मेदारी है। अपराधों पर अंकुश तथा जान माल की हिफाजत की सुरक्षा करना भी पुलिस की जिम्मेदारी में शामिल माना गया है। श्रीगंगानगर जिला मुख्यालय पर हाल ही दो घटनाएं ऐसी हुई हैं, जिनको देखकर यह कहा जा सकता है कि पुलिस अपनी जिम्मेदारी निभाने में कहीं न कहीं चूक कर रही है। पहला मामला रामलीला मैदान में दशहरे पर रावण परिवार के दहन का है। वहां उमड़ी भीड़ दहन के वक्त बेकाबू हो गई। गनीमत रही कि कोई हादसा नहीं हुआ। जब तक पुलिस को अपनी जिम्मेदारी का भान होता हालात नियंत्रण से बाहर हो गए। भीड़ पुतलों के पास पहुंच गई। कुर्सियों पर बैठकर कार्यक्रम देखने की हसरत लेकर जाने वालों को निराशा हाथ लगी। दहन के बाद तो स्थिति एक तरह से नियंत्रण से बाहर ही हो गई। धक्की-मुक्की और छेडख़ानी तक घटनाएं हुईं। अच्छा कार्यक्रम देखने की उम्मीद में गए लोग व्यवस्था से इतने परेशान हुए कि दुबारा आने की तौबा तक कर ली।
दूसरा मामला दो दिन पहले का है। आदर्श पार्क में जागो कार्यक्रम के चलते काफी लोग जमा हुए। इनमें महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा थी। व्यवस्था बनाने के लिए यहां महिला पुलिसकर्मी भी बड़ी संख्या में तैनात की गई थी, लेकिन यहां भी अधिकतर महिला व पुलिसकर्मी बजाय व्यवस्था बनाने के कार्यक्रम देखेन में मशगूल थे। उनको यह खबर ही नहीं थी कि कार्यक्रम में आने वालों को किस तरह के अनुभव व असुविधा का सामना करना पड़ रहा है। धक्का-मुक्की व अव्यवस्थाएं भी लगातार इसीलिए बढ़ती गई क्योंकि जिनके जिम्मे व्यवस्था थी वो भीड़ का हिस्स हो गए। कहने का आशय यही है कि ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मी खुद की जिम्मेदारी भूल दर्शक बन गए। पुलिस का दर्शक बनना किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है। पुलिस का जिम्मेदारी भूल दर्शक बनने की यह प्रवृत्ति कतई उचित नहीं है। क्योंकि आज की छिटपुट घटनाएं कालांतर में किसी बड़े हादसे या विवाद की वजह बन सकती हैं। सीमावर्ती जिला होने के कारण श्रीगंगानगर वैसे भी संवेदनशील माना जाता है। इसलिए पुलिस जिस काम के लिए बनी है, उसी को शिद्दत व ईमानदारी के साथ निभाए। वह भीड़ का हिस्सा या दर्शक बनने के लिए तो कतई नहीं है। उसकी जिम्मेदारी बड़ी है। वह अपनी जिम्मेदारी का एहसास करें तथा उसे निभाए। वैसे भी भीड़ का हिस्सा व दर्शक बनने के लिए लोगों की कमी नहीं है।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 31 अक्टूबर के अंक में प्रकाशि

मरता क्या न करता

टिप्पणी
मौसम में आए यकायक बदलाव के चलते श्रीगंगानगर में मौसमी बीमारियों के मरीज तो अचानक बढ़े ही हैं, डेंगू मरीजों के बढ़ते आंकड़ों ने आमजन को चिंता में डाल दिया है। हालत यह है कि श्रीगंगानगर में बीते दो दिन के भीतर 22 मरीजों में डेंगू की पहचान हुई है। यह आंकड़ा और भी बढ़ सकता था लेकिन डेंगू जांचने की किट समाप्त हो गई। करीब 60 मरीजों की जांच किट के अभाव में अटकी हुई है। बुधवार को ही जिला कलक्टर ने स्वास्थ सेवाओं में कमी पर विभाग के अधिकारियों को कड़ी नसीहत दी। इधर, सरकारी स्तर पर समय पर जांच न होने या जांच के अभाव के कारण मरीज व उनके परिजन निजी अस्पतालों या लैब में जाने को मजबूर हैं। इनमें ज्यादातर तो ऐसे भी हैं, जो इस आशंका के चलते जांच करवा रहे हैं कि कहीं उनके डेंगू तो नहीं? डेंगू के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए इस तरह की आशंका गलत भी नहीं है। इस तरह की आशंका का समाधान जांच से ही संभव है। मरीजों को झूठा डर दिखाकर उनको भयभीत कर जांच के लिए मजबूर करने की शिकायतें भी जिला प्रशासन के पास पहुंची हैं। जाहिर सी बात है कि आशंकाओं से घिरे मरीज को सरकारी स्तर पर कोई सुविधा या जांच नहीं मिलेगी तो वह निजी में नहीं जाएगा तो क्या करेगा। 
खैर, स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी बजाय ज्यादा मशक्कत करने के इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि कब मौसम बदले और कब डेंगू का प्रकोप कम हो। उनकी दलील है दीपावली के बाद डेंगू का प्रकोप कम हो जाता है। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की दलील सही है या गलत या फिर हास्यास्पद, एक बार इसको भूल भी जाएं लेकिन बड़ा सवाल यह है कि वे किट मंगवाने के प्रति गंभीर क्यों नहीं हैं। वे इतनी ही किट क्यों मंगवा रहे हैं, जो आते ही खत्म हो रही हैं। जरूरत के हिसाब से यह व्यवस्था पहले से क्यों नहीं कर ली जाती! बड़ी बात तो यह भी है कि यह जांच सरकारी स्तर पर निशुल्क है लेकिन इसी जांच के निजी चिकित्सालय या लैब में एक हजार से बारह सौ रुपए तक लगते हैं। अधिकारियों के छह सौ से अधिक राशि नहीं लेने के आदेश के बावजूद निजी लैब और चिकित्सालयों की मनमानी चल रही है। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों के निजी अस्पतालों व लैब संचालकों से मिलीभगत के आरोप भी लग रहे हैं। जिला प्रशासन को इस मामले में फटकार या नसीहतों से आगे बढ़कर दखल देनी चाहिए। साथ ही न केवल तत्काल किट की व्यवस्था करवानी चाहिए बल्कि मिलीभगत के आरोप की जांच कर सत्यता भी पता करवानी चाहिए। किट की किल्लत कृत्रिम है या वास्तव में है, इसकी पड़ताल भी होनी चाहिए। किट के अभाव में कोई निजी अस्पताल की तरफ जा रहा है तो यह कहीं न कहीं विभाग की उदासीनता का ही परिणाम है। बहरहाल, स्वास्थ्य विभाग सुविधाओं में विस्तार करे। जिस चीज की कमी है, उसका समय रहते प्रबंध करे ताकि उपचार के अभाव में न तो किसी मरीज की मौत हो और न ही कोई इलाज के लिए इधर-उधर भटके।
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 राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 27 अक्टूबर 17 के अंक में प्रकाशित

इक बंजारा गाए-7


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🔺दिखावे का बहिष्कार 
गुड़ खाए गुलगुलों से परहेज करना। मतलब दिखावा करना। यह बात चाइनीज सामान का बहिष्कार करने वालों के लिए उपयोग की जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। श्रीगंगानगर जिला मुख्यालय सहित समूचे जिले में चाइनीज सामान का बहिष्कार किया। समाचार पत्रों में बड़े समाचार व फोटो भी प्रकाशित हुए लेकिन दिवाली के दिन चाइनीज सामान के बहिष्कार का कुछ खास असर नजर नहीं आया। अधिकतर घरों पर दीपों की जगह बिजली की चाइनीज लडिय़ां जगमगा रही थीं। आतिशबाजी व पटाखे बेचने वालों के यहां भी चाइनीज सामान खूब बिका। खैर, इस मुहिम से किसको कितना व कैसा लाभ मिला, यह तो शहर जानता ही है। वैसे जिस दिन यह मुहिम शुरू हुई और चाइनीज सामान को जलाकर अभियान का शुभारंभ किया गया था, उस दिन कई जनों के हाथ में मोबाइल थे और अधिकतर सेल्फी खींचने में तल्लीन थे। कहने वालों ने तो तब भी कह दिया था कि मोबाइल भी तो चाइनीज ही हैं। समझने वाले तो बहिष्कार की मुहिम की गंभीरता को उसी दिन समझ गए थे।
🔺घर का पता
चुनावी सीजन नजदीक हो और ऐसे में कोई त्योहार आ जाए या नए साल का आगाज हो तो फिर पत्रकारों के घर के पते तलाशने का काम जोर पकड़ लेता है। दफ्तर की बजाय घर पर मिलने का कारण तो चुनाव चाशनी पर जीभ लपलपाने वाले ही अच्छी तरह से बता सकते हैं लेकिन घर पर मिलने का कुछ तो राज जरूर है। मोटे रूप से एक कारण तो यही हो सकता है कि घर पर देने पर राज राज ही रहता है जबकि कार्यालय में देने पर राजफाश हो सकता है। दूसरा कारण यह भी हो सकता है। आफिस में तो सबको समान रखने की मजबूरी भी आड़े आ सकती है लेकिन घर पर योग्यता व अनुभव के आधार पर श्रेणी भी तो बताई जा सकती है। सबसे बड़ी व आखिरी वजह यह भी हो सकती है। इसमें देने व लेने वाले दोनों का नाम कोई तीसरा नहीं जानता। यह राज रहता है। यानी सांप भी मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती । पत्रकार माफ करें लेकिन राज की बात यही है कि श्रीगंगानगर में घर का पता पूछने व घर पर मिलने का प्रचलन कुछ ज्यादा ही है।
🔺राम-रमी के बहाने
होली-दिवाली पर राम-रमी की परंपरा वर्षों पुरानी है। इस दिन घर पर आने वालों की मनुहार की जाती है। मनुहार के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। मनुहार में प्रयुक्त सामग्री भी अलग-अलग हो सकती है लेकिन इसका प्रमुख कारण घर पर आने वाले का स्वागत ही होता है। कुछ जगह नीचे तबके के लोगों को कपड़े व नकद राशि देने का रिवाज भी है। वैसे गांवों में सभी एक दूसरे के घर जाते हैं लेकिन शहरों में मामला कुछ अलग है। इतनी बड़े शहर में घर-घर तो वैसे भी घूमा नहीं जा सकता है तो सभी अपने परिचित व रिश्तेदार के यहां जाते हैं। हां, राजनीतिज्ञों के घर पर राम रमी के बहाने भीड़ जुटती है। चुनावी तैयारी में जुटे एक महानुभाव के घर पहुंचे कुछ छायाकार भी रामरमी के बहाने के नकदी पाने में सफल हो गए। हां, यह बात अलग है कि नेताजी ने हैसियत व योग्यता देखकर छायाकारों में राशि कम-ज्यादा जरूर की। गनीमत रही कि यह राज खुला नहीं और राज ही रहा। खुल जाता तो सबका फिर बराबर मान रखना जो पड़ता।
🔺सूची छोटी पड़ गई
शहर में इन दिनों एक नेताजी बेहद सक्रिय है। टिकट मिलेगी या नहीं फिलहाल यह तय नहीं है लेकिन नेताजी चर्चा में बने रहने का कोई मौका नहीं छोडऩा चाहते। कोई भी मामला हो नेताजी की दखल कमोबेश हर जगह मिलेगी। अब शहर की साफ-सफाई को ले लीजिए। नेताजी को इस मामले में भी वोट बैंक नजर आया। काम का प्रचार-प्रसार ठीक से हो जाए, इसके लिए प्रेस कान्फ्रेस का आयोजन तक कर डाला। एक छोटी सी सूचना साझा करने के लिए बाकायदा शहर के बड़े होटल का चुनाव किया गया। शहर से थोड़ा बाहर स्थित इस होटल में पहुंचने वालों ने दूरी को दरकिनार कर दिया। बताते हैं कि नेताजी ने बतौर गिफ्ट पानी के कैम्पर की व्यवस्था कर रखी थी लेकिन कान्फ्रेस में उमड़े लोगों के कारण सूची छोटी पड़ गई। करीब सात दर्जन को तो मौके पर ही गिफ्ट दिए गए। वंचित रहने वालों के लिए और ऑर्डर करना पड़ा।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 26 अक्टूबर 17 के अंक में प्रकाशित 

मेरे हमदम, मेरे दोस्त


यह रिश्ता स्नेह का है। प्यार का है। यह रिश्ता विश्वास का है। इस रिश्ते की बुनियाद बेहद नाजुक डोर पर टिकी होती है। इस नाजुक डोर की न केवल हिफाजत करना बल्कि इसको मजबूत करने की जिम्मेदारी किसी चुनौती से कम नहीं होती। यह रिश्ता सात जन्म का होता है। यह रिश्ता जन्म जन्मांतर का है। जी हां यह रिश्ता पति-पत्नी का है। इस रिश्ते में नोकझोंक भी हैं। रुठना-मनाना भी है। हार व जीत भी है। इस रिश्ते में शिकवा-शिकायतें हैं तो इस रिश्ते में कभी खुशी कभी गम भी आते हैं। यह रिश्ता सदा सरपट भी नहीं दौड़ता, क्योंकि उसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इस रिश्ते में कभी जिद कर ली जाती है तो कभी समझौता भी करना पड़ता है। यह रिश्ता बिना किसी व्यवधान के चले तो इससे बड़ा कोई सुकून नहीं होता है लेकिन इसमें कहीं कोई व्यवधान आया तो इससे ज्यादा तकलीफदेह भी कोई नहीं होता। तभी तो यह रिश्ता अजीब है। अनूठा है और रोचक भी। यह रिश्ता गुदगुदाता है तो कभी आंखें नम भी करता है। प्यार भरे इस रिश्ते में गलतफहमियां घुसपैठ कर जाएं तो यह तकलीफ भी देता है। अविश्वास नामक वायरस इस रिश्ते का सबसे बड़ा दुश्मन है। गलतफहमी व अविश्वास से जो रिश्ता अछूता है तो वह संसार की सभी बाधाएं पार कर सकता है।
अद्र्धांगिनी निर्मल का आज जन्मदिन है। उसने भी जीवन के चार दशक पूरे कर लिए। जीवन का यह पड़ाव सबसे महत्पपूर्ण होता है। चार दशक का आनंद लेने के बाद एक नए पड़ाव में प्रवेश करना भी बड़ा चुनौती वाला होता है। बड़े होते बच्चों की परवरिश व उनको संस्कार देने का वक्त। 
खैर, बीते साढ़े तेरह साल में ज्यादातर समय मेरा निर्मल के साथ ही बीता है। मैं आज इस मुकाम पर इसीलिए हूं कि घर के तमाम कामों को निर्मल बखूबी संभाल लेती है। वृद्ध माता पिता को साथ रखने का फैसला मेरा था लेकिन मेरे इस फैसले से निर्मल के चेहरे पर कभी शिकन नहीं आई। हकीकत यह है कि मेरे काम से भी ज्यादा कठिन, महत्वपूर्ण काम व जिम्मेदारी निर्मल की है। वह बच्चों से भी मासूम है और बेहद संवदेनशील भी। थोड़ा सा प्रोत्साहन उसको काम करने को प्रेरित करता है। कई बार कार्यालयीन दवाब या तनाव की झलक हमारी दैनिक बातचीत में आ जाती है तो वह किसी समझदार की तरह मुझे गाइड करती है। संबल प्रदान करती है। हौसला देती है। वह कभी दोस्त की भूमिका में होती है तो कभी अभिभावक बन जाती है। कभी वह टीचर की तरह पेश आकर प्यार डांट भी देती है। इतना होने के बावजूद कई बार नोकझोंक मर्यादा लांघ जाती है लेकिन हम दोनों में से कोई एक पहल कर लेता है। हां थोड़ी देर के लिए दोनों का अहम जरूर जागता है, टकराता भी है लेकिन फिर यह पछतावे पर ही जाकर खत्म होता है। पछतावा भी ऐसा कि फिर दोनों ही आंसू बहाते हैं। 
सचमुच निर्मल बेहद समझदार, संस्कारित, सुशिक्षित, सुशील, सहज, सादगी पसंद, हंसोड़, मिलनसार व व्यवहार कुशल महिला है। वह समर्पण भाव से सहयोग करने को तत्पर रहती है। पाक कला में उसका कोई जवाब नहीं है। सच में कई बार खाना खाते खाते पेट भर जाता है लेकिन मन नहीं भरता। उसको भी खाना बनाने व नित नए प्रयोग करने में बेहद खुशी मिलती है। और हां मेरे को 50 से 75 किलो तक ले जाने में उसके लजीज खाने का ही योगदान है। 
मौजूदा दौर की चकाचौंध से निर्मल थोड़ी अलग जरूर है। जीवनसंगिनी के जन्मदिन पर परमपिता परमेश्वर से यही कामना करता हूं। वह स्वस्थ रहे। विवेकशील रहे। ऊर्जा व उमंग से परिपूर्ण रहे। उसके जीवन में हमेशा खुशियों के रंग यूं ही कायम रहें। हमारे दाम्पत्य जीवन की गाड़ी बिना हिचकोले खाए चलती रहे, दौड़ती रहे। वाकई निर्मल तुम ग्रेट हो। तुम्हारा काम मेरे काम से बड़ा है। सच में काफी बडा..। हैप्पी बर्थ डे टू यू....निर्मल..हंसती रहो खिलखिलाती रहो, खुशियों की रंग बिखराती रहो.

तालमेल के खेल से घालमेल !


बस यूं ही
सांच को आंच नहीं। यह कहावत जन्म से सुनते आ रहे हैं, लेकिन राज्य की भाजपा सरकार को कहीं न कहीं यह लगने लगा है कि सांच को आंच आ रही है। तभी तो एक अध्यादेश लाया जा रहा है। प्रदेश के गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया भी कह रहे हैं कि अध्यादेश का मतलब ईमानदार लोकसेवकांे की छवि को बदनाम होने से बचाना है। यह दलील अकेले कटारिया की ही नहीं अपितु सरकार के सभी मंत्रियों की है। सभी का सुर भी कमोबेश एक जैसा है। इसे यस बॉस (यस मैम) वाली संस्कृति कहें या पार्टी प्रोटोकॉल लेकिन इतना तय मानिए भाजपा के विधायक वो नहीं कह पा रहे हैं, जो कहना चाहिए। वो अपने विवेक का प्रयोग ही नहीं पा रहे हैं। इस तरह के हालात यह साबित करते हैं कि पार्टी के अंदर का लोकतंत्र कितना खोखला होकर सिर्फ और सिर्फ एक जगह केन्द्रित हो गया है। खैर, मौजूदा राज्य सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार किस कदर चरम पर जा पहुंचा है इसका आलम एक-एक दिन में पांच-पांच छह-छह घूसखोर रंगे हाथों पकडऩे जाने से लगाया जा सकता है। घूस लेते धरे गए लोकसेवक थे और विभिन्न विभागों में सेवा दे रहे थे। आंकडे निकलेंगे तो यकीनन आंखें फटी की फटी रह जाएंगी। मौजूदा सरकार के कार्यकाल में शायद ही कोई एेसा दिन बीता होगा जिस दिन घूसखोरों से संबंधित समाचारों से अखबार न रंगे हो। यह भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है? कहीं इस अध्यादेश के बहाने इस तरह के घूसखोरों को अभयदान की तैयारी तो नहीं? सरकार बताए, आंकड़े उपलब्ध कराए कि कितने ईमानदार लोकसेवकों की छवि को धूमिल किया गया? मेरी नजर में यह अध्यादेश ईमानदारों की छवि बचाने की बजाय बेईमानों को संरक्षण देने जैसा है। सबसे पहले सरकार को अध्यादेश लागू करने की जिद छोड़कर यह बताना चाहिए कि यह अध्यादेश किसकी सलाह पर बना? क्यों बना? क्यों लाया जा रहा है? इसको लाने का असली अंकगणित क्या है? सरकार इस अध्यादेश को लाने के लिए इतनी लालायित क्यों हैं? लोकसेवकों की छवि का ख्याल आजादी के इतने समय बाद किसी भी सरकार को न आना और अचानक मौजूदा राज्य सरकार को आ जाना भी अपने आप में बड़ा सवाल है। क्या इस मामले में केन्द्र को इस्तक्षेप नहीं करना चाहिए? अगर केन्द्र का हस्तक्षेप नहंी है तो यह भी तय मानिए कि इस मामले में कहीं न कहीं केन्द्र का भी समर्थन है। भले ही पर्दे के पीछे हो। नहीं तो किसी की क्या मजाल कि राज्य सरकार, केन्द्र को अंधेरे में रखकर यह अध्यादेश ले आए। वह भी इतने विरोध के बावजूद। इस मामले में केन्द्र राज्य के बीच जरूर कोई तालमेल है। भला बिना तालमेल या खेल के कोई घालमेल हुआ है? क्यों बात जमी के नहीं?

इक बंजारा गाए-6


मनमर्जी का खेल
राजस्थान में एक कहावत का उपयोग अक्सर किया जाता है। कहावत है पोपाबाई का राज। इसका आशय यही है कि जहां व्यवस्थाएं बेपटरी हों। कोई कहने या सुनने वाला नहीं हो। जहां सब अपनी मनमर्जी पर उतारू हों आदि आदि। अब दीपावली पर शहर में चौक चौराहों पर बधाई संदेश टांगने का शगल है। शहर के कई महानुभावों में इस तरह सरेआम बधाई टांगने की होड़ मची है। इस होड़ में उन्होंने शहर के प्रमुख चौक-चौराहों के मूल स्वरूप को बिगाड़ कर रख दिया है। पार्क बदरंग हो गए हैं। मनमर्जी का आलम यह है कि एक बार जो बधाई संदेश टंगा, वह अगले बधाई संदेश तक टंगा ही रहता है। पार्कों के सौन्दर्यीकरण के दावे एवं प्रयास इस तरह के बधाई संदेशों के आगे बौने नजर आते हैं। खास बात यह है कि कानून को ठेंगा दिखाने वाले इन महानुभावों पर कभी कानून का डंडा भी नहीं चलता। मनमर्जी के इस खेल से आम जन जरूर त्रस्त है।
गहरा धर्मसंकट
कहते हैं कि जब आदमी धर्मसंकट में घिर जाता है तो उसके सोचने व समझने की शक्ति जवाब दे जाती है। वह एक बार तो यह तय नहीं कर पाता कि आखिर उसको करना क्या चाहिए। खाकी के अधिकारी भी इन दिनों धर्मसंकट से ही गुजर रहे हैं। एक तरफ तो सरकार का दबाव है तो दूसरी तरफ वेतन कटौती के विरोध में आंदोलन करने वाले पुलिसकर्मी। वे किसकी सुनें और किसको नजरअंदाज करें। मैस के बहिष्कार तक तो कहीं कोई दिक्कत नहीं आई क्योंकि पुलिसकर्मी काली पट्टी बांध कर ड्यूटी करते रहे और खाना भी बाहर का खाते रहे। दिक्कत तो तब आ गई जब पुलिसकर्मियों ने अवकाश पर जाने की घोषणा कर दी। एेसे में नीचे से लेकर ऊपर तक हड़कंप मचना लाजिमी था। बेहद अनुशासित व कानून की पालना करवाने वाले विभाग में इस तरह का मामला वाकई गंभीर है लेकिन जिस तरह के तेवर हैं, उससे बात आश्वासनों से या समझाइश से बनेगी कम। इसका स्थायी समाधान ही इसका हल है।
सियासी फेर 
राजनीति में कब दिन फिर जाएं कहना मुश्किल है। शीर्ष नेतृत्व जब अपनी टीम का गठन करता है तो उसकी पहली प्राथमिकता उसकी गुडबुक वाले लोग ही ज्यादा होते हैं। इस तरह न तो सभी को मौका मिल पाता है और न ही सभी संतुष्ट होते हैं। अब एक राजनीतिक दल की प्रदेश कार्यकारिणी में जिले के दर्जनभर लोगों को शामिल किया गया है। जाहिर सी बात है दावेदारों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी। अब जिनको कार्यकारिणी में मौका नहीं मिला वे अपने समर्थकों को किसी न किसी तरह से समझा रहे हैं। दरअसल बात यह है कि कार्यकारिणी में मौके को वंचित लोग आगामी चुनावों से जोड़ कर देख रहे हैं। इसी कारण उनके समर्थकों को पीड़ा है। वैसे समर्थकों की पीड़ा को देखकर दुखी तो वंचित भी हैं लेकिन करें भी तो क्या। मामला ही एेसा है कि सिवाय मन मसोसने के और कोई चारा भी नहीं है उनके पास।
सलाह देने वालों ने मांगी सलाह
जीएसटी को लागू हुए काफी वक्त हो गया। इसको लेकर भी कितने ही सेमिनार हो चुके। नियमों की भी काफी जानकारी दी जा चुकी। इतना ही नहीं इसको गुड एंड सिम्पल भी प्रचारित किया गया। बावजूद इसके यह अभी तक जंजाल ही बनी हुई है। जीएसटी लागू होने के सौ दिन बाद भी अभी तक कई मामलों में स्थिति स्पष्ट नहीं है। हालत यह है कि सलाह देने वाले खुद सलाह मांग रहे हैं। मार्गदर्शन के लिए वे शीर्ष अधिकारियों के पास भी जा रहे हैं। हालत तो तब और भी हास्यास्पद हो गई जब सलाह देने वालों ने सीनियर अधिकारी से दिवाली मनाएं या नहीं, यह तक पूछ लिया। कर सलाहकारों ने एक-एक कर एक नहीं अनेक सवाल किए। बताया कि वे रिटर्न भरने वालों को कुछ बताने की स्थिति में ही नहीं हैं। सीनियर अधिकारी से जवाब में सिवाय आश्वासन के कुछ नहीं मिला। सीनियर ने कहा कि वे तो समस्याएं और सुझाव को आगे तक पहुंचा सकते हैं।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 19 अक्टूबर 17 के अंक में प्रकाशित

मिलीभगत का खेल

टिप्पणी 
इससे बड़ी पोलपट्टी क्या होगी कि सरेआम गुणवत्ताहीन टाइल्स लगा दी जाए। वह भी कोई तीसरी ही एजेंसी, जिसका ठेका ही नहीं है। यह तो गनीमत रही कि व्यापारियों ने हंगामा कर दिया, वरना यह गुणवत्ताहीन टाइल्स लगाकर भुगतान उठा लिया जाता। विरोध का परिणाम यह रहा कि न केवल निर्माण कार्य रोक दिया गया बल्कि टाइल्स के तीन नमूने लेकर सावर्जनिक निर्माण की लैब से जांच भी करवाई गई। मामला श्रीगंगानगर के बीरबल चौक से टी प्वाइंट तक लगाई इंटरलोकिंग से जुड़ा है और मंगलवार को अनियमितता का खुला खेल सामने आया।
हालांकि, नगर परिषद आयुक्त ने दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बात कही है। विभाग की किसी प्रकार की कोई अनियमितता पकड़ में आने पर इस तरह के बयान अक्सर सामने आते हैं। जांच में क्या निकला, कार्रवाई किस पर हुई तथा कब हुई? यह बातें शायद ही कभी सामने आती हैं या बताई जाती हैं। बड़ी बात तो यह है कि जो गड़बड़ पकड़ी गई है, उसी ठेकेदार को 15 दिन पहले भी टाइल्स लगाने को लेकर विवाद हुआ था। अगर जांच व कार्रवाई होती तो शायद वह इस तरह की हिमाकत नहीं करता। दरअसल, इस तरह के काम बिना मिलीभगत या शह के संभव नहीं हो सकते। भला यह कैसे संभव है कि ठेकेदार बिना किसी डर सरेआम इस तरह का काम कर जाए। जरूर उसको ऊपर से किसका संरक्षण मिला है। यकीनन इसमें परिषद के किसी न किसी अधिकारी-कर्मचारी का संलिप्तता है। इसलिए इस मामले की गंभीरता एवं ईमानदारी के साथ जांच होनी चाहिए ताकि शह व मिलीभगत का खेल खेलने वालों के गिरेबान तक पहुंचा जा सके। उनको दंडित किया जा सके।
और इधर व्यापारियों की हिम्मत की भी दाद देनी होगी। वे अगर विरोध न करते तो यही गुणवत्ताहीन टाइल्स लगा दी जाती। दरअसल, व्यापारियों की तरह आमजन भी अपने आसपास होने वाले विकास कार्यों पर पैनी नजर रखनी शुरू कर दी तो फिर किसी ठेकेदार की मजाल नहीं कि वह उनकी आंखों में धूल झोंक दे। भले ही ऊपर किसी से भी सांठगांठ रखे लेकिन जनता जनार्दन के सामने उसकी दाल नहीं गलेगी। आमजन को इसलिए भी जागरूक होना चाहिए कि उनके आसपास जो काम हो रहा है, वह उनके ही काम आना है तो क्यों न वह काम गुणवत्ता से परिपूर्ण हो। इसलिए जिस तरह हम घर के कामों में निगरानी रखते हैं, वैसे सार्वजनिक विकास के कामों पर रखनी शुरू कर दी तो तय मानिए आधा भ्रष्टाचार तो वैसे ही खत्म हो जाएगा। क्योंकि, जनता की चुप्पी व उदासीनता भी भ्रष्टाचार को पनपाने की एक बड़ी वजह है।

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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण के 19 अक्टूबर 17 के अंक में प्रकाशित 

पटाखों से ज्यादा प्रतिक्रियाओं का शोर-5


बस यूं ही
इस तरह के उदाहरण बहुत हैं, जो कथनी और करनी के भेद को उजागर करते हैं। भेड़चाल का हिस्सा बनकर विवेक का इस्तेमाल किए बिना सिर्फ हां में हां मिलाना अपनी शान समझने वाले क्या यह बताएंगे कि पटाखे बजाकर किसी का चैन छीन लेना धर्म है? पटाखे फोडऩे की प्रतिस्पर्धा करना ही धर्म है? देर रात तक पटाखे फोड़कर किसी की नींद में खलल डालना ही धर्म है? अपने रुतबे के प्रदर्शन के लिए पर्यावरण को दूषित कर देना ही धर्म है? पटाखों के शोर से किसी दिल के रोगी की धड़कनें बढ़ा देना ही धर्म है? ऊंची व कर्कश आवाज वाले पटाखे चलाना ही धर्म है? अगर यह सब करना धर्म हैं तो फिर बेखौफ होकर पटाखे फोडि़ए। क्योंकि कोई आपको रोकने नहीं आएगा। जी भर कर फोडि़ए, आप की जेब जितनी गवाही दे उतने फोडिए। जमीन पर नहीं घर की सबसे ऊंची छत्त पर जाकर फोडि़ए। क्योंकि त्योहार तो एेसे ही मनाया जाता है। है ना? वैसे भी इस देश में सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर रोक है लेकिन क्या धूम्रपान रुका? देश के कई राज्यों में शराब प्रतिबंधित है, लेकिन वहां चोरी छिपे शराब बिकने का सिलसिला थमा? कई प्रदेशों में शराब बिकने के लिए बाकायदा समय निर्धारित है, क्या कभी समय की पालना होती है? शराब-गुटखे-सिगरेट आदि सब के पैकेट या रैपर पर चेतावनी लिखी होती है क्या इनका सेवन करने वालों ने इसे गंभीरता से लिया ? तो यह कैसे संभव है कि पटाखों की बिक्री नहीं होगी? पटाखों पर कानून की डंडे से कड़ाई भले ही हो जाए लेकिन बिक्री के चोर रास्ते कभी बंद नहीं होंगे। दोस्तो, यह विषय सोचने, निर्णय लेने तथा आत्मसात करने का है। त्योहार का जश्न मनाइए लेकिन कुछ इस तरीके से कि किसी को भी कोई तकलीफ न हो। क्यों ना वृद्धाश्रम में किसी वृद्ध के आंसू पौंछे जाएं। क्यों ना किसी भूखे को भरपेट भोजन कराया जाए। क्यों ना अनाथ व यतीमों के बीच जाकर उनको अपनत्व का एहसास कराया जाए। क्यों ना किसी नंगे तन को कपड़े उपलब्ध करवाए जाएं। क्यों ना दिवाली पर पर्यावरण के नाम पर पौधे ही लगा दिए जाएं। और हां रेडिमेड रोशनी की लड़ियों से रोशनी की बजाय देसी घी का दीपक जरूर जलाएं लेकिन वह भी दिखावे व शान वाला नहीं, बल्कि प्रेम वाला हो। राग-द्वेष-ईष्र्या को दूर करने वाला। सद्भाव को बढ़ाने वाला हो। वैसे यह सब काम पटाखे फोडऩे से ज्यादा आसान हैं और अनुकरणीय भी। यह काम करने वाले बदले में दुआएं ही पाएंगे। तो आइए इस दिवाली पर कुछ इस तरह का काम करके नजीर पेश करें। सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
इति

सिर्फ अपना चेहरा चमकाने की चिंता

टिप्पणी,
नगर परिषद के सभापित व नगर विकास न्यास के चेयरमैन के बीच इन दिनों जबरदस्त प्रतिस्पर्धा चल रही है। यह प्रतिस्पर्धा है, खुद को इक्कीस साबित करने की। मौका दीपोत्सव का है, लिहाजा कोई पीछे नहीं रहना चाहता। दोनों के बीच बधाई देने की होड़ लगी है। शहर के प्रमुख चौक-चौराहे बधाई संदेश लिखे बड़े-बड़े होर्डिंग्स से बदरंग हो चुके हैं। अपना चेहरा चमकाने की इस होड़ में कई त्योहारों-पर्वों तक की बधाई एक साथ ही दे दी गई है। दोनों के बीच प्रचार प्रसार की लड़ाई का आलम यह है कि क्षेत्र चाहे यूआईटी का हो या फिर नगर परिषद का, दोनों ही मुखियाओं के होर्डिंग्स टंगे नजर आते हैं। मतलब खुद के प्रचार में किसी तरह का क्षेत्राधिकार नहीं है। और न ही क्षेत्राधिकार को लेकर कोई नियम आड़े आता है। 
हां बात रोडलाइट व टूटी सड़कों की हो तो दोनों मुखिया मामला क्षेत्राधिकार का बताते देर नहीं लगाते। भले ही दोनों मुखिया क्षेत्राधिकार की बात मानें या न मानें लेकिन इनकी कार्यप्रणाली से कभी-कभी यह जाहिर जरूर होता है कि यूआईटी व परिषद के कर्मचारी-अधिकारी इनके कहने में नहीं हैं या उनके निर्देशों को गंभीरता से नहीं लेते। वे वही करते हैं जो उनको करना होता। होर्डिंग्स टांगना या टंगवाना जरूर दोनों मुखियाओं केबस की बात है और इसमें वे सफल भी हैं। तभी तो गाहे-बगाहे या अवसर विशेष पर इनको टांग दिया जाता है। इस काम में जरा सी भी देरी नहीं होती है लेकिन बात जब काम की आती है। जनहित से जुड़े मसलों की आती है तो पता नहीं क्यों इन दोनों के पास कोई ठोस जवाब नहीं होता।
दीपोत्सव पर इनको खुद के चेहरे चमकाने की तो चिंता रही, लेकिन शहर के प्रमुख रास्ते व गलियां अंधेरे में डूबे हुए नजर नहीं आते हैं। श्रीगंगानगर का अधिकतर हिस्सा अंधेरे में डूबा रहता है। सीवेरज के कारण आधे शहर के रास्ते वैसे ही खुदे हुए हैं। सीवरेज लाइन के कारण तोड़ी गई सड़कों पर दिवाली पर नई सड़कें बनाने की बात भी अब तो आई-गई हो गई लगती है। अधिकतर रास्तों में अंधेरा पसरा है और रास्ते खुदे पड़े हैं। कितना बेहतर होता दोनों मुखिया अपने चेहरों की चिंता छोड़कर, प्रचार-प्रसार की भूख से ऊपर उठकर, होर्डिंग्स वार से बचते हुए गुटबाजी की राजनीति का चश्मा उतार कर समूचे शहर का भ्रमण करते। ऐसा करते तो उनको वास्तविकता का भी पता लगता। जनता का प्रतिनिधि या नुमाइंदा होने की सार्थकता भी तभी है, जब जनता के दुख तकलीफ को महसूस किया जाए तथा उनको दूर किया जाए। अभी भी दीपोत्सव में तीन चार दिन का समय शेष बचा है। दोनों मुखिया संबंधित विभागों के जिम्मेदार अधिकारियों-कर्मचारियों को पाबंद करें ताकि रोशनी के त्योहार पर शहर की किसी गली में अंधेरा न हो और आवागमन सुचारू हो।
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राजस्थान पत्रिका श्रीगंगानगर संस्करण के 16 अक्टूबर 17 के अंक में प्रकाशित 

पटाखों से ज्यादा प्रतिक्रियाओं का शोर-4


बस यूं ही
खैर, जब पटाखों को धर्म एवं भावनाओं के साथ जोड़ ही दिया गया तो पहले बात कुछ धर्म की कर ली जाए। चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी की करीब चाल साल पहले यात्रा की थी। धर्म के नाम पर धंधा एवं साक्षात लूट खसोट देखी तो वहां के अनुभव को लगातार धारावाहिक के रूप में लिखा था। 'जग के नहीं पैसे के नाथ' से यह 32 कडि़यां मेरे ब्लॉग (बातूनी) पर भी हैं। इसको गूगल पर इस लिंक.... http://khabarnavish.blogspot.in. को सर्च कर के पढ़ा जा सकता है। दरअसल, यह ब्लॉग पढ़ाने का उददेश्य यही है कि आज जो धर्म के हिमायती बन रहे हैं, उनको धर्म के नाम पर फैलाई जा रही है, इस तरह की अव्यवस्था दिखाई क्यों नहीं देती? एनसीआर में सिर्फ एक दिन के लिए पटाखों की बिक्री के लिए लगाया गया प्रतिबंध तो नागवार गुजरता है, लेकिन धर्म के नाम पर साल भर चलने वाले धंधों पर कोई कुछ नहीं बोलता। यह दोहरा चरित्र किसलिए? धर्म के रक्षक होने का दंभ भरने वालों यह लूट खसोट शायद इसीलिए चल रही है, क्योंकि आपका जैसों का नैतिक व मौन समर्थन इससे जुड़ा है। तुलसीदास जी ने कहा है परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीडा सम नहंी अधमाई.. अर्थात परोपकार से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है तथा किसी को दुख पहुंचाने से बढ़कर अधर्म कोई नहीं है। रामचरित मानस के रचियता ने ही परोपकार को सबसे बड़ा धर्म माना है। अब पटाखे फोडऩे वाले या उनके समर्थक बताएं कि पटाखे फोडऩा किस तरह का परोपकारी काम है। पटाखे फोडऩे से अगर सभी की भावनाएं खुश होती तो अब तक दिल्ली एवं एनसीआर के लोग सड़कों पर आ चुके होते। पटाखों का समर्थन करता और तरह-तरह के तर्क देता जो तबका दिखाई दे रहा है, उसके विपरीत वो धड़ा भी है, जो पटाखों के धूंए और कर्कश शोर से दुखी होता है। धर्म क्या है यह तुलसीदासजी ने बता ही दिया लेकिन इसके बावजूद जो धर्म के हिमायती बने हैं, उनसे चंद सवाल और... झूठ बोलना धर्म है या सच बोलना धर्म है। लाइन में लगकर भगवान के दर्शन करना धर्म है या किसी परिचित से जुगाड़ कर पिछले दरवाजे से घुसकर दर्शन धर्म है। वृद्ध मां-बाप की सेवा करना धर्म है या उनको वृद्धाश्रम में भर्ती करवा देना धर्म है।
क्रमश:......

पटाखों से ज्यादा प्रतिक्रियाओं का शोर-3

बस यूं ही
न चाहते हुए भी प्रतिक्रियाओं के शोर का क्रम एक दिन के लिए टूटा। कारण कल अति व्यस्तता रही। दिन भर बेहद व्यस्त कार्यक्रम। खैर, इस प्रतिक्रियाएं इस पोस्ट पर भी आ रही हैं। ठीक उसी तरह की जैसी पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध के बाद से ही आ रही है। मतलब दोनों ही तरह की प्रतिक्रियाएं। इन प्रतिक्रियाओं में सूजानगढ़ के श्रीमान बृजगोपाल जी शर्मा की एक प्रतिक्रिया मौजूं हैं। वैसे बताता चलूं कि आदरणीय शर्मा से परिचय फेसबुक के माध्यम से ही हुआ। करीब दो तीन साल बाद आभासी दुनिया का यह परिचय हकीकत में भी बदला। मेरा सुजानगढ़ जाना हुआ तो शर्मा जी ने ससम्मान घर आने का न्यौता दिया और फिर चाय की चुस्कियों, रसगुल्लों की मिठास व नमकीन तरह खट्ठी मीठा हमारी मुलाकात और परवान चढ़ी। बहरहाल बात प्रतिक्रियाओं की। शर्माजी ने मेरी पिछली पोस्ट पर लिखा कि 'आप सही हो लेकिन....सोशल मीडिया पर आप किसी को रोक नहीं सकते। किसी की जुबान नहीं पकड़ सकते।' बिलकुल मैं उनकी बात से सहमत हूं। यह भी जरूरी नहीं कि मैं जो लिख रहा हूं वह सभी के गले उतरे। सभी उससे सहमत हों। एेसा संभव भी नहीं है। विचार जबरन किसी पर थोपे भी नहीं जा सकते। मतभेद हमेशा से ही रहा है। भले ही बात तर्क संगत हो या विवेक संगत। किसी परिचित ने एक बार मुलाकात में यूं ही कहा था कि धर्म को कभी बहस को मुद्दा नहीं बनाना नहीं चाहिए। दरअसल, यहां धर्म पर जोर इसीलिए दे रहा हूं क्योंकि पटाखों के साथ न केवल धर्म का घालमेल कर दिया गया है बल्कि इसमें दूसरों धर्म से तुलना भी कर ली गई है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस विषय को दिमाग की बजाय दिल का विषय बना दिया गया है। और दिल हमेशा भावनाओं पर निर्भर है। पटाखों को भावनाओं-धर्म के साथ इस तरह के मिला दिया गया है कि कमोबेश हर तीसरा या चौथा आदमी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नाखुश नजर आता है। धर्म खतरे में है। सारे फैसले एक ही धर्म के खिलाफ आ रहे हैं। अन्य धर्मों को कुछ नहंीं का जा रहा है। यह हमारे त्योहारों को खत्म करने का साजिश है ।और भी न जाने कितनी ही बातें जो धर्म के साथ जोड़ दी गई। वैसे भी धर्म के नाम पर हम भारतीयों की भावनाएं जरूरत से ज्यादा ही उबाल मारने लगती हैं।
क्रमश:......

पटाखों से ज्यादा प्रतिक्रियाओं का शोर-2

बस यूं ही
कोर्ट के फैसले पर नाराजगी जाहिर करने वाले जो तर्क दे रहे हैं, उनको देखकर लगाता है, देश में कई जज पैदा हो गए हैं। बानगी देखिए, दुनिया के 199 देश पटाखे फोड़ते हैं, भारत में एेसा क्या हो गया। विदेशों में फूटते हैं तो खुशियां लाते हैं, भारत में फूटते हैं तो प्रदूषण फैलाते हैं। एक और तर्क देखिए... पटाखों का आनंद लीजिए, इससे चिकनुनिया व डेंगू के मच्छर मरेंगे। एक फोटो भी वायरल हो रखा है, जिसमें जज की भूमिका में व्यक्ति है जबकि दूसरे फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार हैं। इन दोनों के सवाल-जवाब से बात कही गई है। जज कहते हैं, पॉल्युकेशन कंट्रोल के लिए इस बार दिल्ली में पटाखे नहीं बिकेंगे। इस पर अक्षय कहते हैं, अगर आप एक दिन एक्सरसाइज कर लें तो आपका मोटापा एक दिन में कंट्रोल हो जाएगा। जज वापस पूछते हैं, एक दिन में एक्सरसाइज से मोटापा कंट्रोल में कैसे आएगा तो अक्षय पलट के पूछते हैं, तो एक दिन पटाखे ना चलाने से पॉल्युकेशन कैसे कंट्रोल आ जाएगा जनाब? इसी तरह के और कई व्यंग्य और चुटकले हैं। यह देखिए, हे सुप्रीम कोर्ट, जब सेहत के हानिकारक लिखकर शराब व सिगरेट बेच सकते हैं तो पर्यावरण के लिए हानिकारक लिखकर पटाखे क्यों नहीं? पॉलिथीन में हवा भरकर भड़ाम से फोडऩा भी बैन है क्या? बाबा रामदेव पता नहीं कहां है, मौके का फायदा उठाकर वो प्रदूषण मुक्त पतंजलि हर्बल पटाखे बाजार में उतार देते अब तक। इन सबके साथ फिल्म अनिभेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी के फोटो के साथ एक मैसेज भी वायरल हो रहा है, जिसमें कहा गया है कि, अगर यह पटाखे बैन का फैसला नहीं आता तो शायद अपनी समझ से कम पटाखे फोडते लेकिन अब तो दुगुने फूटेंगे। दिल पर लग गई जज साहब दिल पर। खैर, इन सब (कु) तर्कों की सूची बनाएं तो बेहद लंबी हो जाएगी। बड़ी और गंभीर बात तो यह है कि मेरे जैसा कोई कोर्ट के फैसले के स्वागत में बोल या लिख भी रहा है तो उस पर यह कथित देशभक्त इस तरह से टूट रहे हैं गोया जैसे किसी ने उन भैस खोल ली हो।
क्रमश...

इक बंजारा गाए -5


📌नेकी कर और..
एक चर्चित मुहावरा है, नेकी कर दरिया में डाल। इसका अर्थ होता है, भला करो और भूल जाओ। श्रीगंगानगर में संदर्भ में इस मुहावरे के मायने बदल जाते हैं। अगर इस मुहावरे को नेकी कर चौराहे पर टांग कर दिया जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। वैसे तो मदद व दान दो तरह के होते हैं। कोई श्रेय ले लेता है तो कोई यह काम बिना किसी शोर शराबे के चुपचाप ही कर देता है, लेकिन शहर में श्रेय लेने वालों की संख्या ज्यादा है। बात श्रेय तक ही सीमित नहीं है। श्रेय के लिए बाकायदा चौक-चौराहों पर होर्डिंग्स तक लगा दिए जाते हैं। कई होर्डिंग्स तो समय से पहले ही लगा दिए जाते हैं तो कई समय बीतने के बाद भी टंगे रहते हैं। लिहाजा, इस तरह श्रेय लेने वालों के लिए नेकी कर दरिया में डाल वाला मुहावरा, नेकी कर चौराहे पर टांग ज्यादा मुफीद लगता है।
📌दिलचस्पी का राज
राजनीति में कई तरह के अर्थ निकाले जाते हैं। मसलन, कोई दूरी बनाकर रखता है तो इसके मायने अलग माने जाते हैं। कोई नजदीकियां बढ़ाता हैं तो इसको कुछ और समझा जाता है। और कोई किसी स्थान विशेष को लेकर दिलचस्पी दिखाने लगे तो भी राजनीतिक गलियारों में इसका मतलब निकाल लिया जाता है। अब एक केन्द्रीय मंत्री का श्रीगंगानगर जिले के प्रति मोह कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रहा है। उनके उस मोह से उनके समकक्ष के नेताओं के दिलों पर सांप लोटना भी स्वाभाविक है। बताया जाता है कि एक कार्यक्रम के बहाने मंत्री जी ने श्रीगंगानगर की नब्ज टटोलने का प्रयास भर किया लेकिन उनके प्रतिस्पर्धियों को यह भी नागवार गुजरा। चर्चा तो यह भी है मंत्री के कार्यक्रम में भीड़ ज्यादा न जुटे इसलिए भी प्रतिस्पर्धियों ने अपने स्तर पर प्रयास भी किए लेकिन बात बनी नहीं।
📌शक्ति प्रदर्शन
राजनीति से जुड़े तथा प्रचार-प्रसार की चाह वाले लोग गाहे-बगाहे शक्ति प्रदर्शनों से नहीं चूकते। भले ही शक्ति प्रदर्शन वे अपने समर्थकों से करवाएं या खुद करें यह कोई मायने नहीं रखता। श्रीगंगानगर में इस तरह के प्रदर्शनों की फेहरिस्त बेहद लंबी है। अब रामलीला व दशहरे को ही ले लीजिए। खुद को इक्कीस साबित करने के लिए दो धड़ों ने किस-किस तरह के उपक्रम किए, समूचा शहर जानता है। अब जो किया सो किया लेकिन उन उपक्रमों के निशान अब भी दिखाई दे रहे हैं। दशहरे व रामलीला के बड़े-बड़े होर्डिंग्स त्योहार गुजरने के बाद भी टंगे हुए हैं। भले ही इनकी अब प्रासंगिकता नहीं रही हो लेकिन इस बहाने प्रचार तो हो ही रहा है। अब बैठे बैठाए फ्री में प्रचार हो तो भला इन होर्डिंग्स को क्यों हटवाएंगे। यह तो विभाग ही जाने कि वह किस कीमत पर इस बदरंगता को सहन कर रहा है।
📌सांप-सीढ़ी का खेल
सांप सीढ़ी का खेल बड़ा ही रोचक होता है। जब सीढ़ी पर गोटी आती है तो खेलने वाला जंप कर जाता है जबकि सांप के मुंह पर आने पर वह झट से वापस नीचे लौट जाता है। राजनीति भी एक तरह से सांप-सीढी का ही गेम माना जाता है। श्रीगंगानगर में नगरपरिषद व नगर विकास न्यास के मुखियाओं के बीच भी कुछ इसी तरह का गेम चल रहा है। दोनों ही मुखियाओं में खुद को इक्कीस साबित करने की होड़ सी लगती है। दोनों में से कोई भी किसी तरह का मौका नहीं चूकना चाहता। फिलहाल तो दोनों ही मुखिया इन दिनों शहर की सड़कों को लेकर चर्चा में है। कोई बयान दे रहा है तो कोई चिट्ठी लिखकर जवाब मांग रहा है। वैसे दोनों के इस खेल से अब तक जनता का भला कम ही हुआ है। कई जगह टूटी सड़़कों पर लोग आज भी हिचकोले खा रहे हैं।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 12 अक्टूबर 17 के अंक में प्रकाशित

पटाखों से ज्यादा प्रतिक्रियाओं का शोर-1

बस यूं ही
सुप्रीम कोर्ट ने एनसीआर क्षेत्र में पटाखों की बिक्री पर रोक का फैसला क्या सुनाया समूचे देश में कड़ी प्रतिक्रियाएं होने लगी। विशेषकर सोशल मीडिया पर तो एक तरह का जलजला आया हुआ है। तर्कों व दलीलों की बाढ़ सी आ गई है। मसलन, समूचे देश में पटाखे चलते हैं, तो सिर्फ दीपावली पर ही रोक क्यों? शादी-समारोह में भी खूब पटाखे फूटते हैं। आईपीएल आदि में भी खूब आतिशबाजी होती है, तब प्रदूषण नहीं होता क्या? गाडियों, घरों व आफिस में कितने एसी चलते हैं, उनसे क्या वातारण दूषित नहीं होता? साल में एक दिन रोक से क्या 364 दिन सही हो जाएंगे। सिर्फ हिन्दुओं के त्योहार ही निशाने पर क्यों? अन्य धर्मावलंबी नए साल पर व अपने-अपने पर्वों पर न जाने क्या करते हैं, कोर्ट को वह सब दिखाई क्यों नहीं देता? और तो और तो कइयों ने तो फैसला सुनाने वाले जजों की नियुक्ति पर ही सवाल खड़े कर दिए। कुछ एेसे भी हैं कि जो अपने समर्थन में तर्क दे रहे हैं जब पॉलिथीन व शराब भी प्रतिबंधित करने के बावजूद प्रचलन में है तो फिर पटाखे नहीं बिकेंगे यह कैसे संभव है? यहां तक कहा जा रहा है कि इस बार दिल्ली पुलिस की दिवाली अच्छी होगी। वह कैसी मनेगी यह भी बड़ा सवाल है। इसके अलावा कई तरह के जुमले एवं चुटकले भी चल पड़े हैं। खैर, लब्बोलुआब यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने दीपावली से करीब दस दिन पहले ही देश में एक नई बहस खड़ी कर दी है। यूं समझ लीजिए कि पटाखों की जगह प्रतिक्रियाओं के बम फूट रहे हैं। चुटकियों की फूलझडि़या चल रही हैं। त्योहारों पर गिले शिकवे भूल कर एक होने तथा गले मिलने का संदेश बेमानी सा नजर आने लगा है। वैचारिक रूप से देश दो धड़ों में बंटा हुआ दिखाई दे रहा है। इस वैचारिक विभाजन का स्याह पक्ष यह भी है कि इसमें दूसरे धर्मों की तुलना का तड़का भी लगाया जा रहा है।
क्रमश....

इक बंजारा गाए-4


🔺अपनों पर करम
गैरों पे करम, अपनों पे सितम, ए जाने वफा ये जुल्म ना कर... यह चर्चित गीत गाहे-बगाहे किसी न किसी बहाने से चरितार्थ हो ही जाता है। लेकिन यह गीत इन दिनों यह दूसरे रूप में सटीक बैठ रहा हैं। कहने का आशय यह है कि गीत के बोल व अर्थ दोनों ही बदल गए हैं। मतलब यहां अपनों पर सितम की बजाय करम वाली बात लागू हो रही है। मामला भ्रष्टाचार करने वालों पर कार्रवाई करने वाले विभाग से जुड़ा है। ऐसा नहीं है यह विभाग कार्रवाई नहीं कर रहा है। बाकायदा कार्रवाई हो रही हैं और लगातार हो रही है, लेकिन जिस तरह खाकी के खिलाफ कोई मामला आता है तो पता नहीं क्यों श्रेय श्रीगंगानगर की बजाय बीकानेर वाले ले उड़ते हैं। मामला चाहे घमूडवाली थाने का हो या फिर घड़साना का। श्रीगंगानगर वाले देखते ही रह गए और कार्रवाई बीकानेर वाले करके चले गए। ऐसे में कहने वाले तो कहेंगे ही। आखिर खाकी के प्रति यह प्रेम यूं ही तो नहीं हो सकता। कोई न कोई वजह तो इस प्रेेम की भी होगी ही।
🔺उल्टी गंगा 
उल्टी गंगा बहने का मुहावरा तो कमोबेश सभी ने सुना ही होगा, लेकिन अगर हकीकत में गंगा उलटी बहती दिखाई दे जाए तो क्या हो। यहां उल्टा गंगा बहने से मतलब नियम विरुद्ध काम से संबंधित है। अब जिले के विकास से जुड़े एक विभाग में भी उल्टी गंगा बहने जैसा ही काम हो रहा है। मामला एक भर्ती से जुड़ा है। भर्ती जब विवादों के घेरे में आई तो इसके लिए जांच बैठा दी गई। जांच का परिणाम क्या होगा? कैसा होगा यह तो यह समय ही बताएगा, फिलहाल चर्चा जांच अधिकारी को लेकर हो रही है। दरअसल, इस भर्ती में आरोप विभाग के मुखिया पर ही लगे हैं। अब जांच कोई मुखिया से बड़ा करता या किसी दूसरे विभाग का अधिकारी करता तो समझ में आता था लेकिन हो उल्टा रहा है। यह जांच मुखिया के विभाग का आदमी कर रहा है वह भी उनका अधीनस्थ। वैसे भर्ती पर सवाल उठाने वाले सवाल जांच अधिकारी पर भी उठा रहे हैं, देखते हैं ऊंट किस करवट बैठता है।
🔺अंगद का पांव
अंगद का पैर होना मतलब एक जगह जम जाना। रावण के दरबार में अंगद ने ऐसा पैर जमाया था कि अच्छे-अच्छे सूरमा उसको उठाने में नाकाम रहे थे। यह बात श्रीगंगानगर में एक थानेदार पर भी बिल्कुल जम रही है। वैसे पुराने टाइगर के जमाने में भी इन थानेदार महोदय के जलवे कम नहंीं थे। कथित रूप से इनकी पहुंच सीधे ही जयपुर मुख्यालय तक बताई जा रही है। नए टाइगर आने के बाद भी थानेदार साहब के रुतबे में किसी तरह की कोई कमी नहीं आई है। अब देखिए न, शहर के सभी थानों के प्रभारी बदल दिए गए हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। पिछले साल-दो साल के अंतराल में कई थानों के तो चार प्रभारी बदल गए हैं लेकिन इन थानेदार साहब को इधर से उधर करने में पता नहीं क्यों टाइगर ने हाथ पीछे खींच लिए। अब इस तरह जमे बैठे थानाधिकारी के चर्चे तो हर जगह होने ही हैं। खुद खाकी में भी उसकी अच्छी खासी चर्चा है।
🔺सरकारी संरक्षण
कहीं पर नियम विरुद्ध कोई काम होता पाया जाता है तो यही कहा जाता है कि जरूर ऊपर के स्तर पर कोई शह है या फिर मिलीभगत वरना इस तरह सरेआम कानून व नियमों को ठेंगा कौन दिखा सकता है। श्रीगंगानगर में नियम विरुद्ध कामों की फेहरिस्त लंबी है। चाहे निर्धारित समय के बाद शराब की बिक्री की बात हो या फिर देर रात तक ढाबे या दुकानें खुलने की। किसी को किसी तरह का डर ही नहीं है। अब देखिए न शहर के अंदर ही एक वेज-नॉनवेज भोजन का होटल तो रात बारह बजे के बाद तक बाकायदा ठरके से चलता है। होटल के ग्राहकों के हाव-भाव देखकर सहज की अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके कदम लडख़ड़ा क्यों रहे हैं। इस ढाबे के पास बाकायदा एक थाना भी है। ऐसा हो नहीं सकता है खाकी की नजर में यह सब नहीं हो? ऐसे में शक की सुई घूमने लगती है।
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राजस्थान पत्रिका के श्रीगंगानगर संस्करण में 05 अक्टूबर 17 के अंक में प्रकाशित

वाकई दुनिया छोटी है और गोल भी


बस यूं ही
कहते हैं ना दुनिया गोल है और छोटी भी। एक गाना भी है, छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं, तुम कभी तो मिलोगे कहीं तो मिलोगे तो पूछेंगे हाल। जी हां यह गाना कल बिलकुल सटीक बैठ गया। दरअसल, कल जयपुर में आफिस की मीटिंग से फ्री हुआ तब तक मोबाइल की बैटरी मरने की कगार तक पहुंच चुकी थी। उबर की टैक्सी को बुलावा भी जैसे तैसे दिया वरना ऑटो वाले से मोलभाव करना पड़ता। सिंधी कैम्प पहुंचा तब तक मोबाइल कभी भी बंद होने वाली स्थिति में आ चुका था। बस में बैठते ही तत्काल एक मैसेज लिखा, मैं दस बजे तक झुंझुनूं पहुंच जाऊंगा आप मिल जाना मेरे को गांव छोडऩा है। यह लिखकर मित्र योगेन्द्रसिंह कालीपहाड़ी को सेंट कर दिया। उनका जवाब आता इससे पहले ही मोबाइल बंद हो गया।
बस से नीचे से उतरकर महिला परिचालक से गाड़ी चलने का समय पूछा तो उसने 4.25 बजे बताया। लगे हाथ अभी क्या बजा है यह भी पूछ लिया तो उसने पर्स से मोबाइल निकालकर कहा 4.16 बजे हो गए। इसके बाद मेरी नजर एक दुकान पर लगे बिजली के बोर्ड पर पड़ी। आंखों में चमक और उम्मीद के साथ मैं उस दुकान की तरफ बढ़ा। मैंने दुकानदार से अपनी पीड़ा बताई तो वह कहने लगा मोबाइल चार्ज करने का शुल्क बीस रुपए लगेगा। मैं थोड़ा सा मुस्कुराया और फिर मुंह बनाते हुए खुद से ही कहने लगा यह भी कोई बात होती है। दुकानदार भी मेरा मिजाज शायद भांप गया था, बोला भाईसाइब दिन में पचास लोग आते हैं। सब से लेते हैं। मैं नाक भौं सिकोड़ता हुआ दूसरी तरफ लपका। यह समाचार-पत्र विक्रेता की दुकान थी। छोटी सी गुमटी। अंदर एक दाढ़ी में युवक बैठा था। आंखों पर नजर का चश्मा लगाए। उसके पास दो युवक बैठे थे। मैंने उसको भी यही समस्या बताई तो कहने लगा दस रुपए लगेंगे। मैंने कहा भाई टाइम होने वाला है, दो चार मिनट की ही तो बात है, तो कहने लगा है चाहे दो मिनट करो या दो घंटे उससे कोई मतलब नहीं है, पूरे दस ही लगेंगे।
आखिरकार मैंने मोबाइल व चार्जर उसको दे दिया और वहां दुकान के आगे खड़ा हो गया। मेरी एक नजर बस पर तो दूसरी मोबाइल पर टिकी थी। इस दौरान दो युवक और आए और उन्होंने दाढ़ी वाले युवक को चैनजी के नाम से संबोधित किया। हावभाव और बातचीत के तरीके से मैं इतना तो समझ गया है यह युवक जरूर राजपूत परिवार से है। मैंने सोचा यह युवक शायद सीकर का होना चाहिए।
इसी बीच बस की तरफ हलचल बढ़ती देख मैंने तत्काल दस रुपए जेब से निकाले और उससे पहले टाइम पूछा। उसने 4.24 बजे बताए तो मैंने मोबाइल व चार्जर मांग लिए। इसके बाद शंका का समाधान करने के लिए मैंने युवक से पूछा आप कहां के हो? हालांकि यह मेरी आदत भी है। मैं किसी से परिचय करने के बाद तत्काल ही उससे गांव आदि पूछ लेता हूं। युवक ने कहा कि उसका गांव नागौर जिले में मकराना के पास है। मैंने हाथोहाथ पूरक सवाल दागकर गांव का नाम भी पूछ लिया। युवक का जवाब सुनकर मैं चौंक गया। उसने जो नाम बताया वह चिंडालिया का था। मैं मंद ही मंद मुस्कुराया और कहा चिंडालिया मेरा ससुराल है। अब सवाल पूछने की बारी युवक की थी। उसने कहा आपकी ससुराल किनके यहां है। मैंने ससुर जी का नाम बताया तो कहने लगा कि वह तो काकोसा लगते हैं और जोधपुर रहते हैं। यह कहने के बाद उसने दस रुपए भी वापस कर दिए। मात्र पांच-सात मिनट के इस घटनाक्रम, वार्तालाप व परिचय को लेकर कई बार तक सोचता रहा। सब कुछ अकस्मात हुआ लेकिन संयोग देखिए। है ना गजब।